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Monday, February 18, 2013

कर्म महिमा

http://hi.wikipedia.org/s/23wi

कर्म महिमा

विश्व कर्म परधान है,कर्म का संस्कार ही मानव की मूल शक्ति है,इसी के अनुसार मनुष्य के भाग्य का निर्माण होता है.कर्म भेद से ही मनुष्य अनेक योनियों -देव,मनुष्य,तिर्यक आदि मे भ्रमण करता है,इसी के अनुसार वह लोक लोकान्तर मे जाता है.सच्चे गुणो से युक्त कर्म पुण्य और तमोगुण वाले कर्म पाप माने जाते हैं,अच्चे मार्ग पर चलने वाला मानव अपने अन्त:करण को शुद्ध करके परमानन्द मोक्ष को प्राप्त करता है,तमो गुणी और पाप करने वाला मानव अज्ञान और कर्म बन्धन मे पडा रहता है.इसी लिये कर्म क्षेत्र में मानव को पूर्णत: सावधान रहना चाहिये.

कर्म महिमा विश्व व्यापिनी है

कर्म की महिमा इस बात से जानी जा सकती है कि वह सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड तथा चराचर विश्व को व्याप्त किये हुए है,प्रलय के उपरान्त चौदह लोकों में नयी जीवन सृष्टि सभी जीवो के पूर्व कर्मो के अनुसार होती है,समस्त देवताओ द्वारा नियमानुसार संसार की रक्षा कर्म चक्र का ही परिणाम है,इसी के आधार पर देवता गण अपनी अपनी नियमित गतियो को प्राप्त करते है,निखिल ब्रहमाण्ड मे देव ग्रह नक्षत्र तथा चराचर सभी कर्म के कारण स्थित और गतिमान है,सात्विक कर्म के तारतम्य से जीव को ऊर्ध्व सप्त लोकों,तथा तामसिक कर्म के तारतम्य से अध: सप्त लोकों की प्राप्ति होती है.ऊर्ध्व लोक मे आनन्द और अध: लोक में दुख भोग का विधान है,धर्म से पुण्य और अधर्म से पाप होता है.सोमरस पान करने वाला यज्ञकर्मी पुण्यात्मा है,वह इन्द्र लोक मे जाकर देव भोग्य वस्तुओं को प्राप्त करने का अधिकारी होता है,इसी प्रकार अधर्म के अनुसार अधोलोक में नीची और अति नीची योनियों मे जाने को मिलता है,छान्दोग्योपनिषद के द्वारा पुण्य कर्म के अनुष्ठान से ब्राहमण,क्षत्रिय,वैश्य आदि योन्यो की प्राप्ति होती है,तथा निम्न उअर पाप कर्म के अनुसार कुत्ते,सुअर, और चाण्डाल आदि योनियो की प्राप्ति होती है.स्वर्ण चुराने वाले,मदिरा सेवन करने वाले,गुरुपत्नी गामी,तथा ब्रह्मघाती,और इनके साथ सम्बन्ध रखने वाले सभी अधोगामी होते है.योगदर्शन के अनुसार कर्म ही ही सम्पूर्ण अविद्या और अस्मिता रूपी क्लेशों का मूल कारण है,कर्म संस्कार ही जन्म और मरण रूप चक्र में जीव के परिभ्रमण का कारण है.जीव के पाप और पुण्य का फ़ल भी इसी चक्र मे भोगने को मिल जाता है.

जैसा कर्म करेगा,वैसा फ़ल देगा भगवान

आत्मा सो परमात्मा के सिद्धान्त के अनुसार कर्म करने की तीन स्थितिया मानी जाती हैं-पहली मनसा,दूसरी वाचा,और तीसरी कर्मणा,मनसा से किसी प्राणी विशेष के लिये बुरा सोचना ही पाप बन जाता है,वाचा से किसी के प्रति अज्ञानता वश बुरा बोलना भी पाप हो जाता है,और कर्मणा से किसी प्राणी विशेष के प्रति बुरा करना भी पाप बन जाता है,मन से किसी के प्रति अगर कोई बुरा सोचता है तो लोग उसके बारे मे भी बुरा सोचने लगते है और,बुरा कहने से लोग भी बुरा कहते है,और बुरा करने बुरा करते भी है.महाभारत के के अनुसार कर्म संस्कार प्रत्येक अवस्था मे जीव के साथ रहता है,जीव पूर्व जन्म में (पीछे की जिन्दगी में) जैसा कर्म करता है,वैसा ही फ़ल भोगता है,अपने जीवन मे पहले से किये गये कार्य अपने समय पर फ़ल अवश्य देते है,अंशावतार के अनुसार माता पिता का अंश होने के कारण बालक गर्भ से ही कर्म फ़ल का भुगतान लेना चालू कर देता है,यानी माता पिता जिनका अंश वह स्वयं है,के द्वारा द्वारा पूर्व मे किये गये कार्यों का फ़ल बालक को भी मिलते है,राजा दसरथ ने श्रवण को मारा था और उनके माता पिता का श्राप राजा दसरथ के साथ भगवान श्री राम को भी भोगने पडे थे,क्योंकि वे भी राजा दसरथ के अंश थे.प्रारब्ध का फ़ल गर्भावस्था से ही भोगना पडता है,जीवन की तीन अवस्थाओं बाल युवा और वृद्ध में जिस अवस्था मे जैसा कर्म किया जाता है,उसी अवस्था में उसके फ़ल को भोगना पडता है,जिस शरीर को धारण करने के बाद जो कर्म किया जाता है उसी शरीर के द्वारा ही उस कर्म को भोगना पडता है,इस तरह से प्राब्ध का कर्म सदा कर्ता का अनुगामी होता है.

कर्म के अनुसार ही आयु

योग दर्शन के अनुसार कर्म की जड में जाति आयु और भोग तीनो निहित रहते है,कर्म के अनुसार ही जीव का निम्न या उच्च वर्ग मे जन्म होता है,प्रारब्ध कर्म ही आयु का निर्धारक है,अर्थात जिस शरीर में जिस पहले किये गये कर्म का जितने दिन का भोग होगा,वह शरीर उतने दिन तक ही स्थित रह सकता है.उसके बाद नवीन कर्म की भोग स्थिति दूसरे शारीर मे होती है,कर्म के भोग पक्ष का यही विधान है,संसार के सुख और दुख कर्म के अनुसार ही होते हैं,शरीर के अन्गों का निरमाण भी पूर्व कर्म के अनुसार होता है,शरीर की रचना और गुण का तारतम्य भी प्राक्तन कर्म का ही परिणाम है.उसमे दोष और गुण का संचार धर्माधर्म रूपी कर्म का संस्कार है.

वेदों मे नित्यकर्म की महिमा का वर्णन

वेदों मे कर्म की महिमा कासबसे अधिक वर्णन है,वेद इस प्रकरण को कर्मकाण्ड कहते हैं,वहां तीन प्रकार के कर्मो का विधान है,-नित्य-कर्म,नैमित्तिक कर्म,और काम्य कर्म.नित्य कर्म करने से कोई विशेष फ़ल तो नही मिलता पर नही करने से पाप जरूर मिलता है,जैसे त्रिकाल संध्या और महायज्ञ आदि,पूर्व कर्म के अनुसार वर्तमान समय में मनुष्य प्रकृति की जिस कक्षा पर चल रहा है,उसी पर दुबारा से बने रहने के लिये नित्य कर्म आवश्यक है,ऐसा नही करने से मनुष्य अपनी वर्तमान कक्षा से अलग हो जाता है.जैसे पंचमहायज्ञ आत्मोन्नति के एक साधन है,इनकी उपयोगिता पंचसूना दोष दूर करता है,संसार मे जीने के लिये मनुष्य प्रकृति प्रवाह को आघात पहुँचाता है,उसे अपने जीवन यापन के लिये नित्य सहस्त्रों प्राणियों की हत्या करनी होती है,मनुष्य के द्वारा सांस लेने और छोडने से भी कितने ही जीव मरते हैं,इस पाप को दूर करने के लिये पंच महा यज्ञों की व्यवस्था की गयी है.महाराज मनु के अनुसार सामान्य ग्रुह्स्थ से कम से कम पांच स्थानो पर जीव हत्या होती है,चूल्हे से,पेषिणी यानी चक्की से,उपस्कर यानी सफ़ाई से,कण्डनी यानी ऊखली से,और उदकुम्भ यानी जल घडा से,इन पाम्चों चीजों का उपयोग जीवहिंसा का कारण होता है,इन नित्य हिंसा जनित पापॊ की मुक्ति के लिये मनुष्य को पंच महायज्ञ रूपी नित्य कर्म अवश्य करने चाहिये.यही कारण है कि नित्य कर्म करने से पुण्य नही होता है,पर न करने से पाप अवश्य होता है,वर्णाश्रम धर्म के अनुसार निर्धारित कर्म भी इस व्यवस्था के अन्दर आते हैं.सभी जातियों की कर्म वृत्तियां उनके नित्य कर्म के अन्दर आती हैं,जब तक मनुष्य अपने वर्ण और आश्रम धर्म के अनुसार कार्य नही करेगा,तब तक वह अपनी जाति और धर्म मे नही रह सकेगा,वह उच्च वर्ग को तो प्राप्त नही कर सकेगा,अपितु जिस स्थान पर है उससे भी नीचा चला जायेगा,यानी अधोगामी हो जायेगा.जिस प्रकार से कायस्थ कुलोत्पन्न बालक जिसके लिये कर्म मे ही आस्था का विधान है अगर किसी प्रकार से किसी के प्रति भी किये गये कर्म का छिन्द्रान्वेषण करने का दोष पाया जाता है तो वह अवश्य ही अपने कुल को दोष युक्त बनाकर खुद तो अधोगति को जाता ही है,साथ ही अपने कुल की मर्यादा को भी समाप्त करता है,समाज मे यही सबसे बडा पाप होता है कि दूसरे लोग कह उठें कि पता नही अपने बाप का खून है या किसी अन्य की अवैद्य संतान.ब्राहमण का बालक अगर स्वाध्याय को छोडकर और वैश्यों का कर्म व्यापार करने का है अगर वे उसे छोड कर दूसरा कर्म करना शुरु कर देते है तो वह कर्म मीमांशा मे दोषी माना जाता है.वे अपने नित्य कर्म से अपने को च्युत कर लेते है और पाप के भागी बन जाते हैं,यही बात राजा के प्रजा पालन के लिये भी मानी जाती है,संसार की अराजकता को दूर कर प्रजा से भय को दूर करना ही राजा का धर्म होता है,इस प्रकार का कथन मनुस्मृति में है,शुक्रनीतिसार के अनुसार धार्मिक और प्रजा रक्षक राजा देवताओं का अंश होता है,अन्यथा उसे राक्षांसंश ही कहा जा सकता है.इस प्रकार का राजा प्रजा पीडक होता है,और उसके राज्य मे प्रजा में अशान्ति पैदा होती है,कालान्तर मे प्रजा भी पाप कर्म मे लिप्त होकर देश और समाज को दूषित करती है अन्त मे दैव शक्तियों के द्वारा समाप्त कर दी जाती है.


वेदों मे नैमित्तिक कर्मो की महिमा का वर्णन

जिन कर्मो को करने से पाप नही होता है वल्कि पुण्य होता है,वे ही नैमित्तिक कर्म कहलाते हैं,जैसे तीर्थ और दर्शन आदि,तीर्थों के दर्शन करने से पाप नही होता है,जो लोग तीर्थों को देख कर अनुमान लगाते है कि जो भी तीर्थ स्थान होता है वहां पर पाप कर्म और पापी अधिकता से होते है,तो इसका मुख्य कारण यह भी माना जा सकता है कि जहां पर मिठाई होती है मक्खियां वही पर अधिक होती है.जैसे एक विषयो मे व्यक्त व्यक्ति साधु या महात्मा के दर्शन करने से पुण्य का अधिकारी हो जाता है,और उसे सोचना पडता है ,कि उसने विषयों मे रहकर क्या खोया और क्या पाया है,जिन विषयों को उसने जीवन मे गौडता दी थी वे ही अन्त मे उसके लिये दुख दायी हो गये,जो धन सम्पत्ति उसने अपने सुख और अहम के वशीभूत होकर जमा की थी वह सम्पत्ति ही उसकी जान की दुश्मन बन गयी तब उसे सोचना पडता है,कि अगर वह अहम के वशीभूत होकर वह सम्पत्ति को नही जोडता तो उसे किसी प्रकार की चिन्ता नही रहती उसका भी परिवार आगे से आगे बढता चला जाता.साधु महात्मा या वैदिक साहित्य के सानिध्य मे विषयी व्यक्ति कुछ समय के लिये विषयों को भूल जाता है,और जितने समय के लिये वह विषयों को भूल जाता है,उतने समय के बीच में जो पुण्य प्रभाव उसके मन मे पनपते है वे ही उसके लिये मोक्ष के कारक बन जाते है,और तीर्थों मे जाकर भी विषयी व्यक्ति कुछ समय के लिये अपने संसार से अलग होकर अपने को राहत मे पाता है उसे शान्ति मिलती है यही प्रभाव भी व्यक्ति को मानसिक सुख प्रदान करता है,जिन दैवी शक्तियों के प्रभाव से तीर्थों की महिमा होती है,उनके क्षेत्र मे आते ही उनका प्रभाव मन मे आ जाने से व्यक्ति की कामिक शक्तिया दूर हो जाती है,वह अपने विषय भावों को भूल कर सद्भावना के प्रभाव मे आ जाता है,यही तीर्थाटन का फ़ल होता है,इसी प्रकार से पूजा दान स्नान देवस्थान दर्शन साधु या महात्मा का दर्शन और भक्ति साहित्य के पढने और विचार करने से भी पुण्यों की प्राप्ति होती है.


वेदों में काम्य कर्मों की महिमा का वर्णन

किसी विशेष कामना के लिये किये गये कर्म ही काम्य कर्म कहलाते है,इन कर्मो के मूल मे स्वार्थ निहित होता है,एक कार्य भाव भेद से नैमित्तिक कर्म ही हो सकता है,और काम्य कर्म भी,उदाहरण के लिये केवल तीर्थ दर्शन के ध्येय से किया गया तीर्थाटन नैमित्तिक कर्म होता है,पर वह किसी विशेष कामना की सिद्धि के लिये तीर्थाटन किया जाये तो वह काम्य की गिनती मे आजायेगा,फ़ल यह है कि किसी नैमित्तिक कर्म के मूल मे व्यक्ति की सामान्य धर्म भावना का योग रहता है,पर काम्य कर्म किसी विशेष कामना का प्रतिफ़ल रहता है.

भेदाभेद से कर्म की शक्ति मे अन्तर

केवल भेदाभेद से ही कर्म की शक्ति मे अन्तर आजाता है,इसलिये भावना के तारतम्य से कर्मो को तीन भागो मे विभाजित किया जाता है,-आध्यात्मिक,अधिदैविक,और अधिभौतिक,आत्मोन्नति के साथ मनुष्य की भावना उदारता पूर्ण और विचारमूलक हो जाती है,इसलिये ही उसके कर्म भाव में परिवर्तन हो जाता है,सामन्यत: अधिभौतिक कर्म विश्वभूतो से सम्बद्ध है,जिनमे भूतों के द्वारा मनुष्य की सम्पूर्ण मनोकामना फ़लवती हो उसे अधिभौतिक कर्म कहा जाता है,ब्राहमण भोजन और साधु भोजन आदि इसी के अन्तर्गत आते है,इन कार्यों से व्यक्ति इन लोगों की मानसिक शक्ति के द्वारा कुच आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयास करता है,यही मनोकामना जब व्यक्तिगत सुख कामना और पर-सुखकामना से मिलकर सार्वभौमिक और लोकमंगलकारी हो जाती है,तो उसे आधिभौतिक कर्म की संज्ञा दी जाती है,दरिद्रों को भोजन और काम देना,अनाथालय स्थापित करना,लोगों के लिये डाक्टरी सहायताये देना,आदि इसी प्रकार के कर्मो के अन्तर्गत आते हैं.इनके करने से अप्रत्यक्ष रूप से दैहिक,दैविक,और भौतिक लाभ मिलता रहता है.

आधिदैविक कर्मो की महिमा का वर्णन

आधिदैविक कर्म दैविक शक्तियों को प्राप्त करने का साधन है,शास्त्रीय द्रष्टि से प्रबल कर्म निर्बल कर्म को दबा देते है,यदि कोई व्यक्ति दैवी शक्ति से प्राप्त प्रबल संस्कार से अपने प्रतिकूल संस्कारों को दबा दे,तो वह उसका आधिदैविक कर्म कहलायेगा,ऐसा करने से व्यक्ति अपने पुराने पापमय संस्कारों की पीडा से मुक्ति पा सकता है,आधिदैविक कर्म का अनुष्ठान स्वार्थ सिद्धि के लिये भी होता है,और विश्व मंगल की कामना से भी होता है,यदि देश मे अति वृष्टि अनावृष्टि दुर्भिक्ष, या महामारी आदि का विस्तार हो जाये तो उसे समग्र प्राणियों का पाप परिणाम समझना चाहिये,इनको दूर करने के लिये परोपकारी व्यक्ति द्वारा किये गये देव यज्ञ आदि दैवी संस्कार आधिदैविक कहे जायेंगे.

आध्यात्मिक कर्मों की महिमा का वर्णन

आध्यात्मिक कर्म बौद्धिक होते हैं,इसी लिये स्वदेश और स्वधर्म रक्षार्थ किये गये कार्य या ज्ञान विस्तार कर्मों को आध्यात्मिक कर्मो की संज्ञा दी गयी है,अहंकार के विकास क्रम में प्रकृति के निम्न स्तर से लेकर उच्चतर स्तर तक जाने के विविध सोपान हैं,जीव अपनी साधना के बल से क्रमश: निम्न स्तर से उच्चस्तर तक को प्राप्त करता है,आधुनिक युग यही साधना ही उच्च शिक्षा आदि कहलाती है,वासना के भिन्न भिन्न स्तर हैं,उद्भिज और स्वेदज योनियो में वासना के प्राकृतिक और आत्मरक्षात्मक रूप मिलते है,मनोमय कोष के विकास के अभाव में उन्हे परसुख से स्वसुख के सम्बन्ध का ज्ञान नही है,अण्डज योनि में इस ओर थोडा विकास हुआ है,अपने बच्चो पर प्रेम,दाम्पत्य अपत्य प्रेम आदि इस वासना के विस्तार के रूप है.मनुष्य योनि में इसका सर्वाधिक विस्तार है,सामाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य समाज के अन्ग प्रत्यन्ग पर ध्यान रखता है,मनुष्य स्वार्थ से परमार्थ की ओर क्रमश: बढता रहता है,व्यष्टि केन्द्र से समिष्ट की ओर बढना उसका स्वभाव है,इसलिये बाल्यावस्था के व्यष्टि सुख से वह क्रमश: परिवार सुख और समाज सुख और देश सुख की ओर उन्मुख होता है,इस प्रकार मनुष्य का अहंकार क्रमश: उदारता में परिणित हो जाता है,यहां तक कि वह संसार के सुख के लिये भी कष्ट सहने के लिये तैयार हो जाता है,उस समय उसकी व्यक्तिगत सत्ता का इतना अधिक विस्तार हो जाता है,कि उसकी स्वार्थबुद्धि नष्ट हो जाती है,और परार्थबुद्धि का विकास होता है.ऐसा पवित्रात्मा अध्यात्मिक प्रगति अधिक करता है.वह ज्ञान और धर्म की उन्नति मे अधिक योग देता है.ऐसा महात्मा अपनी सत्ता का विस्तार करके "वसुधैव कुटुम्बकम" के सिद्धान्त को भाव रूप मे अपना लेता है.वह विश्व जीवन और विश्वप्राण हो जाता है.उसके सभी कर्म जगतकल्याण के लिये होते हैं.अत: वह पूर्ण साधुता को प्राप्त हो जाता है.आध्यात्मिक कर्म ही उसकी योग साधना हैं.भागवत के अनुसार सम्पूर्ण चराचर प्राणियों में ब्रह्म की सता प्रत्यक्ष या परीक्ष रूप से विद्यमान है.अत: उनकी अवज्ञा करके परमेश्वर की पूजा करना ग्रहणीय है.सब अनेक होकर भी एक हैं.अत: प्राणियो के प्रति वैर भाव को त्याग कर मित्र भाव से सर्वव्यापी परमात्मा का पूजन करना चाहिये.सर्वभूतो मे परमात्मा की सत्ता की अनुभूति ही श्रेयस्कर है.हमारे प्राचीन ऋषियों का जीवन ऐसा ही था.समिष्ट जीव के अज्ञानान्धकार को दूर करना और समस्त संसार का कल्याण करना उनका कर्तव्य था.

सकाम और निष्काम कर्म की महिमा

कर्म के दो भेद अन्य प्रकार से किये गये है,सकाम कर्म और निष्काम कर्म,सकाम कर्म वासना मूलक है,जिस कामना या वासना से कर्म किया जाता है,उसी के अनुकूल फ़ल की प्राप्ति होती है,शास्त्रो मे इन कर्मो की विधि और फ़ल वर्णित है.सकाम कर्म से मनुष्य को धूमयान गति मिलती है,और निष्काम कर्म से देवयान गति मिलती है.श्री मद्भागवत गीता में इन दोनो गतियों का वर्णन है,इन गतियों को क्रमश: कृष्ण गति और शुक्ल गति के नाम से जाना जाता है,पहली से पुनर्जन्म और दूसरी से अपुनर्वत्ति मिलती है.भोग कामना से किये गये कर्मों का फ़ल जन्म मरण होता है,इस प्रकार सकाम कर्म के द्वारा पुनर्जन्म के बन्धन से मुक्ति नही मिलती.सकाम कर्मी व्यक्ति अष्टादस फ़ल प्रदायक कर्मो को करते हैं,ऐसे व्यक्तियो को जरा-मरण के बन्धन से मुक्ति कभी नही मिलती है,इनमे आसक्ति का प्राधान्य होता है.इसलिये पुण्य के बल पर ये स्वर्ग के सुख को भोग कर पुण्य क्षय होने पर फ़िर से मृत्यु लोक मे आजाते है.ऐसे सकाम कर्मी हीन लोक को भी प्राप्त हो सकते हैं.इसलिये सकाम कर्म की अनित्यता तथा तुच्छता को जानते हुए मनुष्य को निष्काम कर्म और वैराग्य का ही अनुष्ठान करना चाहिये.सकाम कर्म से प्राप्त स्वर्ग से मनुष्य का पुण्य क्षय होता है,इसलिये मृत्युलोक के मिथ्या तत्व को जानकर तत्वज्ञानी मनुष्य वैराग्य का ग्रहण करना जानता है.इस प्रकार ज्ञानी व्यक्ति पुत्र धन और यश की सभी भौतिक इच्छाओं से विरत हो पूर्ण सन्यास ग्रहण करता है.निष्काम कर्मयोग से वह पूर्णत: वासना शून्य हो जाता है,और अन्तत: उत्तरायण गति को प्राप्त होता है.

सहज गति

इसके अनुसार मनुष्य को इहलोक में मुक्ति मिल जाती है,ज्ञानी पुरुष पामात्मा की सत्ता से विज्ञ होकर उसी विराट सत्ता में अपनी सत्ता को विलीन कर लेता है,और परितृप्त वीतराग तथा प्रशान्त होकर विदेह लाभ प्राप्त करता है,अतएव निष्काम कर्म योगी ज्ञानी होकर मुक्तिपद को प्राप्त करता है.

कर्म के तीन भेद

तीन गुणो के भेद से कर्म के भी तीन भेद निर्धारित किये गये है.इसीलिये गीता मे भी श्री कृष्ण ने गुणो के क्रमानुसार त्रिविध यज्ञ त्रिविधि कर्म,और त्रिविधि कर्ता की व्यवस्था की है.आसक्ति विहीन रागद्वेष रहित,वर्णाश्रम के अनुसार किया गया कर्म सात्विक और फ़लाशक्ति,अहंकार तथा आशा से अनुष्ठित कर्म राजसिक,और भावी आपत्ति का ध्यान करके मोहवश किया गया कर्म तामसिक होता है,निष्काम कर्मयोगी आसक्ति विहीन धैर्यवान,और उत्साही होता है,इसीलिये वह सात्विक कर्ता है.विषयासक्त और फ़लासक्त लोभी साथ ही हर्ष विषाद से युक्त सकाम कर्ता राजसिक होता है.दूसरे की मानापमान की चिन्ता न करने वाला,अविवेकी,और अविनयी,शठ,आलसी और दीर्ग सूत्री कर्ता तामसिक होता है,महाराज मनु के अनुसार शारीरिक मानसिक और वाचिक सत और असत कर्मो के अनुसार ही मनुश्य को फ़ल की प्राप्ति होती है.इनमे उत्तम,मध्यम और अधम गतियां कर्म के अवान्तर उपक्रम है.इनके दस लक्षण बताये है.

परधन हरण की इच्छा

पिछले जीवन मे किये गये सत कर्मो के अनुसार मनुष्य को भौतिक फ़लो की प्राप्ति होती है,वह अपने अनुसार किये गये कर्मो से आगे से आगे बढता जाता है,लेकिन जो व्यक्ति पिछली जिन्दगी मे असत कर्मो को करने के कारण हर काम मे असफ़ल होते है और सदा ही धन और भौतिक कारणो से रिक्त रहते है वे दूसरों के धन को हरण करने के लिये ही प्रयास रत रहते है,जो भोग उनको कुच समय के लिये भोगना होता है वे अपने प्रयासो से दूसरे की सम्पत्ति को हडपने के कारण उसकी गति को और बढा लेते है,और पूरी जिन्दगी अपने को कष्टो मे डालकर इस जीवन को नर्क मय बनाकर दूसरे जीवन मे भी नर्क गामी होते है.



मन में अनिष्ट चिन्तन

बिना किसी कारण के दूसरो को सुखी देखने पर लोग दूसरो की बुराई करते है और हमेशा इसी उद्योग मे लगे रहते है कि किस प्रकार से अगले का विनाश हो,वह आगे क्यों बढता जा रहा है,कितने ही लोग बेकार मे दूसरो का अहित सोचने के कारण खुद का मन मानस गंदा करते रहते हैं.



परलोक को मिथ्या तत्व और शरीर को ही आत्मा मानना

दैहिक,दैविक और भौतिक कारणो मे जो सामने दिखाई देता है वह भौतिक रूप से दिखाई देता है,लेकिन जो दैविक होता है वह न तो दिखाई देता है और न ही साधारण रूप से समझ में आता है,अक्सर लोगों को कहते हुए सुना जाता है कि,जो सामने है वह ही सत्य है,पीछे क्या भरोसा,लेकिन यह तो मानना ही पडेगा कि जो हो रहा है,और जो होने वाला है,वह किसी न किसी के द्वारा तो होता है,जो कर रहा है वह कौन है,और जो कर रहा है उसका कारण कुछ तो है,धरती जिस पर हम टिके है,उसकी नीचे खुदाई करने पर जो परते मिलती है वे अलग अलग तरीके है,अलग बनावट है,एक ही जमीन के अन्दर खोदने पर कितनी ही प्रकार की पर्तें निकलती है,हर पर्त का रंग औ रूप अलग अलग होता है,कुछ मुलायम और चिकनी मिट्टी की होती है और कुछ बालू मिक्स रेत की बनी होती है,कुछ मे केवल पथरीली चट्टाने है और कुछ दोमट मिट्टी की मिलती है,कही लाल मिट्टी निकलती है कही पर काली मिट्टी निकलती है,हर मिट्टी के अन्दर कुछ न कुछ तत्व मिलते है,एक ही खेत मे गन्ना और मिर्ची बोई जाती है,एक का रस तीखा होता है तो एक का रस मीठा,अगर सभी चीजे पृथ्वी पर साम्न्य ही होती तो गन्ने के साथ मिर्ची भी मीठी ही होती,गन्ना अगर मीठा होता है तो अफ़ीम जहर भी होती है एक का काम मारना होता है तो दूसरे का काम मीथा करना होता है.परलोक की बदौलत ही पृथ्वी पर तत्व आता है,और परलोक की वजह से ही पृथ्वी पर अनाज और खाने के लिये सामान भेजा जाता है,मगर जब इन्सान के अन्दर बे ईमानी और फ़रेब वाले कारण पैदा हो जाते है तो खडी खडी फ़सल बरबाद हो जाती है,पका हुआ खेत ओलों की भेंट चढ जाता है,और जहां पर ओले पडे होते है उसके कुछ किलोमीटर दूर खेत आराम से लहलहा रहे होते हैं.गुजरात के लातूर मे तो भूकम्प आया था और सकडो नही हजारो लोग प्रकृति की बलि चढ गये थे,मगर कुछ किलोमीटर दूर कोई भी नुकसान नही हुआ था,यह सब पराशक्तियो का कारण है,लेकिन कुच लोग इस पराशक्ति पर विश्वास नही करते,वे कहते है कि वे ही सब कुछ कर रहे है,और जब वे अस्पताल मे जाते है और डाक्टर उनको मना कर देता है कि अब इसके आगे कोई इलाज भी नही है तो उनको भी याद आता है कि पराशक्ति भी कुछ है.
  • उपरोक्त तीन मानसिक अशुभ कर्म है,वाणी मे कटुता,बेकार का बोलना,किसी व्यक्ति की चुगली करना,बेकार का प्रलाप,यह चार वाचिक अशुभ कर्म है,इसके अलावा अवैध्य हिन्सा,चोरी,परस्त्रीगमन,यह तीन शारीरिक अशुभ कर्म हैं.मन से किये गये शुभ या अशुभ कर्मो का फ़ल मन को भोगना पडता है,मन से किये गये शुभ या अशुभ कर्मो का फ़ल मन से भुगतना पडता है,वाणी से किये गये शुभ या अशुभ कर्मो का फ़ल वाणी से मिलता है,शारीरिक सुख दुख का परिणाम शरीर को भुगतना पडता है,मनुष्य को शरीर से किये गये पापों का फ़ल स्थावर योनि मे जाने से मिलता है,वाणी से किये गये पापॊ की सजा पशु या पक्षी की योनि मे जाना पडता है,और मानसिक अशुभ कर्म करने से चाण्डाल की योनि मिलती है.मनुष्य के कर्मो का तराजू दो पलडो पर टिका है,धर्म अधिक और अधर्म कम वह स्वर्ग लोक की प्राप्ति करवाता है और अधर्म अधिक धर्म कम वह ही नरक गामी बनाता है.पाप का फ़ल जब पूरी तरह से भोग लिया जाता है,तब वह वापस मनुष्य योनि मे आता है,और अगर फ़िर वह गलत कार्य करता है तो फ़िर से अधोगति की तरफ़ जाना पडता है.

सत रज तम तीन गुण

सत्व,रज और तम,यह तीन आत्मा के तीन तत्व है,संसार के प्रत्येक प्राणी में यह गुण न्यूनाधिक मात्रा में उपलब्ध होते हैं,जिस प्रानी मे जिस गुण की अधिअकता होती है वह उन्ही लक्षणों की तरह से व्यवहार करता है,सत्व गुण ज्ञानमय है,तमोगुण अज्ञानमय है,और रजो गुण रागद्वेश मय होता है,सत्व गुण में प्रति प्रकाशरूप शान्ति होती है,रजोगुण में आत्मा की अप्रतीतिकर दुख कातरता और विशयभोग की लालसा होती है,तमोगुण मोह युक्त विषयात्मक,अविचार और अज्ञानकोटि मे आता है,इसके अतिरिक्त इन गुणो के उत्तम,मध्यम और निम्न लक्षण भी मिलते है,यथा सतोगुणी व्यक्ति मे वेदाभ्यास,तप,ज्ञान,शौच,जितेन्द्रियता,धर्मानुष्ठान,परमात्म चिन्तन के लक्षण मिलते है,रजोगुणी व्यक्ति के अन्दर सकाम कर्म मे रुचि,अधैर्य,लोकविरुद्ध तथा अशास्त्रीय कर्मो का आचरण और अत्याधिक विषयभोग के लक्षण मिलते है,तमोगुणी व्यक्ति लोभी,आलसी,अधीर,क्रूर,नास्तिक आचारभ्रष्ट याचक तथा प्रमादी होता है.अतीत,वर्तमान,और आगामी क्रमानुसार भी सत्वगुण,रजो गुण और तमोगुण के शास्त्रो मे लक्षण बताये गये है.जो कार्म पहले किया गया हो,और अब भी किया जा रहा हो,और आगे करने मे लज्जा का अनुभव हो,उसे तमोगुणी कर्म कहते है,लोक प्रसिद्ध के लिये जो कार्य किये जाते है,उनके सिद्ध न होने पर मनुष्य को दुख होता है,इन्हे ही रजोगुण कर्म कहते हैं,जिस कार्य को करने में मनुष्य के अन्दर सदा इच्छा बनी रहे,और वह सन्तोषदायक हो,तथा जिसे करने पर मनुष्य को किसी प्रकार की लज्जा न हो,उसे ही सतोगुणी कर्म कहते है.प्रवृत्ति के विचार से तमोगुण काममूलक,कहा जाता है,रजो गुण अर्थ मूलक,और सतोगुण धर्म मूलक कहा जाता है,सतोगुणी व्यक्ति देवत्व को,रजोगुणी मनुष्यत्व को,और तमोगुणी तिर्यक योनियों को प्राप्त होता है.ऊपर वाली तीन गतियां भी कर्म और ज्ञान के भेद से तीन तीन प्रकार की है,जैसे अधम सात्विक,मध्यम सात्विक,और उत्तम सात्विक,और अधम राजसिक,मध्यम राजसिक,और उच्च राजसिक,अधम तामसिक,मध्यम तामसिक,और उच्च तमसिक, आदि.महाराजा मनु के अनुसार इन्द्रियगत कर्मो में अतिशय आसक्ति तथा धर्म भावना के अभाव में मनुष्य को अधोगति प्राप्त होती है,जिस विशय की तरफ़ इन्द्रियों का अधिक झुकाव होता है,उसी मे उतरोत्तर आसक्ति बढती जाती है,इससे मानव का वर्तमान तो बिगडता ही है,परलोक मे भी अति दुख और नरक पीडा भुगतनी पडती है,नरक का मतलब है कि निम्न कोटि की योनियो मे जन्म लेना पडता है,और अपार यातना सहनी पडती है,जिन भावनाओ से जो जो कर्म किये जाते है,उन्ही के अनुसार शरीर धारण करके कष्ट भोगने पडते है,संक्षेप मे प्रवृत्तिमार्गी कर्मो के यही परिणाम है,निवृत्ति मार्गी कर्मो के अनुसार वेदाध्ययन तप ज्ञान अहिंसा और गुरु सेवा आदि कर्म मोक्ष के कारक है,इनमे आत्म ज्ञान श्रेष्ठ है,यही मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन कहा जाता है,ऊपर बताये गये सभी कर्म,वेदाध्ययन या वेदाभ्यास के अन्तर्गत समाविष्ट है,वैदिक कर्म मूलत: दो तरह के है-प्रवृत्ति मूलक,और निवृत्ति मूलक,पहले का अनुष्ठान मनुष्य को देवयोनि मे प्रवेश दिलाता है,और निवृत्ति मूलक कर्म से मोक्ष मिलता है.आत्मज्ञानी सर्वभूतो मे आत्मा को तथा आत्मा में सर्वभूतो को देखता है,इससे उसे ब्रह्म पद की प्राप्ति होती है,यही कर्मज्ञ की पूर्णता है.


कर्ममीमांसा

कर्ममीमांसा क मतलब है कि धर्म के विषय मे निश्चय को प्राप्त करना,अथवा सभी धार्मिक कर्तव्यों को बताना.किन्तु वास्तव मे यज्ञकर्मी की विवेचना ने इसमे इतना अधिक महत्व प्राप्त किया है,कि दूसरे कर्म उसकी ओट मे छिप गये हैं.ऋचाओं तथा ब्राहमणों मे सभी आवश्यक निर्देश है,किन्तु वे नियमित नही है,इस कारण पुरोहित को यज्ञों के अनुष्ठान में नाना प्रकार की कठिनाइयां पडती है,कर्ममीमांसा ने इन समस्याओं के समाधान के लिये अपने सिद्धान्त उपस्थित किये है,और वैदिक संहिताओं को समझने में निर्देशक का कार्य किया है,वेदों मे बताये गये यज्ञो मे बहुत से फ़ल कहे गये है,किन्तु वे कार्य के साथ तुरन्त नही देखे जा सकते है,इसलिये यह विश्वास करना आवश्यक है कि यज्ञ से अपूर्व फ़ल प्राप्त होते हैं,जो कि अद्र्शय है और जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है,और जो समय आने पर कहे गये फ़ल को जरूर देगा.पूर्व मीमांसा अध्यात्म मार्ग की शिक्षा नही देती,फ़िर भी किसी न किसी स्थान पर आध्यात्मिक विचार आ ही गये है,ईशवर की सत्ता का विरोध यहां इस आधार पर हुआ है,कि एक सर्वज्ञ की धारणा नही की जा सकती है,विश्व की प्रमाणिक अनुभवगत धारणा यहं उपस्थित हुई है,सृष्टि की अनन्तता को वस्तुओ का नाश और दुबारा से उतपत्ति के विशवास की भूमिका मे समझाया गया है,और कर्म सिद्धान्त पर इतना जोर दिया गया है,कि आवागमन से मुक्ति पाना कठिन ही जान पडता है.यह चिन्तन प्रणाली वैदिक यज्ञिकों पुरोहितों और सहायता के लिये स्थापित हुई,आज भी यह गृहस्थों के दैनिन्दन जीवन में निर्देशक का कार्य करती है,वेदान्त सांख्य तथा योग के समान यह सन्यास की शिक्षा नही देती,और न ही सन्यासियों का इससे सम्बन्ध रहा है.


कर्मयोग

भारतीय जीवन में तीन मार्ग माने गये है,पहला कर्म मार्ग,दूसरा ज्ञान मार्ग,और तीसरा भक्ति मार्ग,इन तीनो को क्रमश: कर्म योग,ज्ञानयोग और भक्ति योग के नाम से जाना जाता है,यह सभी समान्तर नही है,किन्तु समवर्त मार्ग है.पूर्ण जीवन के लिये तीनो का समन्वय आवश्यक है,कर्म मार्ग के विरुद्ध कर्म सन्यासियों का सबसे बडा आक्षेप यह था कि कर्म बन्धन होता है,अत: मोक्ष के लिये कर्म सन्यास आवश्यक है,भगवतगीता में यह मत प्रतिपादित किया गया है,कि जीवन मे कर्म का त्याग असम्भव है,कर्म से केवल बन्धन का दंश तोड देना चाहिये,जो कर्म ज्ञान पूर्वक भक्ति भाव से अनाशक्ति के साथ किया जाता है,उससे बन्ध नही होता है,इसमे तीनो मार्गो का समुच्चय और अमन्वय है.

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