सोचने
की शक्ति तथा कल्पना शक्ति दोनों विषय के ज्ञान तथा भाषा पर अधिकार पर
आधारित होती हैं; कल्पना शक्ति अनुभवों तथा मातृभाषा अर्थात संवेदनशील भाषा
के ज्ञान पर मुख्यतः आधारित होती है, जबकि सोचने की अधिकांश शक्ति विषय
ज्ञान तथा शब्द ज्ञान, विशेषकर अवधारणात्मक शब्दों के ज्ञान, पर।
विदेशी शब्दावली जो रोजी-रोटी के लिये सीखी जाती है, बहुत सीमित होती है, वह अतिरिक्त अध्ययन से ही बढ़ सकती है। रोजी रोटी की भाषा का अतिरिक्त अध्ययन कम व्यक्ति करते हैं।
अधिकांश अंग्रेजी जानने वालों की क्रियात्मक शब्द शक्ति लगभग 3000- 4000 शब्दों की होती है। इसलिये उनके सोचने की शक्ति भी कम होती है। समाचार पत्रों या टीवी में अधिकांश विषय मनोरंजन या विज्ञापन से संबंधित रहते हैं जो विचार शक्ति को सीमित करते हैं। जिसकी मातृभाषा और रोजी-रोटी की भाषा अलग अलग हो, साथ ही जो विदेशी भाषा के दबाव के कारण अपने समाज के जमीनी यथार्थ से लगभग कट गया हो, उन खंडित व्यक्तित्वों से मौलिक विचारों तथा आविष्कारों की आशा कम ही करना चाहिये।
मौलिक सोच तथा आविष्करण के लिये विषय ज्ञान के साथ मुख्यतया मातृभाषा या जीवन की भाषा की संवेदनशील शब्दावली का उपयोग अपरिहार्य होता है। क्योंकि कविता के सृजन के समान आविष्कार और मौलिक विचारणा की कार्यप्रणाली तर्कणा शक्ति के परे होती है, तथा वह व्यक्ति की संवेदनात्मक शब्दावली की समृद्धि पर भी निर्भर करती है। मनुष्य की संवेदनात्मक भाषा का अधिकांश निर्माण उसकी मातृभाषा में होता है, तथा शैशव से लेकर युवावस्था तक अधिक होता है।
किन्तु अब तो राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केन्द्र के वैज्ञानिकों ने २००९ में अनुसंधान करने के बाद इसे सिद्ध कर दिया है। उऩ्होंने छात्रों के समूहों पर यह प्रयोग किये। विद्यार्थियों से उऩ्होंने सस्वर पढ़ने के लिये कहा, एक बार हिन्दी में तथा दूसरी बार अंग्रेज़ी में। इस प्रक्रिया के समय मस्तिष्क का (fMRI) क्रमवीक्षण करते हुए उऩ्होंने देखा कि अंग्रेज़ी पढ़ते समय मस्तिष्क का केवल बायां गोलार्ध ही सक्रिय था, किन्तु हिन्दी पढ़ते समय दोनों, दाहिने तथा बाएं, गोलार्धों में सक्रियता थी। अत: उनका निष्कर्ष है कि हिन्दी पढ़ने से मस्तिष्क अधिक चुस्त तथा दुरुस्त रहता है। इसका एक मह्त्वपूर्ण निष्कर्ष यह भी निकलता है कि हिन्दी, और मेरा मानना है कि मातृभाषा, पढ़ते समय मस्तिष्क का बायां अथात 'तर्कशील गोलार्ध', और दाहिना अर्थात 'कल्पनाशील गोलार्ध' दोनों कार्य करते हैं। जब कि एक विदेशी भाषा में पढ़ने में अधिकांशतया केवल तार्किक कार्य करने वाला बायां गोलार्ध ही कार्य करता है। कविता तथा आविष्कार तर्क से परे मस्तिष्क के दाहिने गोलार्ध से होते हैं।
मातृभाषा हम अपने जन्म से शैशव काल तक अपनी मां तथा अन्य प्रियजनों से सीखते हैं जो बहुत ही प्यार से शब्दों का उच्चारण करते हैं, या कभी कभी मां डाँट फ़टकार भी करती है। इस तरह सीखने से शब्द अपने साथ भावनात्मक ऊर्जा लेकर चलते हैं, शब्द वास्तव में अपने साथ एक संस्कृति लेकर चलते हैं। पूरा मस्तिष्क, विशेषकर दाहिना गोलार्ध, के कार्य करने से वे शब्द और इसलिये वह भाषा अधिक 'संवेदनशील' हो जाती है; जब कि केवल तर्कशील गोलार्ध के कार्य करने से उसका तार्किक उपयोग तो हम कर सकते हैं किन्तु सृजनात्मक उपयोग शायद ही कर पाएं। तब क्या आश्चर्य कि डेढ दोसौ वर्षों से अंग्रेज़ी में पढ़ने के बाद भी हमें विज्ञान में एक ही नोबेल पुर्स्कार मिला है, और आज भी इज़राएल, चीन तथा जापान हमसे विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में बहुत आगे हैं।
अब तो हमें अपनी शिक्षा अपनी समृद्ध मातृभाषाओं में करना ही चाहिये, आविष्कार के द्वारा विज्ञान तथा प्रौद्योगिली में विश्व की अग्रिम पंक्ति में आना चाहिये, ताकि अग्रणी देश हमारा शोषण न करें, वरन हमारा सम्मान करें।
विदेशी शब्दावली जो रोजी-रोटी के लिये सीखी जाती है, बहुत सीमित होती है, वह अतिरिक्त अध्ययन से ही बढ़ सकती है। रोजी रोटी की भाषा का अतिरिक्त अध्ययन कम व्यक्ति करते हैं।
अधिकांश अंग्रेजी जानने वालों की क्रियात्मक शब्द शक्ति लगभग 3000- 4000 शब्दों की होती है। इसलिये उनके सोचने की शक्ति भी कम होती है। समाचार पत्रों या टीवी में अधिकांश विषय मनोरंजन या विज्ञापन से संबंधित रहते हैं जो विचार शक्ति को सीमित करते हैं। जिसकी मातृभाषा और रोजी-रोटी की भाषा अलग अलग हो, साथ ही जो विदेशी भाषा के दबाव के कारण अपने समाज के जमीनी यथार्थ से लगभग कट गया हो, उन खंडित व्यक्तित्वों से मौलिक विचारों तथा आविष्कारों की आशा कम ही करना चाहिये।
मौलिक सोच तथा आविष्करण के लिये विषय ज्ञान के साथ मुख्यतया मातृभाषा या जीवन की भाषा की संवेदनशील शब्दावली का उपयोग अपरिहार्य होता है। क्योंकि कविता के सृजन के समान आविष्कार और मौलिक विचारणा की कार्यप्रणाली तर्कणा शक्ति के परे होती है, तथा वह व्यक्ति की संवेदनात्मक शब्दावली की समृद्धि पर भी निर्भर करती है। मनुष्य की संवेदनात्मक भाषा का अधिकांश निर्माण उसकी मातृभाषा में होता है, तथा शैशव से लेकर युवावस्था तक अधिक होता है।
किन्तु अब तो राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केन्द्र के वैज्ञानिकों ने २००९ में अनुसंधान करने के बाद इसे सिद्ध कर दिया है। उऩ्होंने छात्रों के समूहों पर यह प्रयोग किये। विद्यार्थियों से उऩ्होंने सस्वर पढ़ने के लिये कहा, एक बार हिन्दी में तथा दूसरी बार अंग्रेज़ी में। इस प्रक्रिया के समय मस्तिष्क का (fMRI) क्रमवीक्षण करते हुए उऩ्होंने देखा कि अंग्रेज़ी पढ़ते समय मस्तिष्क का केवल बायां गोलार्ध ही सक्रिय था, किन्तु हिन्दी पढ़ते समय दोनों, दाहिने तथा बाएं, गोलार्धों में सक्रियता थी। अत: उनका निष्कर्ष है कि हिन्दी पढ़ने से मस्तिष्क अधिक चुस्त तथा दुरुस्त रहता है। इसका एक मह्त्वपूर्ण निष्कर्ष यह भी निकलता है कि हिन्दी, और मेरा मानना है कि मातृभाषा, पढ़ते समय मस्तिष्क का बायां अथात 'तर्कशील गोलार्ध', और दाहिना अर्थात 'कल्पनाशील गोलार्ध' दोनों कार्य करते हैं। जब कि एक विदेशी भाषा में पढ़ने में अधिकांशतया केवल तार्किक कार्य करने वाला बायां गोलार्ध ही कार्य करता है। कविता तथा आविष्कार तर्क से परे मस्तिष्क के दाहिने गोलार्ध से होते हैं।
मातृभाषा हम अपने जन्म से शैशव काल तक अपनी मां तथा अन्य प्रियजनों से सीखते हैं जो बहुत ही प्यार से शब्दों का उच्चारण करते हैं, या कभी कभी मां डाँट फ़टकार भी करती है। इस तरह सीखने से शब्द अपने साथ भावनात्मक ऊर्जा लेकर चलते हैं, शब्द वास्तव में अपने साथ एक संस्कृति लेकर चलते हैं। पूरा मस्तिष्क, विशेषकर दाहिना गोलार्ध, के कार्य करने से वे शब्द और इसलिये वह भाषा अधिक 'संवेदनशील' हो जाती है; जब कि केवल तर्कशील गोलार्ध के कार्य करने से उसका तार्किक उपयोग तो हम कर सकते हैं किन्तु सृजनात्मक उपयोग शायद ही कर पाएं। तब क्या आश्चर्य कि डेढ दोसौ वर्षों से अंग्रेज़ी में पढ़ने के बाद भी हमें विज्ञान में एक ही नोबेल पुर्स्कार मिला है, और आज भी इज़राएल, चीन तथा जापान हमसे विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में बहुत आगे हैं।
अब तो हमें अपनी शिक्षा अपनी समृद्ध मातृभाषाओं में करना ही चाहिये, आविष्कार के द्वारा विज्ञान तथा प्रौद्योगिली में विश्व की अग्रिम पंक्ति में आना चाहिये, ताकि अग्रणी देश हमारा शोषण न करें, वरन हमारा सम्मान करें।
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