णक्य (अनुमानतः ईसापूर्व ३७५ - ईसापूर्व २२५) चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री थे। वे 'कौटिल्य' नाम से भी विख्यात हैं। उन्होने नदवंश का नाश करके चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बनाया। उनके द्वारा रचित अर्थशास्त्र राजनीति, अर्थनीति, कृषि, समाजनीति आदि का महान ग्रंन्थ है। अर्थशास्त्र मौर्यकालीन भारतीय समाज का दर्पण माना जाता है।
मुद्राराक्षस के अनुसार इनका असली नाम 'विष्णुगुप्त' था। विष्णुपुराण, भागवत आदि पुराणों तथा कथासरित्सागर आदि संस्कृत ग्रंथों में तो चाणक्य का नाम आया ही है, बौद्ध ग्रंथो में भी इसकी कथा बराबर मिलती है । बुद्धघोष की बनाई हुई विनयपिटक की टीका तथा महानाम स्थविर रचित महावंश की टीका में चाणक्य का वृत्तांत दिया हुआ है । चाणक्य तक्षशिला (एक नगर जो रावलापिंडी के पास था) के निवासी थे । इनके जीवन की घटनाओं का विशेष संबंध मौर्य चंद्रगुप्त की राज्यप्राप्ति से है । ये उस समय के एक प्रसिद्ध विद्वान थे, इसमें कोई संदेह नहीं। कहते हैं कि चाणक्य राजसी ठाट-बाट से दूर एक छोटी सी कुटिया में रहते थे।
उनके नाम पर एक धारावाहिक भा बना था जो दूरदर्शन पर १९९० के दशक में दिखाया जाता था ।
पाटलिपुत्र के राजा नंद या महानंद के यहाँ कोई यज्ञ था । उसमें ये भी गए और भोजन के समय एक प्रधान आसन पर जा बैठे । महाराज नंद ने इनका काला रंग देख इन्हें आसन पर से उठवा दिया । इसपर क्रुद्ध होकर इन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि जबतक मैं नंदों का नाश न कर लूँगा तबतक अपनी शिखा न बाँधूँगा । उन्हीं दिनों राजकुमार चंद्रगुप्त राज्य से निकाले गए थे । चद्रगुप्त ने चाणक्य से मेल किया और दोनों आदमियों ने मिलकर म्लेच्छ राजा पर्वतक की सेना लेकर पटने पर चढ़ाई की और नंदों को युद्ध में परास्त करके मार डाला ।
नंदों के नाश के संबंध में कई प्रकार की कथाएँ हैं । कहीं लिखा है कि चाणक्य ने शकटार के यहाँ निर्माल्य भेजा जिसे छूते ही महानंद और उसके पुत्र मर गए । कहीं विषकन्या भेजने की कथा लिखी है । मुद्राराक्षस नाटक के देखेने से जाना जाता है कि नंदों का नाश करने पर भी महानंद के मंत्री राक्षस के कौशल और नीति के कारण चंद्रगुप्त को मगध का सिंहासन प्राप्त करने में बड़ी बड़ी कठिनाइयाँ पडीं । अंत में चाणक्य ने अपने नीतिबल से राक्षस को प्रसन्न किया और चंद्रगुप्त को मंत्री बनाया । बौद्ध ग्रंथो में भी इसी प्रकार की कथा है, केवल 'महानंद' के स्थान पर 'धननंद' है।
कुछ विद्वानों के अनुसार कौटिल्य का जन्म पंजाब के चणक क्षेत्र में हुआ था, जबकि कुछ विद्वान मानते हैं कि उसका जन्म दक्षिण भारत में हुआ था। कई विद्वानों का यह मत है कि वह कांचीपुरम का रहने वाला द्रविण ब्राह्मण था। वह जीविकोपार्जन की खोज में उत्तर भारत आया था। कुछ विद्वानों के मतानुसार केरल भी उसका जन्म स्थान बताया जाता है। इस संबंध में उसके द्वारा चरणी नदी का उल्लेख इस बात के प्रमाण के रूप में दिया जाता है। कुछ संदर्भों में यह उल्लेख मिलता है कि केरल निवासी विष्णुगुप्त तीर्थाटन के लिए वाराणसी आया था, जहाँ उसकी पुत्री खो गयी। वह फिर केरल वापस नहीं लौटा और मगध में आकर बस गया। इस प्रकार के विचार रखने वाले विद्वान उसे केरल के कुतुल्लूर नामपुत्री वंश का वंशज मानते हैं। कई विद्वानों ने उसे मगध का ही मूल निवासी माना है। कुछ बौद्ध साहित्यों ने उसे तक्षशिक्षा का निवासी बताया है। कौटिल्य के जन्मस्थान के संबंध में अत्यधिक मतभेद रहने के कारण निश्चित रूप से यह कहना कि उसका जन्म स्थान कहाँ था, कठिन है, परंतु कई संदर्भों के आधार पर तक्षशिला को उसका जन्म स्थान मानना ठीक होगा।
वी. के. सुब्रमण्यम ने कहा है कि कई संदर्भों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि सिकन्दर को अपने आक्रमण के अभियान में युवा कौटिल्य से भेंट हुई थी। चूँकि अलेक्जेंडर का आक्रमण अधिकतर तक्षशिला क्षेत्र में हुआ था, इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि कौटिल्य का जन्म स्थान तक्षशिला क्षेत्र में ही रहा होगा। कौटिल्य के पिता का नाम चणक था। वह एक गरीब ब्राह्मण था और किसी तरह अपना गुजर-बसर करता था। अतः स्पष्ट है कि कौटिल्य का बचपन गरीबी और दिक्कतों में गुजरा होगा। कौटिल्य की शिक्षा-दीक्षा के संबंध में कहीं कुछ विशेष जिक्र नहीं मिलता है, परन्तु उसकी बुद्धि का प्रखरता और उसकी विद्वता उसके विचारों से परिलक्षित होती है। वह कुरूप होते हुए भी शारीरिक रूप से बलिष्ठ था। उसकी पुस्तक 'अर्शशास्त्र' के अवलोकन से उसकी प्रतिभा, उसके बहुआयामी व्यक्तित्व और दूरदर्शिता का पूर्ण आभास होता है।
कौटिल्य के बारे में यह कहा जाता है कि वह बड़ा ही स्वाभिमानी एवं क्रोधी स्वभाव का व्यक्ति था। एक किंवदंती के अनुसार एक बार मगध के राजा महानंद ने श्राद्ध के अवसर पर कौटिल्य को अपमानित किया था। कौटिल्य ने क्रोध के वशीभूत होकर अपनी शिखा खोलकर यह प्रतिज्ञा की थी कि जब तक वह नंदवंश का नाश नहीं कर देगा तब तक वह अपनी शिखा नहीं बाँधेंगा। कौटिल्य के व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश करने का यह भी एक बड़ा कारण था। नंदवंश के विनाश के बाद उसने चन्द्रगुप्त मौर्य को राजगद्दी पर बैठने में हर संभव सहायता की। चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा गद्दी पर आसीन होने के बाद उसे पराक्रमी बनाने और मौर्य साम्राज्य का विस्तार करने के उद्देश्य से उसने व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश किया। वह चन्द्रगुप्त मौर्य का मंत्री भी बना।
कई विद्वानों ने यह कहा है कि कौटिल्य ने कहीं भी अपनी रचना में मौर्यवंश या अपने मंत्रित्व के संबंध में कुछ नहीं कहा है, परंतु अधिकांश स्रोतों ने इस तथ्य की संपुष्टि की है। 'अर्थशास्त्र' में कौटिल्य ने जिस विजिगीषु राजा का चित्रण प्रस्तुत किया है, निश्चित रूप से वह चन्द्रगुप्त मौर्य के लिये ही संबोधित किया गया है।
भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के कारण छोटे-छोटे राज्यों की पराजय से अभिभूत होकर कौटिल्य ने व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश करने का संकल्प किया। उसकी सर्वोपरि इच्छा थी भारत को एक गौरवशाली और विशाल राज्य के रूप में देखना। निश्चित रूप से चन्द्रगुप्त मौर्य उसकी इच्छा का केन्द्र बिन्दु था। आचार्य कौटिल्य को एक ओर पारंगत और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ के रूप में मौर्य साम्राज्य का संस्थापक और संरक्षक माना जाता है, तो दूसरी ओर उसे संस्कृति साहित्य के इतिहास में अपनी अतुलनीय एवं अद्भुत कृति के कारण अपने विषय का एकमात्र विद्वान होने का गौरव प्राप्त है। कौटिल्य की विद्वता, निपुणता और दूरदर्शिता का बखान भारत के शास्त्रों, काव्यों तथा अन्य ग्रंथों में परिव्याप्त है। कौटिल्य द्वारा नंदवंश का विनाश और मौर्यवंश की स्थापना से संबंधित कथा विष्णु पुराण में आती है।
अति विद्वान और मौर्य साम्राज्य का महामंत्री होने के बावजूद कौटिल्य का जीवन सादगी का जीवन था। वह 'सादा जीवन उच्च विचार' का सही प्रतीक था। उसने अपने मंत्रित्वकाल में अत्यधिक सादगी का जीवन बिताया। वह एक छोटा-से मकान में रहता था और कहा जाता है कि उसके मकान की दीवारों पर गोबर के उपले थोपे रहते थे।
उसकी मान्यता थी कि राजा या मंत्री अपने चरित्र और ऊँचे आदर्शों के द्वारा लोगों के सामने एक प्रतिमान दे सकता है। उसने सदैव मर्यादाओं का पालन किया और कर्मठता की जिंदगी बितायी। कहा जाता है कि बाद में उसने मंत्री पद त्यागकर वानप्रस्थ जीवन व्यतीत किया था। वस्तुतः उसे धन, यश और पद का कोई लोभ नहीं था। सारतत्व में वह एक 'वितरागी', 'तपस्वी, कर्मठ और मर्यादाओं का पालन करनेवाला व्यक्ति था, जिसका जीवन आज भी अनुकरणीय है।
एक प्रकांड विद्वान तथा एक गंभीर चिंतक के रूप में कौटिल्य तो विख्यात है ही, एक व्यावहारिक एवं चतुर राजनीतिज्ञ के रूप में भी उसे ख्याति मिली है। नंदवंश के विनाश तथा मगध साम्राज्य की स्थापना एवं विस्तार में उसका ऐतिहासिक योगदान है। सालाटोर के कथनानुसार प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन में कौटिल्य का सर्वोपरि स्थान है। मैकियावेली की भाँति कौटिल्य ने भी राजनीति को नैतिकता से पृथक कर एक स्वतंत्र शास्त्र के रूप में अध्ययन करने का प्रयास किया है।
तान्नदान् कौटल्यो ब्राह्मणस्समुद्धरिष्यति।
इस संबंध में एक विवाद और उत्पन्न हुआ है, और वह है कौटिल्य और कौटल्य का। गणपति शास्त्री ने 'कौटिल्य' के स्थान पर 'कौटल्य' को ज्यादा प्रमाणिक माना है। उनके अनुसार कुटल गोत्र होने के कारण कौटल्य नाम सही और संगत प्रतीत होता है। कामन्दकीय नीतिशास्त्र के अन्तर्गत कहा गया है—
कौटल्य इति गोत्रनिबन्धना विष्णु गुप्तस्य संज्ञा।
सांबाशिव शास्त्री ने कहा है कि गणपतिशास्त्री ने संभवतः कौटिल्य को प्राचीन संत कुटल का वंशज मानकर कौटल्य नाम का प्रयोग किया है, परन्तु इस बात का कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता है कि कौटिल्य संत कुटल के वंश और गोत्र का था। 'कोटिल्य' और 'कौटल्य' नाम का विवाद और भी कई विद्वानों ने उठाया है। वी. ए. रामास्वामी ने गणपतिशास्त्री के कथन का समर्थन किया है। आधुनिक विद्वानों ने दोनों नामों का प्रयोग किया है। पाश्चात्य विद्वानों ने कौटल्य और कौटिल्य नाम के विवाद को अधिक महत्त्व नहीं दिया है। उनके मतानुसार इस प्रकार की भ्रांति हिज्जे के हेर-फेर के कारण हो सकती है। अधिकांश पाश्चात्य लेखकों ने कौटिल्य नाम का ही प्रयोग किया है। भारत में विद्वानों ने दोनों नामों का प्रयोग किया है, बल्कि ज्यादातर कौटिल्य नाम का ही प्रयोग किया है। इस संबंध में राधाकांत का कथन भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उसने अपनी रचना 'शब्दकल्पद्रम' में कहा है
अस्तु कौटल्य इति वा कौटिल्य इति या चाणक्यस्य गोत्रनामधेयम्।
कौटिल्य के और भी कई नामों का उल्लेख किया गया है। जिसमें चाणक्य नाम प्रसिद्ध है। कौटिल्य को चाणक्य के नाम से पुकाररने वाले कई विद्वानों का मत है कि चाणक का पुत्र होने के कारण यह चाणक्य कहलाया। दूसरी ओर कुछ विद्वानों के कथानानुसार उसका जन्म पंजाब के चणक क्षेत्र में हुआ था, इसलिए उसे चाणक्य कहा गया है, यद्यपि इस संबंध में कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता है। एक बात स्पष्ट है कि कौटिल्य और चाणक्य एक ही व्यक्ति है।
उपर्युक्त नामों के अलावा उसके और भी कई नामों का उल्लेख मिलता है, जैसे विष्णुगुप्त। कहा जाता है कि उसका मूल नाम विष्णुगुप्त ही था। उसके पिता ने उसका नाम विष्णुगुप्त ही रखा था। कौटिल्य, चाणक्य और विष्णुगुप्त तीनों नामों से संबंधित कई संदर्भ मिलते हैं, किंतु इन तीनों नामों के अलावा उसके और भी कई नामों का उल्लेख किया गया है, जैसे वात्स्यायन, मलंग, द्रविमल, अंगुल, वारानक्, कात्यान इत्यादि इन भिन्न-भिन्न नामों में कौन सा सही नाम है और कौन-सा गलत नाम है, यह विवाद का विषय है। परन्तु अधिकांश पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों ने 'अर्थशास्त्र' के लेखक के रूप में कौटिल्य नाम का ही प्रयोग किया है।
कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने कौटिल्य के अस्तित्व पर ही प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है। विन्टरनीज, जॉली और कीथ के मतानुसार कौटिल्य नाम प्रतीकात्मक है, जो कूटनीति का प्रतीक है। पांतजलि द्वारा अपने महाभाष्य में कौटिल्य का प्रसंग नहीं आने के कारण उनके मतों का समर्थन मिला है। जॉली ने तो यहाँ तक कह डाला है कि 'अर्थशास्त्र' किसी कौटिल्य नामक व्यक्ति की कृति नहीं है। यह किसी अन्य पंडित या आचार्य का रचित ग्रंथ है। शामाशास्त्री और गणपतिशास्त्री दोनों ने ही पाश्चात्य विचारकों के मत का खंडन किया है। दोनों का यह निश्चय मत है कि कौटिल्य का पूर्ण अस्तित्व था, भले ही उसके नामों में मतांतर पाया जाता हो। वस्तुतः इन तीनों पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा कौटिल्य का अस्तित्व को नकारने के लिए जो बिंदु उठाए गए हैं, वे अनर्गल एवं महत्त्वहीन हैं। पाश्चात्य विद्वानों का यह कहना है कि कौटिल्य ने इस बात का कहीं उल्लेख नहीं किया है कि वह चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में अमात्य या मंत्री था, इसलिए उस 'अर्थशास्त्र' का लेखन नहीं माना जा सकता है। यह बचकाना तर्क है। कौटिल्य के कई संदर्भों से यह स्पष्ट हो चुका है कि उसने चन्द्रगुप्त मौर्य की सहायता से नंदवंश का नाश किया था और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी।
चाणक्य के शिष्य कामंदक ने अपने 'नीतिसार' नामक ग्रंथ में लिखा है कि विष्णुगुप्त चाणक्य ने अपने बुद्धिबल से अर्थशास्त्र रूपी महोदधि को मथकर नीतिशास्त्र रूपी अमृत निकाला । चाणक्य का 'अर्थशास्त्र' संस्कृत में राजनीति विषय पर एक विलक्षण ग्रंथ है । इसके नीति के श्लोक तो घर घर प्रचलित हैं । पीछे से लोगों ने इनके नीति ग्रंथों से घटा बढाकर वृद्धचाणक्य, लघुचाणक्य, बोधिचाणक्य आदि कई नीतिग्रंथ संकलित कर लिए । चाणक्य सब विषयों के पंडित थे। 'विष्णुगुप्त सिद्धांत' नामक इनका एक ज्योतिष का ग्रंथ भी मिलता है । कहते हैं, आयुर्वेद पर भी इनका लिखा 'वैद्यजीवन' नाम का एक ग्रंथ है । न्याय भाष्यकार वात्स्यायन और चाणक्य को कोई कोई एक ही मानते हैं, पर यह भ्रम है जिसका मूल हेमचंद का यह श्लोक है:
‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ में ऐसी चर्चाओं को देखकर ही मुद्राराक्षसकार कवि विशाखादत्त चाणक्य को कुटिलमति (कौटिल्य: कुटिलमतिः) कहा है और बाणभट्ट ने ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ को ‘निर्गुण’ तथा ‘अतिनृशंसप्रायोपदेशम्’ (निर्दयता तथा नृशंसता का उपदेश देने वाला) कहकर निन्दित बतलाया है। 'मञ्जुश्री मूलकल्प' नाम की एक नवीन उपलब्ध ऐतिहासिक कृति में कौटिल्य को ‘दुर्मति’, क्रोधन और ‘पापक’ पुकारकर गर्हा का पात्र प्रदर्शित किया गया है।
प्राच्यविद्या के विशेषज्ञ अनेक आधुनिक पाश्चात्य विद्वानों ने भी उपर्युक्त अनैतिक व्यवस्थाओं को देखकर कौटिल्य की तुलना यूरोप के प्रसिद्ध लेखक और राजनीतिज्ञ मेकियावली से की है, जिसने अपनी पुस्तक ‘द प्रिन्स’ में राजा को लक्ष्य-प्राप्ति के लिए उचित अनुचित सभी साधनों का आश्रय लेने का उपदेश दिया है। विण्टरनिट्ज आदि पाश्चात्य विद्वान् कौटिल्य तथा मेकियावली में निम्नलिखित समानताएं प्रदर्शित करते हैं:
(क) मेकियावली और कौटिल्य दोनों राष्ट्र को ही सब कुछ समझते हैं। वे राष्ट्र को अपने में ही उद्देश्य मानते हैं।
(ख) कौटिल्य-नीति का मुख्य आधार है, ‘आत्मोदय: परग्लानि;’ अर्थात् दूसरों की हानि पर अपना अभ्युदय करना। मेकियावली ने भी दूसरे देशों की हानि पर अपने देश की अभिवृद्धि करने का पक्ष-पोषण किया है। दोनों एक समान स्वीकार करते हैं कि इस प्रयोजन की सिद्धि के लिए कितने भी धन तथा जन के व्यय से शत्रु का विनाश अवश्य करना चाहिए।
(ग) अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए किसी भी साधन, नैतिक या अनैतिक, का आश्रय लेना अनुचित नहीं है। मेकियावली और कौटिल्य दोनों का मत है कि साध्य को सिद्ध करना ही राजा का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए। साधनों के औचित्य या अनौचित्य की उसे चिन्ता नहीं करनी चाहिए।
(घ) दोनों युद्ध को राष्ट्र-नीति का आवश्यक अंग मानते हैं। दोनों की सम्मति में प्रत्येक राष्ट्र को युद्ध के लिए उद्यत रहना चाहिए, क्योंकि इसी के द्वारा देश की सीमा तथा प्रभाव का विस्तार हो सकता है।
(ङ) अपनी प्रजा में आतंक स्थापित करके दृढ़ता तथा निर्दयता से उस पर शासन करना दोनों एक समान प्रतिपादित करते हैं। दोनों एक विशाल सुसंगठित गुप्तचर विभाग की स्थापना का समर्थन करते हैं, जो प्रजा के प्रत्येक पार्श्व में प्रवेश करके राजा के प्रति उसकी भक्ति की परीक्षा करे और शत्रु से सहानुभूति रखने वाले लोगों को गुप्त उपायों से नष्ट करने का यत्न करे।
अत: कौटिल्य तथा मेकियावली में ऐसी सदृशता दिखाना युक्तिसंगत नहीं। निस्सन्देह कौटिल्य भी मेकियावली के समान यथार्थवादी था और केवल आदर्शवाद का अनुयायी न था। परन्तु यह कहना कि कौटिल्य ने धर्म या नैतिकता को सर्वथा तिलांञ्जलि दे दी थी, सत्यता के विपरीत होगा। कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ के प्रथम अधिकरण में ही स्थापना की है;
तस्मात् स्वधर्म भूतानां राजा न व्यभिचारयेत्।
स्वधर्म सन्दधानो हि, प्रेत्य चेह न नन्दति।। (1/3)
अर्थात्- राजा प्रजा को अपने धर्म से च्युत न होने दे। राजा भी अपने धर्म का आचरण करे। जो राजा अपने धर्म का इस भांति आचरण करता है, वह इस लोक और परलोक में सुखी रहता है।
इसी प्रथम अधिकरण में ही राजा द्वारा अमर्यादाओं को व्यवस्थित करने पर भी बल दिया गया है और वर्ण तथा आश्रम-व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए आदेश दिया गया है। यहां पर त्रयी तथा वैदिक अनुष्ठान को प्रजा के संरक्षण का मूल आधार बतलाया गया है। कौटिल्य ने स्थान-स्थान पर राजा को वृद्धों की संगत करने वाला, विद्या से विनम्र, जितेन्द्रिय और काम-क्रोध आदि शत्रु-षड्वर्ग का दमन करने वाला कहा है। ऐसा राजा अधार्मिक अथवा अत्याचारी बनकर किस प्रकार प्रजा-पीड़न कर सकता है ? इसके विपरीत राजा को प्रजा के लिए पितृ-तुल्य कहा गया है, जो अपनी प्रजा का पालन-पोषण, संवर्धन, संरक्षण, भरण, शिक्षण इत्यादि वैसा ही करता है जैसा वह अपनी सन्तान का करता है।
यह ठीक है कि कौटिल्य ने शत्रुनाश के लिए अनैतिक उपायों के करने का भी उपदेश दिया है। परन्तु इस सम्बन्ध में अर्थशास्त्र के निम्न वचन को नहीं भूलना चाहिए:
एवं दूष्येषु अधार्मिकेषु वर्तेत, न इतरेषु। (5/2)
अर्थात्- इन कूटनीति के उपायों का व्यवहार केवल अधार्मिक एवं दुष्ट लोगों के साथ ही करे, धार्मिक लोगों के साथ नहीं। (धर्मयुद्ध में भी अधार्मिक व्यवहार सर्वथा वर्जित था। केवल कूट-युद्ध में अधार्मिक शत्रु को नष्ट करने के लिए इसका प्रयोग किया जा सकता था।)
चाणक्य का कल्पित चित्र
मुद्राराक्षस के अनुसार इनका असली नाम 'विष्णुगुप्त' था। विष्णुपुराण, भागवत आदि पुराणों तथा कथासरित्सागर आदि संस्कृत ग्रंथों में तो चाणक्य का नाम आया ही है, बौद्ध ग्रंथो में भी इसकी कथा बराबर मिलती है । बुद्धघोष की बनाई हुई विनयपिटक की टीका तथा महानाम स्थविर रचित महावंश की टीका में चाणक्य का वृत्तांत दिया हुआ है । चाणक्य तक्षशिला (एक नगर जो रावलापिंडी के पास था) के निवासी थे । इनके जीवन की घटनाओं का विशेष संबंध मौर्य चंद्रगुप्त की राज्यप्राप्ति से है । ये उस समय के एक प्रसिद्ध विद्वान थे, इसमें कोई संदेह नहीं। कहते हैं कि चाणक्य राजसी ठाट-बाट से दूर एक छोटी सी कुटिया में रहते थे।
उनके नाम पर एक धारावाहिक भा बना था जो दूरदर्शन पर १९९० के दशक में दिखाया जाता था ।
परिचय
चद्रगुप्त के साथ चाणक्य की मैत्री की कथा इस प्रकार है-पाटलिपुत्र के राजा नंद या महानंद के यहाँ कोई यज्ञ था । उसमें ये भी गए और भोजन के समय एक प्रधान आसन पर जा बैठे । महाराज नंद ने इनका काला रंग देख इन्हें आसन पर से उठवा दिया । इसपर क्रुद्ध होकर इन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि जबतक मैं नंदों का नाश न कर लूँगा तबतक अपनी शिखा न बाँधूँगा । उन्हीं दिनों राजकुमार चंद्रगुप्त राज्य से निकाले गए थे । चद्रगुप्त ने चाणक्य से मेल किया और दोनों आदमियों ने मिलकर म्लेच्छ राजा पर्वतक की सेना लेकर पटने पर चढ़ाई की और नंदों को युद्ध में परास्त करके मार डाला ।
नंदों के नाश के संबंध में कई प्रकार की कथाएँ हैं । कहीं लिखा है कि चाणक्य ने शकटार के यहाँ निर्माल्य भेजा जिसे छूते ही महानंद और उसके पुत्र मर गए । कहीं विषकन्या भेजने की कथा लिखी है । मुद्राराक्षस नाटक के देखेने से जाना जाता है कि नंदों का नाश करने पर भी महानंद के मंत्री राक्षस के कौशल और नीति के कारण चंद्रगुप्त को मगध का सिंहासन प्राप्त करने में बड़ी बड़ी कठिनाइयाँ पडीं । अंत में चाणक्य ने अपने नीतिबल से राक्षस को प्रसन्न किया और चंद्रगुप्त को मंत्री बनाया । बौद्ध ग्रंथो में भी इसी प्रकार की कथा है, केवल 'महानंद' के स्थान पर 'धननंद' है।
जीवन-चरित्र
यद्यपि कौटिल्य के जीवन के संबंध में प्रामाणिक तथ्यों का अभाव है। उनके जन्मस्थान के संबंध में भी मतभेद पाया जाता है।कुछ विद्वानों के अनुसार कौटिल्य का जन्म पंजाब के चणक क्षेत्र में हुआ था, जबकि कुछ विद्वान मानते हैं कि उसका जन्म दक्षिण भारत में हुआ था। कई विद्वानों का यह मत है कि वह कांचीपुरम का रहने वाला द्रविण ब्राह्मण था। वह जीविकोपार्जन की खोज में उत्तर भारत आया था। कुछ विद्वानों के मतानुसार केरल भी उसका जन्म स्थान बताया जाता है। इस संबंध में उसके द्वारा चरणी नदी का उल्लेख इस बात के प्रमाण के रूप में दिया जाता है। कुछ संदर्भों में यह उल्लेख मिलता है कि केरल निवासी विष्णुगुप्त तीर्थाटन के लिए वाराणसी आया था, जहाँ उसकी पुत्री खो गयी। वह फिर केरल वापस नहीं लौटा और मगध में आकर बस गया। इस प्रकार के विचार रखने वाले विद्वान उसे केरल के कुतुल्लूर नामपुत्री वंश का वंशज मानते हैं। कई विद्वानों ने उसे मगध का ही मूल निवासी माना है। कुछ बौद्ध साहित्यों ने उसे तक्षशिक्षा का निवासी बताया है। कौटिल्य के जन्मस्थान के संबंध में अत्यधिक मतभेद रहने के कारण निश्चित रूप से यह कहना कि उसका जन्म स्थान कहाँ था, कठिन है, परंतु कई संदर्भों के आधार पर तक्षशिला को उसका जन्म स्थान मानना ठीक होगा।
वी. के. सुब्रमण्यम ने कहा है कि कई संदर्भों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि सिकन्दर को अपने आक्रमण के अभियान में युवा कौटिल्य से भेंट हुई थी। चूँकि अलेक्जेंडर का आक्रमण अधिकतर तक्षशिला क्षेत्र में हुआ था, इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि कौटिल्य का जन्म स्थान तक्षशिला क्षेत्र में ही रहा होगा। कौटिल्य के पिता का नाम चणक था। वह एक गरीब ब्राह्मण था और किसी तरह अपना गुजर-बसर करता था। अतः स्पष्ट है कि कौटिल्य का बचपन गरीबी और दिक्कतों में गुजरा होगा। कौटिल्य की शिक्षा-दीक्षा के संबंध में कहीं कुछ विशेष जिक्र नहीं मिलता है, परन्तु उसकी बुद्धि का प्रखरता और उसकी विद्वता उसके विचारों से परिलक्षित होती है। वह कुरूप होते हुए भी शारीरिक रूप से बलिष्ठ था। उसकी पुस्तक 'अर्शशास्त्र' के अवलोकन से उसकी प्रतिभा, उसके बहुआयामी व्यक्तित्व और दूरदर्शिता का पूर्ण आभास होता है।
कौटिल्य के बारे में यह कहा जाता है कि वह बड़ा ही स्वाभिमानी एवं क्रोधी स्वभाव का व्यक्ति था। एक किंवदंती के अनुसार एक बार मगध के राजा महानंद ने श्राद्ध के अवसर पर कौटिल्य को अपमानित किया था। कौटिल्य ने क्रोध के वशीभूत होकर अपनी शिखा खोलकर यह प्रतिज्ञा की थी कि जब तक वह नंदवंश का नाश नहीं कर देगा तब तक वह अपनी शिखा नहीं बाँधेंगा। कौटिल्य के व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश करने का यह भी एक बड़ा कारण था। नंदवंश के विनाश के बाद उसने चन्द्रगुप्त मौर्य को राजगद्दी पर बैठने में हर संभव सहायता की। चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा गद्दी पर आसीन होने के बाद उसे पराक्रमी बनाने और मौर्य साम्राज्य का विस्तार करने के उद्देश्य से उसने व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश किया। वह चन्द्रगुप्त मौर्य का मंत्री भी बना।
कई विद्वानों ने यह कहा है कि कौटिल्य ने कहीं भी अपनी रचना में मौर्यवंश या अपने मंत्रित्व के संबंध में कुछ नहीं कहा है, परंतु अधिकांश स्रोतों ने इस तथ्य की संपुष्टि की है। 'अर्थशास्त्र' में कौटिल्य ने जिस विजिगीषु राजा का चित्रण प्रस्तुत किया है, निश्चित रूप से वह चन्द्रगुप्त मौर्य के लिये ही संबोधित किया गया है।
भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के कारण छोटे-छोटे राज्यों की पराजय से अभिभूत होकर कौटिल्य ने व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश करने का संकल्प किया। उसकी सर्वोपरि इच्छा थी भारत को एक गौरवशाली और विशाल राज्य के रूप में देखना। निश्चित रूप से चन्द्रगुप्त मौर्य उसकी इच्छा का केन्द्र बिन्दु था। आचार्य कौटिल्य को एक ओर पारंगत और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ के रूप में मौर्य साम्राज्य का संस्थापक और संरक्षक माना जाता है, तो दूसरी ओर उसे संस्कृति साहित्य के इतिहास में अपनी अतुलनीय एवं अद्भुत कृति के कारण अपने विषय का एकमात्र विद्वान होने का गौरव प्राप्त है। कौटिल्य की विद्वता, निपुणता और दूरदर्शिता का बखान भारत के शास्त्रों, काव्यों तथा अन्य ग्रंथों में परिव्याप्त है। कौटिल्य द्वारा नंदवंश का विनाश और मौर्यवंश की स्थापना से संबंधित कथा विष्णु पुराण में आती है।
अति विद्वान और मौर्य साम्राज्य का महामंत्री होने के बावजूद कौटिल्य का जीवन सादगी का जीवन था। वह 'सादा जीवन उच्च विचार' का सही प्रतीक था। उसने अपने मंत्रित्वकाल में अत्यधिक सादगी का जीवन बिताया। वह एक छोटा-से मकान में रहता था और कहा जाता है कि उसके मकान की दीवारों पर गोबर के उपले थोपे रहते थे।
उसकी मान्यता थी कि राजा या मंत्री अपने चरित्र और ऊँचे आदर्शों के द्वारा लोगों के सामने एक प्रतिमान दे सकता है। उसने सदैव मर्यादाओं का पालन किया और कर्मठता की जिंदगी बितायी। कहा जाता है कि बाद में उसने मंत्री पद त्यागकर वानप्रस्थ जीवन व्यतीत किया था। वस्तुतः उसे धन, यश और पद का कोई लोभ नहीं था। सारतत्व में वह एक 'वितरागी', 'तपस्वी, कर्मठ और मर्यादाओं का पालन करनेवाला व्यक्ति था, जिसका जीवन आज भी अनुकरणीय है।
एक प्रकांड विद्वान तथा एक गंभीर चिंतक के रूप में कौटिल्य तो विख्यात है ही, एक व्यावहारिक एवं चतुर राजनीतिज्ञ के रूप में भी उसे ख्याति मिली है। नंदवंश के विनाश तथा मगध साम्राज्य की स्थापना एवं विस्तार में उसका ऐतिहासिक योगदान है। सालाटोर के कथनानुसार प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन में कौटिल्य का सर्वोपरि स्थान है। मैकियावेली की भाँति कौटिल्य ने भी राजनीति को नैतिकता से पृथक कर एक स्वतंत्र शास्त्र के रूप में अध्ययन करने का प्रयास किया है।
नाम, जन्मतिथि और जन्मस्थान
कौटिल्य का नाम, जन्मतिथि और जन्मस्थान तीनों ही विवाद के विषय रहे हैं। कौटिल्य के नाम के संबंध में विद्वानों के बीच मतभेद पाया जाता है। कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के प्रथम अनुवादक पंडित शामाशास्त्री ने कौटिल्य नाम का प्रयोग किया है। 'कौटिल्य नाम' की प्रमाणिकता को सिद्ध करने के लिए पंडित शामाशास्त्री ने विष्णु-पुराण का हवाला दिया है जिसमें कहा गया है—तान्नदान् कौटल्यो ब्राह्मणस्समुद्धरिष्यति।
इस संबंध में एक विवाद और उत्पन्न हुआ है, और वह है कौटिल्य और कौटल्य का। गणपति शास्त्री ने 'कौटिल्य' के स्थान पर 'कौटल्य' को ज्यादा प्रमाणिक माना है। उनके अनुसार कुटल गोत्र होने के कारण कौटल्य नाम सही और संगत प्रतीत होता है। कामन्दकीय नीतिशास्त्र के अन्तर्गत कहा गया है—
कौटल्य इति गोत्रनिबन्धना विष्णु गुप्तस्य संज्ञा।
सांबाशिव शास्त्री ने कहा है कि गणपतिशास्त्री ने संभवतः कौटिल्य को प्राचीन संत कुटल का वंशज मानकर कौटल्य नाम का प्रयोग किया है, परन्तु इस बात का कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता है कि कौटिल्य संत कुटल के वंश और गोत्र का था। 'कोटिल्य' और 'कौटल्य' नाम का विवाद और भी कई विद्वानों ने उठाया है। वी. ए. रामास्वामी ने गणपतिशास्त्री के कथन का समर्थन किया है। आधुनिक विद्वानों ने दोनों नामों का प्रयोग किया है। पाश्चात्य विद्वानों ने कौटल्य और कौटिल्य नाम के विवाद को अधिक महत्त्व नहीं दिया है। उनके मतानुसार इस प्रकार की भ्रांति हिज्जे के हेर-फेर के कारण हो सकती है। अधिकांश पाश्चात्य लेखकों ने कौटिल्य नाम का ही प्रयोग किया है। भारत में विद्वानों ने दोनों नामों का प्रयोग किया है, बल्कि ज्यादातर कौटिल्य नाम का ही प्रयोग किया है। इस संबंध में राधाकांत का कथन भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उसने अपनी रचना 'शब्दकल्पद्रम' में कहा है
अस्तु कौटल्य इति वा कौटिल्य इति या चाणक्यस्य गोत्रनामधेयम्।
कौटिल्य के और भी कई नामों का उल्लेख किया गया है। जिसमें चाणक्य नाम प्रसिद्ध है। कौटिल्य को चाणक्य के नाम से पुकाररने वाले कई विद्वानों का मत है कि चाणक का पुत्र होने के कारण यह चाणक्य कहलाया। दूसरी ओर कुछ विद्वानों के कथानानुसार उसका जन्म पंजाब के चणक क्षेत्र में हुआ था, इसलिए उसे चाणक्य कहा गया है, यद्यपि इस संबंध में कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता है। एक बात स्पष्ट है कि कौटिल्य और चाणक्य एक ही व्यक्ति है।
उपर्युक्त नामों के अलावा उसके और भी कई नामों का उल्लेख मिलता है, जैसे विष्णुगुप्त। कहा जाता है कि उसका मूल नाम विष्णुगुप्त ही था। उसके पिता ने उसका नाम विष्णुगुप्त ही रखा था। कौटिल्य, चाणक्य और विष्णुगुप्त तीनों नामों से संबंधित कई संदर्भ मिलते हैं, किंतु इन तीनों नामों के अलावा उसके और भी कई नामों का उल्लेख किया गया है, जैसे वात्स्यायन, मलंग, द्रविमल, अंगुल, वारानक्, कात्यान इत्यादि इन भिन्न-भिन्न नामों में कौन सा सही नाम है और कौन-सा गलत नाम है, यह विवाद का विषय है। परन्तु अधिकांश पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों ने 'अर्थशास्त्र' के लेखक के रूप में कौटिल्य नाम का ही प्रयोग किया है।
कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने कौटिल्य के अस्तित्व पर ही प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है। विन्टरनीज, जॉली और कीथ के मतानुसार कौटिल्य नाम प्रतीकात्मक है, जो कूटनीति का प्रतीक है। पांतजलि द्वारा अपने महाभाष्य में कौटिल्य का प्रसंग नहीं आने के कारण उनके मतों का समर्थन मिला है। जॉली ने तो यहाँ तक कह डाला है कि 'अर्थशास्त्र' किसी कौटिल्य नामक व्यक्ति की कृति नहीं है। यह किसी अन्य पंडित या आचार्य का रचित ग्रंथ है। शामाशास्त्री और गणपतिशास्त्री दोनों ने ही पाश्चात्य विचारकों के मत का खंडन किया है। दोनों का यह निश्चय मत है कि कौटिल्य का पूर्ण अस्तित्व था, भले ही उसके नामों में मतांतर पाया जाता हो। वस्तुतः इन तीनों पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा कौटिल्य का अस्तित्व को नकारने के लिए जो बिंदु उठाए गए हैं, वे अनर्गल एवं महत्त्वहीन हैं। पाश्चात्य विद्वानों का यह कहना है कि कौटिल्य ने इस बात का कहीं उल्लेख नहीं किया है कि वह चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में अमात्य या मंत्री था, इसलिए उस 'अर्थशास्त्र' का लेखन नहीं माना जा सकता है। यह बचकाना तर्क है। कौटिल्य के कई संदर्भों से यह स्पष्ट हो चुका है कि उसने चन्द्रगुप्त मौर्य की सहायता से नंदवंश का नाश किया था और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी।
कौटिल्य की कृतियाँ
कौटिल्य की कृतियों के संबंध में भी कई विद्वानों के बीच मतभेद पाया जाता है। कौटिल्य की कितनी कृतियाँ हैं, इस संबंध में कोई निश्चित सूचना उपलब्ध नहीं है। कौटिल्य की सबसे महत्त्पूर्ण कृति अर्थशास्त्र की चर्चा सर्वत्र मिलती है, किन्तु अन्य रचनाओं के संबंध में कुछ विशेष उल्लेख नहीं मिलता है।चाणक्य के शिष्य कामंदक ने अपने 'नीतिसार' नामक ग्रंथ में लिखा है कि विष्णुगुप्त चाणक्य ने अपने बुद्धिबल से अर्थशास्त्र रूपी महोदधि को मथकर नीतिशास्त्र रूपी अमृत निकाला । चाणक्य का 'अर्थशास्त्र' संस्कृत में राजनीति विषय पर एक विलक्षण ग्रंथ है । इसके नीति के श्लोक तो घर घर प्रचलित हैं । पीछे से लोगों ने इनके नीति ग्रंथों से घटा बढाकर वृद्धचाणक्य, लघुचाणक्य, बोधिचाणक्य आदि कई नीतिग्रंथ संकलित कर लिए । चाणक्य सब विषयों के पंडित थे। 'विष्णुगुप्त सिद्धांत' नामक इनका एक ज्योतिष का ग्रंथ भी मिलता है । कहते हैं, आयुर्वेद पर भी इनका लिखा 'वैद्यजीवन' नाम का एक ग्रंथ है । न्याय भाष्यकार वात्स्यायन और चाणक्य को कोई कोई एक ही मानते हैं, पर यह भ्रम है जिसका मूल हेमचंद का यह श्लोक है:
- वात्स्यायन मल्लनागः, कौटिल्यश्चणकात्मजः । द्रामिलः पक्षिलस्वामी विष्णु गुप्तोऽङ्गुलश्च सः ।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र
मुख्य लेख : अर्थशास्त्र ग्रन्थ
चाणक्य और मकियावेली
यह सत्य है कि कौटिल्य ने राष्ट्र की रक्षा के लिए गुप्त प्रणिधियों के एक विशाल संगठन का वर्णन किया है। शत्रुनाश के लिए विषकन्या, गणिका, औपनिषदिक प्रयोग, अभिचार मंत्र आदि अनैतिक एवं अनुचित उपायों का विधान है और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए महान धन-व्यय तथा धन-क्षय को भी (सुमहताऽपि क्षयव्ययेन शत्रुविनाशोऽभ्युपगन्तव्य:) राष्ट्र-नीति के अनुकूल घोषित किया है।‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ में ऐसी चर्चाओं को देखकर ही मुद्राराक्षसकार कवि विशाखादत्त चाणक्य को कुटिलमति (कौटिल्य: कुटिलमतिः) कहा है और बाणभट्ट ने ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ को ‘निर्गुण’ तथा ‘अतिनृशंसप्रायोपदेशम्’ (निर्दयता तथा नृशंसता का उपदेश देने वाला) कहकर निन्दित बतलाया है। 'मञ्जुश्री मूलकल्प' नाम की एक नवीन उपलब्ध ऐतिहासिक कृति में कौटिल्य को ‘दुर्मति’, क्रोधन और ‘पापक’ पुकारकर गर्हा का पात्र प्रदर्शित किया गया है।
प्राच्यविद्या के विशेषज्ञ अनेक आधुनिक पाश्चात्य विद्वानों ने भी उपर्युक्त अनैतिक व्यवस्थाओं को देखकर कौटिल्य की तुलना यूरोप के प्रसिद्ध लेखक और राजनीतिज्ञ मेकियावली से की है, जिसने अपनी पुस्तक ‘द प्रिन्स’ में राजा को लक्ष्य-प्राप्ति के लिए उचित अनुचित सभी साधनों का आश्रय लेने का उपदेश दिया है। विण्टरनिट्ज आदि पाश्चात्य विद्वान् कौटिल्य तथा मेकियावली में निम्नलिखित समानताएं प्रदर्शित करते हैं:
(क) मेकियावली और कौटिल्य दोनों राष्ट्र को ही सब कुछ समझते हैं। वे राष्ट्र को अपने में ही उद्देश्य मानते हैं।
(ख) कौटिल्य-नीति का मुख्य आधार है, ‘आत्मोदय: परग्लानि;’ अर्थात् दूसरों की हानि पर अपना अभ्युदय करना। मेकियावली ने भी दूसरे देशों की हानि पर अपने देश की अभिवृद्धि करने का पक्ष-पोषण किया है। दोनों एक समान स्वीकार करते हैं कि इस प्रयोजन की सिद्धि के लिए कितने भी धन तथा जन के व्यय से शत्रु का विनाश अवश्य करना चाहिए।
(ग) अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए किसी भी साधन, नैतिक या अनैतिक, का आश्रय लेना अनुचित नहीं है। मेकियावली और कौटिल्य दोनों का मत है कि साध्य को सिद्ध करना ही राजा का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए। साधनों के औचित्य या अनौचित्य की उसे चिन्ता नहीं करनी चाहिए।
(घ) दोनों युद्ध को राष्ट्र-नीति का आवश्यक अंग मानते हैं। दोनों की सम्मति में प्रत्येक राष्ट्र को युद्ध के लिए उद्यत रहना चाहिए, क्योंकि इसी के द्वारा देश की सीमा तथा प्रभाव का विस्तार हो सकता है।
(ङ) अपनी प्रजा में आतंक स्थापित करके दृढ़ता तथा निर्दयता से उस पर शासन करना दोनों एक समान प्रतिपादित करते हैं। दोनों एक विशाल सुसंगठित गुप्तचर विभाग की स्थापना का समर्थन करते हैं, जो प्रजा के प्रत्येक पार्श्व में प्रवेश करके राजा के प्रति उसकी भक्ति की परीक्षा करे और शत्रु से सहानुभूति रखने वाले लोगों को गुप्त उपायों से नष्ट करने का यत्न करे।
अत: कौटिल्य तथा मेकियावली में ऐसी सदृशता दिखाना युक्तिसंगत नहीं। निस्सन्देह कौटिल्य भी मेकियावली के समान यथार्थवादी था और केवल आदर्शवाद का अनुयायी न था। परन्तु यह कहना कि कौटिल्य ने धर्म या नैतिकता को सर्वथा तिलांञ्जलि दे दी थी, सत्यता के विपरीत होगा। कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ के प्रथम अधिकरण में ही स्थापना की है;
तस्मात् स्वधर्म भूतानां राजा न व्यभिचारयेत्।
स्वधर्म सन्दधानो हि, प्रेत्य चेह न नन्दति।। (1/3)
अर्थात्- राजा प्रजा को अपने धर्म से च्युत न होने दे। राजा भी अपने धर्म का आचरण करे। जो राजा अपने धर्म का इस भांति आचरण करता है, वह इस लोक और परलोक में सुखी रहता है।
इसी प्रथम अधिकरण में ही राजा द्वारा अमर्यादाओं को व्यवस्थित करने पर भी बल दिया गया है और वर्ण तथा आश्रम-व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए आदेश दिया गया है। यहां पर त्रयी तथा वैदिक अनुष्ठान को प्रजा के संरक्षण का मूल आधार बतलाया गया है। कौटिल्य ने स्थान-स्थान पर राजा को वृद्धों की संगत करने वाला, विद्या से विनम्र, जितेन्द्रिय और काम-क्रोध आदि शत्रु-षड्वर्ग का दमन करने वाला कहा है। ऐसा राजा अधार्मिक अथवा अत्याचारी बनकर किस प्रकार प्रजा-पीड़न कर सकता है ? इसके विपरीत राजा को प्रजा के लिए पितृ-तुल्य कहा गया है, जो अपनी प्रजा का पालन-पोषण, संवर्धन, संरक्षण, भरण, शिक्षण इत्यादि वैसा ही करता है जैसा वह अपनी सन्तान का करता है।
यह ठीक है कि कौटिल्य ने शत्रुनाश के लिए अनैतिक उपायों के करने का भी उपदेश दिया है। परन्तु इस सम्बन्ध में अर्थशास्त्र के निम्न वचन को नहीं भूलना चाहिए:
एवं दूष्येषु अधार्मिकेषु वर्तेत, न इतरेषु। (5/2)
अर्थात्- इन कूटनीति के उपायों का व्यवहार केवल अधार्मिक एवं दुष्ट लोगों के साथ ही करे, धार्मिक लोगों के साथ नहीं। (धर्मयुद्ध में भी अधार्मिक व्यवहार सर्वथा वर्जित था। केवल कूट-युद्ध में अधार्मिक शत्रु को नष्ट करने के लिए इसका प्रयोग किया जा सकता था।)
चाणक्य का कल्पित चित्र
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