कर्म
और उसके फल का अनिवार्य संबंध है। व्यक्ति अच्छे और बुरे जो भी कर्म करता
है उसके अनुरूप भविष्य में उसे सुख अथवा दु:ख की प्राप्ति होती है। इसी को
कर्मसिद्धांत अथवा
कर्मवाद कहते हैं।
चार्वाक के अतिरिक्त अन्य सभी
भारतीय दर्शन कर्मवाद का एक स्वर से प्रतिपादन करते हैं और इसको जीवन के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते हैं।
कर्मवाद की उत्पत्ति
कर्मवाद की प्रथम अनुभूति वैदिक
यज्ञ
के विधान में होती है। वैदिक विश्वास के अनुसार यदि यज्ञ का विधिवत्
संपादन किया जाए तो उससे एक अदृश्य शक्ति उत्पन्न होती है। इसे अदृष्ट अथवा
अपूर्व कहते हैं। यही उचित अवसर आने पर यज्ञ के वांछित फल को उत्पन्न करती
है। इस प्रकार यज्ञ का फल मनुष्य को अवश्य प्राप्त होता है। इस कर्म और फल
के संबंध की सार्वभौम नियम के रूप में अभिव्यक्ति सर्वप्रथम
ऋग्वेद
के ऋत के सिद्धांत में मिलती है। ऋत समस्त विश्व में व्याप्त है तथा उसका
संचालन और नियंत्रण करता है। यह जगत् की भौतिक तथा नैतिक व्यवस्था का आधार
है। देवता तथा मनुष्य सभी इसका पालन करते हैं। वरुण ऋत के अधिष्ठाता माने
गए हैं। वह पाप करनेवालों को घोर अंधकार के गह्वर में डालते हैं जहाँ से
उनका प्रत्यावर्तन नहीं होता। इसी प्रकार अच्छे कर्म करनेवालों को
सर्वोत्तम सुखों की प्राप्ति होती है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार मृत्यु के
उपरांत जीव को दो अग्नियों के मध्य से होकर जाना पड़ता है। वे अशुभ कर्म
करनेवालों को जलाती हैं पर शुभ करनेवालों को नहीं।
कर्मवाद और नैतिक व्यवस्था
कर्म का शाश्वत तथा सार्वभौम नियम जगत् की नैतिक व्यवस्था का आधार है।
इसका और अधिक स्पष्ट रूप में प्रतिपादन उपनिषदों में किया गया है।
बृहदारण्यक के अनुसार मनुष्य का कर्म ही उसके साथ जाता है। आत्मा का जैसा
चरित्र एवं व्यवहार होता है वह वैसा ही हो जाता है। छांदोग्य के अनुसार
सुंदर चरित्रवाले व्यक्ति अच्छी योनि प्राप्त करते हैं, जैसे ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य योनि, और निंद्य चरित्रवाले व्यक्ति नीच योनियों में जन्म
लेते हैं, जैसे कुत्ते, सुअर, चांडाल आदि। कौषीतकी उपनिषद् में कर्मनियम का
स्पष्ट उल्लेख है कि जीव अपने कर्म और ज्ञान के अनुसार कीड़े, पतंगे,
मछली, पक्षी, सिंह, सर्प और मनुष्य आदि योनियों में जन्म लेते हैं। इस
प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन में अव्यवस्था तथा संयोग के लिए कोई
स्थान नहीं है। प्राणियों का जन्म, उनका विकास, उनके सुख दु:ख आदि की
अनुभूति कर्म के द्वारा नियंत्रित होती रहती है। उन्हें उनके कर्मानुसार फल
की प्राप्ति अवश्य होती है।
कर्मवाद और दु:ख तथा असमानता
कर्मनियम के जीवन की नैतिक व्यवस्था का आधार होने के कारण उससे अनेक
समस्याओं का हल भी प्राप्त हो जाता है। जीवन दु:खमय है। वह अनेक प्रकार की
बुराइयों तथा विषमताओं से भरा हुआ है। इन सबका कारण क्या है? भारतीय
दार्शनिक नागसेन के अनुसार कर्मों के अंतर के कारण ही सभी मनुष्य समान नहीं
होते। कुछ अधिक आयुवाले, कुछ कम आयुवाले, कुछ स्वस्थ, कुछ रोगी, कुछ धनी
कुछ निर्धन आदि होते हैं। वेदांत के अनुसार ईश्वर जीवों के कर्मानुसार ही
उन्हें विभिन्न फल प्रदान करता है। उसमें उसका कोई पक्षपात नहीं हे। इसी
प्रकार अन्य भारतीय दर्शन भी दु:ख, असमानता, पुनर्जन्म आदि समस्याओं का
समाधान कर्मसिद्धांत के द्वारा करते हैं।
कर्मवाद और अदृष्ट, अपूर्व, आश्रव तथा अविज्ञप्ति रूप
कर्म और उसके फल का अनिवार्य संबंध मानने में एक तार्किक कठिनाई उपस्थित
होती है। वह यह है कि कर्म और उसके फल में बहुधा अधिक समय का अंतर देखा
जाता है। यह भी संभव है कि वर्तमान जीवन में किए हुए कर्मों का फल मनुष्य
को दूसरे जन्म में भोगना पड़े। इस प्रकार समय का इतना अधिक अंतर होने के
कारण कर्म और फल का संबंध कैसे संभव है? भारतीय दर्शन अदृष्ट, अपूर्व,
आश्रव तथा अविज्ञप्ति रूप आदि सिद्धांतों के द्वारा इस समस्या का हल
प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं। न्याय के अनुसार, व्यक्ति द्वारा किए
हुए कर्मों से उत्पन्न पुण्य और पाप के समूह को अदृष्ट कहते हैं। यह अदृष्ट
आत्मा के साथ संयुक्त रहता है और अवसर आने पर सुख दु:ख आदि फलों को
उत्पन्न करता है। मीमांसकों के अनुसार, यज्ञ आदि जो किए जाते हैं वे
यज्ञकर्ता की आत्मा में एक अदृश्य शक्ति उत्पन्न करते हैं जिसे अपूर्व कहा
जाता है। यह अपूर्व आत्मा में रहता है और कालांतर में यज्ञ का अभीप्सित फल
उत्पन्न करता है। जैन दर्शन में कर्म और फल के संबंध की व्याख्या जीव में
पुद्गल कर्मों अथवा कर्म पुद्गल के आश्रव के सिद्धांत के द्वारा की गई है।
इसी प्रकार बौद्ध दर्शन के अनुसार प्राणियों के अंदर एक अत्यंत सूक्ष्म और
अदृश्य शक्ति कार्य करती रहती है जिसे अविज्ञप्ति रूप कहते हैं। यही उनके
द्वारा किए हुए शुभ अशुभ कर्मों का तदनुसार फल उत्पन्न करती है। इस प्रकार
अदृष्ट, अपूर्व, आश्रव तथा अविज्ञप्ति रूप तत्व कर्म और फल के बीच सेतु का
कार्य करते हैं।
कर्मवाद और कर्मस्वातंत्रय
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या कर्म का सिद्धांत मनुष्य के
कर्मस्वातंत्रय का विरोधी है? क्या मनुष्य पूर्वजन्म में किए हुए अथवा इसी
जन्म में किए हुए पहले के कर्मां से इतना बँध गया है कि वह स्वतंत्र रूप से
कार्य नहीं कर सकता? भारतीय दर्शन इस मत को स्वीकार नहीं करते। उनके
अनुसार मनुष्य कर्म करने में पूर्ण रूप से स्वतंत्र है। पूर्व के कर्म
मनुष्य के अंदर विशेष प्रकार की प्रवृत्तियाँ उत्पन्न कर सकते हैं पर उसे
किसी विशेष प्रकार का कार्य करने के लिए बाध्य नहीं कर सकते। मनुष्य अच्छे
बुरे जो भी कर्म करता है उसके लिए नैतिक दृष्टि से वह पूर्ण रूप से
जिम्मेदार है। इस प्रकार कर्मवाद अथवा कर्मसिद्धांत का मनुष्य के संकल्प की
स्वतंत्रता तथा उसके कर्मसवतंत्रय से किंचिन्मात्र भी विरोधी नहीं है।
कर्मस्वतंत्रय के कारण ही मनुष्य योग आदि आध्यात्मिक मागों का अनुसरण कर
कर्मनियम का अंत में अतिक्रमण कर जाता है और दु:ख तथा जन्ममरण के बंधन से
सदा के लिए मुक्त हो जाता है।
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