यह जगत अनादिकालीन है। अनादिकालीन यह जगत अनंतकालीन
भी है। यह जगत कभी नहीं था, ऐसा भी नहीं और यह जगत कभी अस्तित्व में नहीं
रहेगा, ऐसा भी संभव नहीं है। अनादि-अनंत इस जगत में ‘जीव’ और ‘जड’ ये दो
प्रकार के मुख्य पदार्थ हैं, अतः जगत के प्रत्येक पदार्थ का या तो जीव में
या जड में समावेश हो जाता है। जड कर्मों का जीव के साथ योग होने से संसार
है और जीव जब जड के संयोग से सर्वथा मुक्त बन जाता है, तब यह जीव संसार से
मुक्त हो गया, ऐसा कहा जाता है।
जीव को संसारी बनाए रखने वाला जो जड का संयोग है, वह जड-संयोग कर्म स्वरूप है। कर्म जड है, परन्तु जीव मात्र को जड कर्म का संयोग अनादिकाल से है; और जड स्वरूप कर्म के इस संयोग के अनादिकालीन होते हुए भी किसी कर्म विशेष का संयोग किसी भी जीव के साथ अनादि से नहीं होता, क्योंकि फलभोग आदि द्वारा ये कर्म आत्मा से अलग भी होते जाते हैं और बंध के कारणों का अस्तित्व होने पर नए-नए कर्म जीव के साथ बंधते भी जाते हैं। अर्थात् किसी कर्म-विशेष का संयोग जीव के साथ अनादिकाल से नहीं होता। परन्तु प्रवाह रूप में अथवा परम्परा रूप में जीव के साथ जड कर्म का जो संयोग है, वह अनादि कालीन है। ऐसा होने से जीव को अनादिकर्मवेष्टिक कहने के बजाय, अनादिकर्मसंतानवेष्टिक अथवा अनादिकर्म परम्परा वेष्टिक आदि कहना, विशेष समुचित है।
कर्म का बंध उसी जीव को हो सकता है, जिस जीव में कर्म का संयोग होने से कर्म संयोग के अनुकूल परिणाम-स्वरूप योग्यता होती है। प्रति समय आत्मा कर्म से छूटती भी है और कर्म को बांधती भी है। वीतराग और सर्वज्ञ बनी हुई आत्मा केवल चार प्रकार के कर्मों से सहित होती है। इसलिए वह चार प्रकार के कर्मों से छूटती जाती है और इस आत्मा को केवल योग प्रत्ययिक और वह भी शता वेदनीय का ही बंध होता है। ऐसा करते-करते यह आत्मा ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है कि उसे कर्म का बंध होता ही नहीं और इससे वह सकल कर्मों से रहित बन जाता है।
जीवमात्र अनादिकाल से कर्म संतान से वेष्टित है, अतः जीवमात्र के लिए सम्यक्त्व दुर्लभ है। ‘सम्यक्त्व दुर्लभ है’, यह बात जितनी सच्ची है, उतनी ही सच्ची बात यह भी है कि सम्यक्त्व को अपने लिए सुलभ बनाए बिना जीव के लिए कोई चारा भी नहीं है। क्योंकि सम्यक्त्व को पाए बिना कोई भी जीव गृहिधर्म या साधुधर्म को उसके सही स्वरूप में प्राप्त नहीं कर सकता है; और धर्म को सच्चे स्वरूप में पाए बिना, कोई भी जीव अपने मोक्ष को सिद्ध नहीं कर सकता है।-आचार्य श्रीविजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा .....
जीव को संसारी बनाए रखने वाला जो जड का संयोग है, वह जड-संयोग कर्म स्वरूप है। कर्म जड है, परन्तु जीव मात्र को जड कर्म का संयोग अनादिकाल से है; और जड स्वरूप कर्म के इस संयोग के अनादिकालीन होते हुए भी किसी कर्म विशेष का संयोग किसी भी जीव के साथ अनादि से नहीं होता, क्योंकि फलभोग आदि द्वारा ये कर्म आत्मा से अलग भी होते जाते हैं और बंध के कारणों का अस्तित्व होने पर नए-नए कर्म जीव के साथ बंधते भी जाते हैं। अर्थात् किसी कर्म-विशेष का संयोग जीव के साथ अनादिकाल से नहीं होता। परन्तु प्रवाह रूप में अथवा परम्परा रूप में जीव के साथ जड कर्म का जो संयोग है, वह अनादि कालीन है। ऐसा होने से जीव को अनादिकर्मवेष्टिक कहने के बजाय, अनादिकर्मसंतानवेष्टिक अथवा अनादिकर्म परम्परा वेष्टिक आदि कहना, विशेष समुचित है।
कर्म का बंध उसी जीव को हो सकता है, जिस जीव में कर्म का संयोग होने से कर्म संयोग के अनुकूल परिणाम-स्वरूप योग्यता होती है। प्रति समय आत्मा कर्म से छूटती भी है और कर्म को बांधती भी है। वीतराग और सर्वज्ञ बनी हुई आत्मा केवल चार प्रकार के कर्मों से सहित होती है। इसलिए वह चार प्रकार के कर्मों से छूटती जाती है और इस आत्मा को केवल योग प्रत्ययिक और वह भी शता वेदनीय का ही बंध होता है। ऐसा करते-करते यह आत्मा ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है कि उसे कर्म का बंध होता ही नहीं और इससे वह सकल कर्मों से रहित बन जाता है।
जीवमात्र अनादिकाल से कर्म संतान से वेष्टित है, अतः जीवमात्र के लिए सम्यक्त्व दुर्लभ है। ‘सम्यक्त्व दुर्लभ है’, यह बात जितनी सच्ची है, उतनी ही सच्ची बात यह भी है कि सम्यक्त्व को अपने लिए सुलभ बनाए बिना जीव के लिए कोई चारा भी नहीं है। क्योंकि सम्यक्त्व को पाए बिना कोई भी जीव गृहिधर्म या साधुधर्म को उसके सही स्वरूप में प्राप्त नहीं कर सकता है; और धर्म को सच्चे स्वरूप में पाए बिना, कोई भी जीव अपने मोक्ष को सिद्ध नहीं कर सकता है।-आचार्य श्रीविजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा .....
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