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Thursday, March 28, 2013

०१. यह पुस्तक क्यों ?

भारत के लोगों को फ्रेडरिक मैक्समूलर का परिचय कराने की आवश्यकता नहीं हैं क्योंकि ब्रिटिश शासनकाल में ब्रिटिश राजनीतिज्ञों, प्रशासकों और कूटनीतिज्ञों ने उसे एक सदी (१८४६-१९४७) तक लगातार हिन्दुओं का एक अभिन्न मित्र और वेदों के महान विद्वान के रूप में प्रस्तुत किया है, परन्तु सत्य इसके विपरीत है। वास्तव में वह हिन्दुओं और हिन्दू धर्मशास्त्रों का एक महान शखु था। लेकिन दुर्भाग्य से, उस समय के ही नहीं, बल्कि आज के हिन्दू भी उसके उद्‌देश्य व कार्य के दूरगामी प्रभाव को समझने में असफल रहे हैं क्योंकि मैक्समूलर ने अपनी लेखनी की चतुराई द्वाराअपने वास्तविक स्वरूप और वेद भाष्य के विकृतीकरण के उद्‌देश्य को बड़े योजनाबद्ध तरीके से छिपाए रखा, यहाँ तक कि उसके निधन के बाद सन्‌ १९०१ में प्रकाशित स्वलिखित जीवनी में भी उसे उजागर नहीं किया।

इस सन्दर्भ में श्री ब्रह्मदत्त भारती ने अपनी पुस्तक 'मैक्समूलर-ए लाइफ लौंग मास्करेड' में इस प्रकार लिखा हैः

"Max Muller's effectiveness as the arch enemy of Hinduism lay dangerously hidden in his subtle equivocations and in his ability, which seemed congenital, successfully to pass a counterfeit coin without being caught while performing the feat. His capacity to look honest and sound sincere on surface was prodigious. the Hindus, of the nineteenth century failed to discover and understand Max Muller and his Max Mullerism, because, by and large, being, too gullible, they believed whatever max Muller wrote and said. "Since he had been, in addition, convertly supported and encouraged by the Englishmen who then ruled Hindustan, he was able to mount his veiled attacks on Hinduism again and again from behind the convenient cover of philological research."                                                                                          
 (p. 194)
अर्थात्‌ ''मैक्समूलर की हिन्दूधर्म के प्रति कट्‌टर शत्रुता का प्रभावीपन उसकी लेखनी की बहुअर्थी शैली में भयंकर रूप से छिपा हुआ है। इस सफलता का रहस्य उसकी इस योग्यता से भी आसानी से समझा जा सकता है, जैसे कोई चालाक व्यक्ति खोटे सिक्के को चला देने पर भी पकड़ा नहीं जाता है। उसका ऊपर से हिन्दू धर्म शास्त्रों- वेदों आदि के प्रति सच्चा और निष्ठावान दिखलाई देना उसकी आश्चर्यजनक रहस्यमयी लेखनशैली की क्षमता का परिचायक है। उन्नीसवी सदी के हिन्दू मैक्समूलर और उसके मैक्समूलरवाद को पहचानने और समझने में पूरी तरह असफल रहे हैं क्योंकि हिन्दुओं के आमतौर पर अत्यंत सीधे-सादे होने के कारण उन्होंने उसे ही सच मान लिया जो कि मैक्समूलर ने कहा और लिखा। इसके अतिरिक्त उसे आजीवन अप्रत्यक्ष रूप् से अंग्रेजों का पूर्ण समर्थन और सहयोग मिलता रहा जो कि उस समय भारत के शासक थे। इसी कारण वह भाषा विज्ञान-शोध की आड़ में छिपकर लगातार हिन्दू धर्म एवं वेदों पर प्रहार करता रहा।'' 
(पृ. १९४)
इसी के साथ-साथ अंग्रेज शासक लगातार यही प्रचार करते रहे कि मैक्समूलर तो वेदों का महान विद्वान और हिन्दू धर्म तथाहिन्दुआअें का शुभचिंतक है। वे इस कथन की पुष्टि इस बात से करते हैं कि उसने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में १८४६ से १९०० तक वेदों और हिन्दू धर्मशास्त्रों पर एक विशाल साहित्य स्वंय लिखा तथा अपने जैसे सहयोगी लेखकों द्वारा लिखवाकर उसे स्वयं संपादित किया।
मैक्समूलर ने अपनी बहुअर्थी लेखनी की आड़ में आजीवन वेदों को विरूपित किया, फिर भी वह अपने को हिन्दू धर्म का हितैषी होने का ढोंग रचता रहा। इस बात के इतने पक्के, सच्चे और आश्चर्यजनक प्रमाण हैं कि कोई भी तर्क उसे वेदों के विकृतीकरण के दोष से बचा नहीं सकता।
मैक्समूलर की दूसरी जीवनी में असली स्वरूप
इसके लिए हमें बाहर के किसी दूसरे प्रमाणों की आवश्यकता नहीें है क्योंकि मैक्समूलर द्वारा लिखित साहित्य और अपने मित्रों, परिवारीजनों आदि को लिखे उसके पत्रों में ही र्प्याप्त सामग्री मिलती है। हालांकि मैक्समूलर की स्वलिखित जीवनी १९०१ में ही प्रकाशित हुई थी, परन्तु उसकी पत्नी जोर्जिना मैक्समूलर ने उसके फौरन बाद १९०२, में उसकी एक और जीवनी ''दी लाइफ एण्ड लैटर्स ऑफ दी आनरेबिल फ्रेडरिक मैक्समूलर'' के नाम से प्रकाशित की। इसमें अन्य विवरणों के सहित मैक्समूलर द्वारा लिखें पत्रोंका संकलन भी है। उसके प्रकाशन का उद्‌देश्य स्पष्ट करते हुए श्रीमती जोर्जिना नपे पुस्तक की भूमिका में लिखाः
"It may be thought that the publication of these volumes is superfluous after two works 'Auld Lang Syne' and the 'Autobiography (2 Vols.) written by Max Muller himself. But it seemed that something more wanted to show the innermost character of the real man…. The plan pursued throughout these volumes has been to let Max Muller's letters and the testimony of friends to his mind and character speak for themselves, whilst the whole is connected by a slight thread of necessary narrative. The selection from the letters has been made with a view to bring the man rather the scholar before the world."
 (preface to November,1902, New York Edition; Bharti, p. IX).
अर्थात्‌ ''ऐसा सोचा जा सकता है किस्वयं मैक्समूलर द्वारा लिखित ''औल्ड लैंग सायने'' और ''आत्मजीवनी'' (२ खंडों में) प्रकाशित हो जाने के बाद, इन खंडों के प्रकाशन की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि उस मनुष्य के आन्तरिक चरित्र की वास्तविकताको दिखाने के जिए कुछ और अधिक करने की आवश्यकता है। इन खंडों में जो योजन लगातार अपनाई गई है वह मैक्समूलर के पत्रों और उसके मित्रों के प्रमाणस्वरूप् दिए गए कथन, उस मनुष्य की सोच और चरित्र को स्वयं उजागर करते हैं, जबकि समस्त सामग्री आवश्यक आत्मकथा के धागे से बांी हुई हैं। यहाँ उद्धत पत्रों का चुनाव इस उद्‌देश्य से किया गया है ताकि विश्व के सामने एक विद्वान की अपेक्षा उस मनुष्य का सही स्वरूप प्रस्तुत किया जा सके।''
 (न्यूयार्क संस्करण, १९०२, प्राक्कथन पृ. प्ग्)
इसलिए यहाँ हमारा उद्‌देश्य यह समझने का है कि क्या वह वास्तव में वेदों और हिन्दू धर्म शास्त्रों का प्रशंसक और भारत का मित्र था? क्या वह वेदों, उपनिषदों, दर्शनों आदि के उदात्त, प्रेरणादायक और आध्यात्मिक चिंतन से प्रभावित था, और उन्हें वह अंग्रेजी माध्यम से विश्वभर में फैलाना चाहता था? क्या वह भारतीय धर्मशास्त्रों का जिज्ञासु था? क्या उसने ऋग्वेद का भाष्य भारतीय प्राचनी यास्कीय-पाणिनीय पद्धति के अनुसार किया था? उसने सायण-भाष्य को ही आधार क्यों माना? क्या उसने सायण के सभी मापदण्डों को अपनाया? यदि नहीं, तो क्यो? आखिर उसे वेदों में क्या मिला?
क्या वह तुलनात्मकभाषा विज्ञान और गाथावाद के शोध की आड़ में एक पक्षपाती, पूर्वाग्रही और छद्‌मवेशी सैक्यूलर ईसाई मिशनरी था? जो वेदों और हिन्दू धर्म शास्त्रों के भ्रामक अर्थ करके हिन्दू धर्म को समूल नष्ट करना चाहता था। कया वह वेदों को बाईबिल से निचले स्तर का दिखाकर भारतीयों को ईसाईयत में धर्मान्तरित करना और भारत में ब्रिटिश राज को सुदृढ़ करना चाहता था? आखिर उसने वेदों और भारत के प्राचीन इतिहास के बारे में अनेक कपोल-कल्पित मान्यताएं क्यों स्थापित कीं? इसके अलावा ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी अंग्रेजी और संस्कृत दोनों ही भाषाओं के ज्ञान में अधकचरे, चौबीस वर्षीय, अनुभवहीन गैर-ब्रिटिश, जर्मन युवक मैक्समूलर को ही वेदभाष्य के लिए क्यों चुना?
उसने वेदों का विकृतीकरण क्या, क्यों और कैसे किया? इन्हीं कुछ प्रश्नों को यहाँ संक्षेप में विश्लेषण किया जाएगा ताकि अधकचरे ज्ञानी हिन्दू और सैक्यूलरवादी, जो उसके विकृत साहित्य के आधार पर समय-समय पर हिन्दू धर्म की निंदा करते रहते हैं, उसकी वास्तविकता तथा उसके निहित उद्‌देश्य को समझ सकें। इसके लिए हमें तत्कालीन ब्रिटिश शासित भारत की धार्मिक व राजनैतिक स्थितियों कोसमझना होगा, जिनके कारण उन्हें एक मैक्समूलर की तलाश करनी पड़ी।

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