सरस्वती, विद्या और बुद्धि की देवी हैं। उन्हीं से हमें पवित्रता, शुद्धि, समृद्धि और शक्ति
प्राप्त होती है। प्राचीन ग्रंथों में इनका संबंध यज्ञीय देवता इड़ा और
भारती से भी जोड़ा गया है। इनका प्रिय वर्ण श्वेत है, जो सात्विकता, सहजता
और सरलता का प्रतीक है। यह वर्ण ईर्ष्या और क्रोध से परे रहकर शुद्ध ज्ञान
का भी प्रतीक है। सरस्वती के वस्त्र भी श्वेत हैं और उनका आसन भी श्वेत कमल
है। उनका वाहन श्वेत राजहंस है, जो नीर-क्षीर विवेक का प्रतीक है। मां
सरस्वती का यह व्यक्तित्व ज्ञान की अभिलाषा और शांति की लालसा रखने वाले
किसी भी भक्त को अपनी ओर आकर्षित करने में समर्थ है। माघ शुक्ल पंचमी को
वसंत पंचमी (इस वर्ष 15 फरवरी) के दिन मां सरस्वती का आविर्भाव माना जाता
है। तद्नुसार इसी दिन सरस्वती के वार्षिक पूजन का विधान है।
विश्व के आदिग्रंथ ऋग्वेद में सरस्वती का वर्णन है। प्रारंभ में सरस्वती का वर्णन पवित्र नदी के रूप में किया गया, जिसके किनारे बैठकर ऋषियों-मुनियों ने मंत्रों की रचना की और वैदिक साहित्य की नींव रखी। बाद में इन्हें नदी देवता के रूप में स्वीकार किया गया और फिर इन्हें वाग्देवी के रूप में मान्यता मिली। ऋग्वेद में ही इन्हें पावक अर्थात सबको पवित्र करने वाली और 'शंतमा' अर्थात शांति देने वाली और सबका कल्याण करने वाली देवी भी कहा गया। सरस्वती के उपासकों में भी हमें इसी गुण की अपेक्षा रहती है। विद्या की प्राप्ति व्यक्ति को नम्र और विनयी बनाती है। सरस्वती, भारती और इड़ा- इन तीन देवियों को ऋग्वेद (10.110.8) में 'तियो देवी' की भी संज्ञा दी गयी। अर्थात ऋग्वेद काल से ही देवी के रूप में सरस्वती को मान्यता मिल गयी थी। कालांतर में ब्राह्मण ग्रंथों (शतपथ ब्राह्मण 3.9.1 तथा ऐतरेय ब्राह्मण 3.1) में इस रूप का और अधिक विकास हुआ। शतपथ ब्राह्मण (14.2.1,12) में स्पष्ट रूप से कहा गया- 'वाक वै सरस्वती'। उपनिषद काल में तो मुख्यत: सरस्वती पर ही एक उपनिषद की भी रचना कर दी गयी- सरस्वती रहस्योपनिषद।
पुराणों में सरस्वती के अनेक रूपों की चर्चा की गयी है। उनके जन्म के बारे में भी अनेक विचारधाराएं सामने आयीं। एक विचारधारा के अनुसार स्वयं ईश्वर के मुख से सरस्वती का जन्म हुआ, इसीलिए इनका नाम वाणी रखा गया। एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार सरस्वती का जन्म पार्वती के शरीरकोष से हुआ, इसीलिए इनका एकनाम कौशिकी पड़ गया। देवी भागवत के अनुसार सरस्वती का जन्म श्रीकृष्ण की जिह्वा से हुआ और उन्होंने ही सरस्वती पूजा को प्रचारित किया।
प्राचीन संस्कृत साहित्य में सरस्वती का ब्रह्मा से विशेष संबंध है। ब्रह्मा सम्पूर्ण सृष्टि के रचयिता और रक्षक हैं। वे आदिपुरुष हैं। सृष्टि में सर्वप्रथम उन्हीं का आविर्भाव हुआ तथा बाद में उन्होंने सृष्टि का निर्माण किया। सृष्टि निर्माण से संबंधित विभिन्न कथाएं पुराणों में हैं। एक कथा के अनुसार ब्रह्मा के दायें भाग से स्वायम्भुव मनु तथा बाएं भाग से शतरूपा उत्पन्न हुईं। यही दोनों सृष्टि के जन्मदाता बने। ब्रह्मा की पत्नी के रूप में ब्रह्माणी का नाम लिखा जाता है, जो उनकी शक्ति भी है। ब्रह्माणी के बारे में विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता, लेकिन एक कथा के अनुसार ब्रह्मा ने स्वयं अपने शरीर के एक हिस्से से जिस नारी का निर्माण किया और जिसका नाम शतरूपा था, उसी को ब्रह्माणी भी कहा गया। सरस्वती के बारे में यह भी कहा गया कि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने के कारण वे ब्रह्मा की पुत्री हैं और इसी रूप में उन्हें वाग्देवी कहा जाता है। सरस्वती प्रकारांतर में ज्ञान की ही प्रतीक हैं।
गायत्री उस मंत्र का नाम है जिसकी रचना ऋषि विश्वामित्र ने पुष्कर में की थी और जिसे सावितृ देव को अर्पित किया गया था। इस गायत्री मंत्र को आज भी हिन्दू समुदाय अपने लिए अत्यंत पवित्र और बुद्धि का दाता मानता है। घर-घर में इस मंत्र का पाठ किया जाता है और इस मंत्र से यज्ञ भी किये जाते हैं। इस तथ्य से हमें यह जानकारी मिलती है कि ये तीनों देवियां- सावित्री, गायत्री और सरस्वती समान रूप में बुद्धि और सद्गुणों की प्रतीक हैं। इसलिए पुष्कर में आयोजित तपस्या के महाकुंभ में आदिपुरुष ब्रह्मा के साथ इन तीनों का संदर्भ में आना सहज स्वाभाविक है। सावित्री, गायत्री और सरस्वती- ये तीनों देवियां ज्ञान की प्रतीक हैं और ब्रह्मा ज्ञान के मूल स्रोत हैं। ज्ञान के उपासक हम सब हैं और इस रूप में हम सब सरस्वती के भक्त और पुत्र हैं तथा सृष्टि के पितामह ब्रह्मा सरस्वती के भी पिता हैं।
अन्य देवी-देवताओं के समान सरस्वती के चित्रों में भी उनके चार हाथ दर्शाए जाते हैं। उनके दो हाथ वीणा थामने और उसे बजाने में व्यस्त हैं। तीसरे में पुस्तक तथा चौथे में माला है। वीणा, संगीत और अन्य सभी प्रकार की कलाओं की प्रतीक हैं। सरस्वती की कृपा के बिना कोई भी व्यक्ति किसी भी विद्या में श्रेष्ठ कलाकार नहीं बन सकता। पुस्तक उस ज्ञान की प्रतीक है, जिसकी स्वामिनी स्वयं सरस्वती हैं। ज्ञान की देवी के रूप में ही मां सरस्वती की आराधना अधिकांश शिक्षण संस्थाओं में की जाती है। परीक्षाओं में बैठने वाले छात्र-छात्राएं भी अपना शिक्षण कार्य प्रारंभ करने से पहले मां सरस्वती का स्मरण करना आवश्यक समझते हैं। माला अध्यात्म और निष्ठा की प्रतीक है, जिसके अभाव में कोई भी शिक्षण कार्य सफल नहीं हो सकता।
सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी सर्वप्रथम मां सरस्वती की आराधना प्रस्तुत की जाती है। सरस्वती की अभिव्यक्ति हमारे प्रत्येक शब्द में होती है। वह शब्द चाहे लिखा जाए और चाहे बोला जाए। इसलिए हिन्दुओं में अधिकांशत: किसी भी प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति के लिए सरस्वती का आशीर्वाद आवश्यक माना जाता है। कभी-कभी सरस्वती के एक हाथ में माला के स्थान पर कमंडलु भी दिखलाई देता है जो इस बात का प्रतीक है कि ज्ञान का भंडार अक्षय होता है। वह कभी समाप्त नहीं होता। विश्वभर को ज्ञान बांटने के बाद भी ज्ञान का कमंडलु भरा ही रहता है। यह केवल ज्ञान की विशेषता है, धन या अन्य वस्तुओं की नहीं।
सरस्वती की वार्षिक पूजा के लिए माघ शुक्ल पंचमी (वसंत पंचती) का दिन विशेष रूप से निर्धारित किया गया है। इस समय का वासन्तिक वातावरण ज्ञान की देवी सरस्वती की उपासना के लिए सर्वश्रेष्ठ अवसर प्रदान करता है। अनेक स्थानों पर बालकों का विद्यारंभ भी इसी दिन से किया जाता है। शिक्षण संस्थाओं में इस दिन विशेष कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रम भी सम्पन्न होते हैं। सरस्वती पूजन कहीं सरस्वती के चित्र के सामने और कहीं उनके प्रतीक के रूप में कलम-दवात के सामने किया जाता है। कहीं-कहीं आश्विन शुक्ल नवमी को भी पुस्तकों के रूप में सरस्वती का पूजन किया जाता है। सामान्यत: यह पूजन सप्तमी से दशमी तक चार दिन चलता है। मां सरस्वती का ध्यान इस मंत्र के साथ किया जाता है-
या कुन्देन्दुतुषारहार धवला, या शुभ्र वस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा, या श्वेत पद्मासना।
या ब्रह्माच्युतशंकर प्रभृतिभिर्देवै:सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा।।
विश्व के आदिग्रंथ ऋग्वेद में सरस्वती का वर्णन है। प्रारंभ में सरस्वती का वर्णन पवित्र नदी के रूप में किया गया, जिसके किनारे बैठकर ऋषियों-मुनियों ने मंत्रों की रचना की और वैदिक साहित्य की नींव रखी। बाद में इन्हें नदी देवता के रूप में स्वीकार किया गया और फिर इन्हें वाग्देवी के रूप में मान्यता मिली। ऋग्वेद में ही इन्हें पावक अर्थात सबको पवित्र करने वाली और 'शंतमा' अर्थात शांति देने वाली और सबका कल्याण करने वाली देवी भी कहा गया। सरस्वती के उपासकों में भी हमें इसी गुण की अपेक्षा रहती है। विद्या की प्राप्ति व्यक्ति को नम्र और विनयी बनाती है। सरस्वती, भारती और इड़ा- इन तीन देवियों को ऋग्वेद (10.110.8) में 'तियो देवी' की भी संज्ञा दी गयी। अर्थात ऋग्वेद काल से ही देवी के रूप में सरस्वती को मान्यता मिल गयी थी। कालांतर में ब्राह्मण ग्रंथों (शतपथ ब्राह्मण 3.9.1 तथा ऐतरेय ब्राह्मण 3.1) में इस रूप का और अधिक विकास हुआ। शतपथ ब्राह्मण (14.2.1,12) में स्पष्ट रूप से कहा गया- 'वाक वै सरस्वती'। उपनिषद काल में तो मुख्यत: सरस्वती पर ही एक उपनिषद की भी रचना कर दी गयी- सरस्वती रहस्योपनिषद।
पुराणों में सरस्वती के अनेक रूपों की चर्चा की गयी है। उनके जन्म के बारे में भी अनेक विचारधाराएं सामने आयीं। एक विचारधारा के अनुसार स्वयं ईश्वर के मुख से सरस्वती का जन्म हुआ, इसीलिए इनका नाम वाणी रखा गया। एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार सरस्वती का जन्म पार्वती के शरीरकोष से हुआ, इसीलिए इनका एकनाम कौशिकी पड़ गया। देवी भागवत के अनुसार सरस्वती का जन्म श्रीकृष्ण की जिह्वा से हुआ और उन्होंने ही सरस्वती पूजा को प्रचारित किया।
प्राचीन संस्कृत साहित्य में सरस्वती का ब्रह्मा से विशेष संबंध है। ब्रह्मा सम्पूर्ण सृष्टि के रचयिता और रक्षक हैं। वे आदिपुरुष हैं। सृष्टि में सर्वप्रथम उन्हीं का आविर्भाव हुआ तथा बाद में उन्होंने सृष्टि का निर्माण किया। सृष्टि निर्माण से संबंधित विभिन्न कथाएं पुराणों में हैं। एक कथा के अनुसार ब्रह्मा के दायें भाग से स्वायम्भुव मनु तथा बाएं भाग से शतरूपा उत्पन्न हुईं। यही दोनों सृष्टि के जन्मदाता बने। ब्रह्मा की पत्नी के रूप में ब्रह्माणी का नाम लिखा जाता है, जो उनकी शक्ति भी है। ब्रह्माणी के बारे में विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता, लेकिन एक कथा के अनुसार ब्रह्मा ने स्वयं अपने शरीर के एक हिस्से से जिस नारी का निर्माण किया और जिसका नाम शतरूपा था, उसी को ब्रह्माणी भी कहा गया। सरस्वती के बारे में यह भी कहा गया कि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने के कारण वे ब्रह्मा की पुत्री हैं और इसी रूप में उन्हें वाग्देवी कहा जाता है। सरस्वती प्रकारांतर में ज्ञान की ही प्रतीक हैं।
गायत्री उस मंत्र का नाम है जिसकी रचना ऋषि विश्वामित्र ने पुष्कर में की थी और जिसे सावितृ देव को अर्पित किया गया था। इस गायत्री मंत्र को आज भी हिन्दू समुदाय अपने लिए अत्यंत पवित्र और बुद्धि का दाता मानता है। घर-घर में इस मंत्र का पाठ किया जाता है और इस मंत्र से यज्ञ भी किये जाते हैं। इस तथ्य से हमें यह जानकारी मिलती है कि ये तीनों देवियां- सावित्री, गायत्री और सरस्वती समान रूप में बुद्धि और सद्गुणों की प्रतीक हैं। इसलिए पुष्कर में आयोजित तपस्या के महाकुंभ में आदिपुरुष ब्रह्मा के साथ इन तीनों का संदर्भ में आना सहज स्वाभाविक है। सावित्री, गायत्री और सरस्वती- ये तीनों देवियां ज्ञान की प्रतीक हैं और ब्रह्मा ज्ञान के मूल स्रोत हैं। ज्ञान के उपासक हम सब हैं और इस रूप में हम सब सरस्वती के भक्त और पुत्र हैं तथा सृष्टि के पितामह ब्रह्मा सरस्वती के भी पिता हैं।
अन्य देवी-देवताओं के समान सरस्वती के चित्रों में भी उनके चार हाथ दर्शाए जाते हैं। उनके दो हाथ वीणा थामने और उसे बजाने में व्यस्त हैं। तीसरे में पुस्तक तथा चौथे में माला है। वीणा, संगीत और अन्य सभी प्रकार की कलाओं की प्रतीक हैं। सरस्वती की कृपा के बिना कोई भी व्यक्ति किसी भी विद्या में श्रेष्ठ कलाकार नहीं बन सकता। पुस्तक उस ज्ञान की प्रतीक है, जिसकी स्वामिनी स्वयं सरस्वती हैं। ज्ञान की देवी के रूप में ही मां सरस्वती की आराधना अधिकांश शिक्षण संस्थाओं में की जाती है। परीक्षाओं में बैठने वाले छात्र-छात्राएं भी अपना शिक्षण कार्य प्रारंभ करने से पहले मां सरस्वती का स्मरण करना आवश्यक समझते हैं। माला अध्यात्म और निष्ठा की प्रतीक है, जिसके अभाव में कोई भी शिक्षण कार्य सफल नहीं हो सकता।
सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी सर्वप्रथम मां सरस्वती की आराधना प्रस्तुत की जाती है। सरस्वती की अभिव्यक्ति हमारे प्रत्येक शब्द में होती है। वह शब्द चाहे लिखा जाए और चाहे बोला जाए। इसलिए हिन्दुओं में अधिकांशत: किसी भी प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति के लिए सरस्वती का आशीर्वाद आवश्यक माना जाता है। कभी-कभी सरस्वती के एक हाथ में माला के स्थान पर कमंडलु भी दिखलाई देता है जो इस बात का प्रतीक है कि ज्ञान का भंडार अक्षय होता है। वह कभी समाप्त नहीं होता। विश्वभर को ज्ञान बांटने के बाद भी ज्ञान का कमंडलु भरा ही रहता है। यह केवल ज्ञान की विशेषता है, धन या अन्य वस्तुओं की नहीं।
सरस्वती की वार्षिक पूजा के लिए माघ शुक्ल पंचमी (वसंत पंचती) का दिन विशेष रूप से निर्धारित किया गया है। इस समय का वासन्तिक वातावरण ज्ञान की देवी सरस्वती की उपासना के लिए सर्वश्रेष्ठ अवसर प्रदान करता है। अनेक स्थानों पर बालकों का विद्यारंभ भी इसी दिन से किया जाता है। शिक्षण संस्थाओं में इस दिन विशेष कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रम भी सम्पन्न होते हैं। सरस्वती पूजन कहीं सरस्वती के चित्र के सामने और कहीं उनके प्रतीक के रूप में कलम-दवात के सामने किया जाता है। कहीं-कहीं आश्विन शुक्ल नवमी को भी पुस्तकों के रूप में सरस्वती का पूजन किया जाता है। सामान्यत: यह पूजन सप्तमी से दशमी तक चार दिन चलता है। मां सरस्वती का ध्यान इस मंत्र के साथ किया जाता है-
या कुन्देन्दुतुषारहार धवला, या शुभ्र वस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा, या श्वेत पद्मासना।
या ब्रह्माच्युतशंकर प्रभृतिभिर्देवै:सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा।।
No comments:
Post a Comment