भारतीय जवानों
के साथ की गई बर्बरता के बाद पाकिस्तान की ओर से उकसाने वाली गतिविधियां निरंतर
जारी हैं। जम्मू-कश्मीर स्थित भारत-पाक सीमा के मेंढर सेक्टर में दो भारतीय
सैनिकों की जिस नृशंसता से हत्या की गई, वह जिहाद प्रेरित
पाशविक मानसिकता को रेखांकित करती है। भारतीय जवानों के साथ हुई क्रूरता के बीच
लश्करे-तैयबा के सरगना हाफिज सईद का पाक अधिकृत कश्मीर में उपस्थित होना महज संयोग
नहीं है। अजमल कसाब को फांसी दिए जाने के बाद से ही पाक प्रायोजित आतंकी संगठनों
की ओर से बदला लेने की धमकी दी जा रही थी। विडंबना यह है कि स्वयं अपने देश में भी
एक वर्ग ऐसा है, जो इसी विषाक्त मानसिकता से ग्रस्त है।
सेक्युलर राजनीतिक दल और सेक्युलर मीडिया का एक बड़ा भाग ऐसी देशघाती मानसिकता को
अपना मौन समर्थन देते हैं।
24
दिसंबर को हैदराबाद के चंद्रायनगुट्टा निर्वाचन क्षेत्र से
मजलिसे-इत्तेहादुल मुसलमीन पार्टी के विधायक अकबरूद्दीन ओवैसी ने हजारों लोगों की
उन्मादी भीड़ को संबोधित करते हुए जैसी बातें कीं, वे एक
समुदाय विशेष के बड़े वर्ग में मौजूद भारत की सनातन संस्कृति और अस्मिता के प्रति
घृणा की ही पुष्टि करती हैं। ऐसे लोगों के पास पासपोर्ट तो भारत का है, परंतु निष्ठा सीमा पार है। 24 दिसंबर से 1 जनवरी तक किसी ने भी ओवैसी के विषवमन का संज्ञान तक नहीं लिया। ओवैसी ने
एक घंटे से भी अधिक समय तक घृणा भरा भाषण दिया, जिसमें भारत
की सनातन सभ्यता, हिंदू समाज और उनके मान बिंदुओं का सरेआम
अपमान किया गया। यह किसी एक सिरफिरे व्यक्ति का प्रलाप मात्र नहीं है। यह हजारों
लोगों की भीड़ के आगे एक चुना हुआ जनप्रतिनिधि बोल रहा था। उसके शब्दों के समर्थन
में हजारों लोगों की भीड़ उन्माद में मजहबी नारे लगा रही थी। ओवैसी ने विवादित
ढांचा ध्वंस को लेकर 1993 के मुंबई बम धमाकों को न्यायोचित
ठहराते हुए अजमल कसाब को दी गई फांसी पर भी प्रश्न खड़ा किया। इसके अलावा उसने टाडा
में जेल में बंद मुस्लिम युवकों के प्रश्न पर भारतीय व्यवस्था व न्याय प्रणाली पर
गंभीर आरोप लगाए। मुंबई हमलों के लिए टाइगर मेमन आदि पर हुई कार्रवाई और कसाब की
फांसी पर भी उसे आपत्ति है। इस देश की संप्रभुता पर हमला करने वाले आतंकियों के
प्रति ओवैसी और उसके समर्थकों की हमदर्दी समझ से परे नहीं है। मजलिस-ए-इत्तेहादुल
मुसलमीन की स्थापना ही हैदराबाद रियासत में निजामत को बनाए रखने के लिए हुई थी।
भारत विभाजन के दौरान हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय से इनकार कर दिया था। तब
भारतीय व्यवस्था और हिंदुओं के खिलाफ निजाम के संरक्षण में रजकरों ने युद्ध छेड़ा
था, जिसका संचालन इसी संगठन ने किया था। देशद्रोही गतिविधियों
के कारण ही इस संगठन को 1948 में प्रतिबंधित किया गया था। आज
उस संगठन के लोग ऐसी विषैली भाषा में बात करें तो आश्चर्य कैसा?
भारतीय उपमहाद्वीप (भारत, पाकिस्तान और
बांग्लादेश) में रहने वाले 99 प्रतिशत लोग या तो हिंदू हैं
या मतांतरण से पूर्व हिंदू थे। फिर क्या कारण है कि अधिकांश मतांतरित अपनी ही भूमि
से पुष्पित और पल्लवित सनातन संस्कृति से न केवल दूर हो गए, बल्कि
उसे समूल नष्ट करने के लिए प्रतिबद्ध हैं? विभाजन से पूर्व
पाकिस्तान वाले भूभाग में 22 प्रतिशत हिंदू-सिख थे, आज वहां उनकी आबादी एक प्रतिशत से भी कम है। बांग्लादेश में तब 30 प्रतिशत आबादी गैर मुस्लिम थी, जो अब आठ प्रतिशत से
भी कम रह गई है। क्यों? क्यों इस्लामी देशों में गैर
मुस्लिमों को मजहबी स्वतंत्रता नहीं है? क्यों गैर मुस्लिमों
को मजहबी उत्पीड़न और अत्याचार के कारण पलायन कर भारत में शरण लेने या इस्लाम कबूल
करने के लिए विवश होना पड़ रहा है? पाकिस्तान द्वारा भारत को
हजार घाव देकर उसे नष्ट करने का घोषित एजेंडा, ओवैसी का भारत
व हिंदू विरोधी विषवमन और मुंबई जैसे जघन्य कांड इसी बीमार मानसिकता की उपज हैं।
वस्तुत: ओवैसी जैसे पाकिस्तानपरस्त समय-समय पर भारत और भारत की
सनातनी संस्कृति के खिलाफ जो विषवमन करते हैं, वह सेक्युलरवाद के नाम
पर पोषित किए गए इस्लामी कट्टरवाद की ही तार्किक परिणति है। कितना बड़ा विरोधाभास
है कि भारत में सेक्युलरवाद के पुरोधा वामपंथी दलों के राजनीतिक और बौद्धिक समर्थन
के कारण मजहबी अवधारणा पर आधारित कट्टरवादी पाकिस्तान का जन्म हुआ। इन्हीं
वामपंथियों ने पूर्ववर्ती निजाम की छत्रछाया में भारत और हिंदू विरोधी रजाकारों को
भी समर्थन दिया। स्वाधीनता के बाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू
ने पूरे समाज की विकृतियों को निशाना नहीं बनाया। 1956 में
हिंदू कोड बिल बनाकर सामाजिक सुधारों को केवल हिंदुओं तक ही सीमित रखा और इससे
मुस्लिमों को वंचित रख उन्हें कट्टरपंथियों के रहमोकरम पर छोड़ दिया। क्यों?
सन 1986 में जब सर्वोच्च न्यायालय ने शाहबानो
मामले में एक आदेश देकर मुस्लिम समाज में सुधार का मार्ग खोला तब तात्कालिक
प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संसद में अपने बहुमत का दुरुपयोग करते हुए उस निर्णय
को ही पलट दिया। चाहे बाटला हाउस मुठभेड़ का मामला हो या 1998 का कोयंबटूर बम विस्फोट, आज भी तथाकथित सेक्युलर
नेता मुसलमानों के उदारवादी वर्ग के साथ खड़े होने में संकोच करते हैं और
आतंकवादियों के साथ खड़े नजर आते हैं। इन विकृतियों पर मीडिया के एक बड़े वर्ग व
तथाकथित सेक्युलर दलों की खामोशी इस कट्टरवादी मानसिकता को पुष्ट करने का काम करती
है। कोई राष्ट्रवादी संगठन यदि सेक्युलरवाद के नाम पर पोषित इस्लामी कट्टरवाद का
विरोध करे तो उसे बहुलतावाद, प्रजातंत्र और पंथनिरपेक्षता के
मूल्य सिखाए जाते हैं, सड़कों पर
सेक्युलरिस्टों-मानवाधिकारियों का कुनबा प्रदर्शन करता है। क्यों?
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