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Saturday, February 23, 2013

अशोक .....

अशोक (राजकाल ईसापूर्व 273-232 ) प्राचीन भारत में मौर्य राजवंश का चक्रवर्ती राजा था । उसके समय मौर्य राज्य उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में अफ़गानिस्तान तक पहुँच गया था । यह उस समय तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य था । सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य से बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जाना जाता है ।
जीवन के उत्तरार्ध में अशोक भगवान गौतम बुद्ध के भक्त हो गये और उन्ही की स्मृति मे उन्होने एक स्तम्भ खड़ा कर दिया जो आज भी नेपाल में उनके जन्मस्थल - लुम्बिनी - मे मायादेवी मन्दिर के पास अशोक स्तम्भ के रुप मे देखा जा सकता है । उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, पश्चिम एशिया, मिस्र तथा यूनान में भी करवाया ।

आरंभिक जीवन

अशोक मौर्य सम्राट बिन्दुसार तथा रानी धर्मा का पुत्र था । । एक दिन उसको स्वप्न आया उसका बेटा एक बहुत बड़ा सम्राट बनेगा । उसके बाद उसे राजा बिन्दुसार ने अपनी रानी बना लिया । चुँकि धर्मा कोई क्षत्रिय कुल से नहीं थी अतः उसको कोई विशेष स्थान राजकुल में प्राप्त नहीं था । अशोक के कई भाई (सौतेले)-बहने थी । बचपन में उनमें कड़ी प्रतिस्पर्धा रहती थी । अशोक के बारे में कहा जाता है कि वो बचपन से सैन्य गतिविधियों में प्रवीण था । दो हज़ार वर्षों के पश्चात्, अशोक का प्रभाव एशिया मुख्यतः भारतीय उपमहाद्वीप में देखा जा सकता है। अशोक काल में उकेरा गया प्रतीतात्मक चिह्न, जिसे हम 'अशोक चिह्न' के नाम से भी जानते हैं, आज भारत का राष्ट्रीय चिह्न है। बौद्ध धर्म के इतिहास में गौतम बुद्ध के पश्चात् अशोक का ही स्थान आता है।

साम्राज्य विस्तार

अशोक का ज्येष्ठ भाई सुसीम उस समय तक्षशिला का प्रांतपाल था । तक्षशिला में भारतीय-यूनानी मूल के बहुत लोग रहते थे । इससे वह क्षेत्र विद्रोह के लिए उपयुक्त था । सुसीम के अकुशल प्रशासन के कारण भी उस क्षेत्र में विद्रोह पनप उठा । राजा बिन्दुसार ने सुसीम के कहने पर राजकुमार अशोक को विद्रोह के दमन के लिए वहाँ भेजा । अशोक के आने की खबर सुनकर ही विद्रोहियों ने उपद्रव खत्म कर दिया और विद्रोह बिना किसी युद्ध के खत्म हो गया । हालांकि यहां पर बग़ावत एक बार फिर अशोक के शासनकाल में हुई थी पर इस बार उसे बलपूर्वक कुचल दिया गया ।


अशोक की इस प्रसिद्ध से उसके भाई सुसीम को सिंहासन न मिलने का खतरा बढ़ गया । उसने सम्राट बिंदुसार को कह के अशोक को निर्वास मे डाल दिया । अशोक कलिंग चला गया । वहां उसे मत्स्य कुमारी कौर्वकी से प्यार हो गया । हाल में मिले साक्ष्यों के अनुसार बाद में अशोक ने उसे तीसरी या दूसरी रानी बनाया था ।
इसी बीच उज्जैन में विद्रोह हो गया । उसे सम्राट ने निर्वासन से बुला विद्रोह को दबाने के लिए भेज दिया । हालाकि उसके सेनापतियों ने विद्रोह को दबा दिया पर उसकी पहचान गुप्त ही रखी गई क्योंकि मौर्यों द्वारा फैलाए गए गुप्तचर जाल से उसके बारे में पता चलने के बाद उसके भाई सुसीम द्वारा उसे मरवाए जाने का भय था । वह बौद्ध सन्यासियों के साथ रहा था । इसी दौरान उसे बौद्ध विधि-विधानों तथा शिक्षाओं का पता चला था । यहाँ पर एक सुन्दरी जिसका नाम देवी था से उसे प्रेम हो गया जिसे उसने स्वस्थ्य होने के बाद विवाह कर लिया ।
कुछ वर्षों के बाद सुसीम से तंग आ चुके लोगों ने अशोक को राजसिंहासन हथिया लेने के लिए प्रोत्साहित किया क्योंकि सम्राट बिन्दुसार वृद्ध तथा रुग्न हो चले थे । जब वह आशरम मे॒ थे तब उन्को यह खबर् मिली की उनकी मा को उनके सोतेले भाईयो ने मार दाला। तब वह राज महल मे जाकार अपने सारे सोतेले भाईयो को मार दाला और सम्रात बने।
सत्ता सम्हालते ही अशोक ने पूर्व तथा पश्चिम दोनो दिशा में अपना साम्राज्य फैलाना शुरु किया । उसने आधुनिक असम से ईरान की सीमा तक साम्राज्य केवल आठ वर्षों में विस्तृत कर लिया।

कलिंग की लड़ाई

कलिंग युद्ध उसके जीवन का एक निर्णायक मोड़ साबित हुई । इस युद्ध में हुए नरसंहार से उसका मन ग्लानि से भर गया और उसने बौद्ध धर्म को अंगीकार कर लिया ।


बौद्ध धर्म अंगीकरण 

( तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक द्वारा बनाया गया मध्य प्रदेश में साँची का स्तूप ) 

कलिंग युद्ध में हुई क्षति तथा नरसंहार से उसका मन लड़ाई करने से उब गया और वो अपने कृत्य से व्यथित हो गया । इसी शोक में वो बुद्ध के उपदेशों के करीब आता गया और उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिय ।
बौद्ध धर्म स्वीकीर करने के बाद उसने उसको अपने जीवन मे उतारने की कोशिश भी की । उसने शिकार तथा पशु-हत्या करना छोड़ दिया । उसने ब्राह्मणो अन्य सम्प्रदायों के सन्यासियों को खुलकर दान दिया । जनकल्याण के लिए उसने चिकित्यालय, पाठशाला तथा सड़को आदि का निर्माण करवाया ।
उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने धर्म प्रचारक ,नेपाल, श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान सीरिया, मिस्र तथा यूनान तक भेजे । उसने इस काम के लिए अप् ने पुत्र ओर पुत्रि को यात्राओ पर भेजा था| अशोक के धर्म प्रचारको मे सबसे ज्यदा सफलता उसके पुत्र महेन्द्र को मिली। उसके पुत्र महेन्द्र ने श्रीलन्का के राजा तिस्स को बौद्ध धर्म मे दीक्षित किया,जिसने बौद्ध धर्म को अपना राज धर्म बना दिया। अशोक से प्रेरित होकर उसने अपनी उपाधि देवनामप्रिय रख लिया।

शिलालेख 

( नेपालके लुम्बिनीमें सम्राट अशोक द्वारा बनाया गया स्तम्भ


मुख्य लेख : अशोक के शिलालेख

 अशोक के स्तंभ अशोक के काल कि सबसे उत्क्रिषठ्‌ थी | अशोक के स्तंभ मथुरा ( उत्तर प्रदेश / भारत ) और चुनार के पहाड़ियों के लाल बलुआ पत्थर को लाकर बनाया गया था | ये स्तंभ एक ही पत्थर से बनाया गया था | इन स्तंभ कि ऊँचाई 30 फुट से 50 फुट तक है | इनका वजन 1000 - 1200 मन तक है ( 1 मन = 40 किलोग्राम ) अशोक के स्तंभों को दो भागो में बाँट सकते है 1 - शीर्ष भाग और 2 - तना भाग | 

 

मृत्यु

अशोक ने लगभग 40 वर्षों तक शासन किया जिसके बाद लगभग 232 ईसापूर्व में उसकी मृत्यु हुई । उसके कई संतान तथा पत्नियां थीं पर उनके बारे में अधिक पता नहीं है। उसके पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा ने बौद्ध धर्म के प्रचार में योगदान दिया ।
अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य राजवंश लगभग 600 वर्षों तक चला ।
मगध तथा भारतीय उपमहाद्वीप में कई जगहों पर उसके अवशेष मिले हैं । पटना (पाटलिपुत्र) के पास कुम्हरार में अशोककालीन अवशेष मिले हैं । लुम्बिनी में भी अशोक स्तंभ देखा जा सकता है । कर्नाटक के कई स्थानों पर उसके धर्मोपदेशों के शिलोत्कीर्ण अभिलेख मिले हैं ।

अशोक के अभिलेख 

मौर्य राजवंश के सम्राट अशोक द्वारा प्रवर्तित कुल ३३ अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिन्हें अशोक ने स्तंभों, चट्टानों और गुफ़ाओं की दीवारों में अपने २६९ ईसापूर्व से २३१ ईसापूर्व चलने वाले शासनकाल में खुदवाए। ये आधुनिक बंगलादेश, भारत, अफ़्ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और नेपाल में जगह-जगह पर मिलते हैं और बौद्ध धर्म के अस्तित्व के सबसे प्राचीन प्रमाणों में से हैं।[1]
इन शिलालेखों के अनुसार अशोक के बौद्ध धर्म फैलाने के प्रयास भूमध्य सागर के क्षेत्र तक सक्रिय थे और सम्राट मिस्र और यूनान तक की राजनैतिक परिस्थितियों से भलीभाँति परिचित थे। इनमें बौद्ध धर्म की बारीकियों पर ज़ोर कम और मनुष्यों को आदर्श जीवन जीने की सीखें अधिक मिलती हैं। पूर्वी क्षेत्रों में यह आदेश प्राचीन मगधी भाषा में ब्राह्मी लिपि के प्रयोग से लिखे गए थे। पश्चिमी क्षेत्रों के शिलालेखों में भाषा संस्कृत से मिलती-जुलती है और खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया गया। एक शिलालेख में यूनानी भाषा प्रयोग की गई है, जबकि एक अन्य में यूनानी और अरामाई भाषा में द्विभाषीय आदेश दर्ज है। इन शिलालेखों में सम्राट अपने आप को "प्रियदर्शी" (प्राकृत में "पियदस्सी") और देवानाम्प्रिय (यानि देवों को प्रिय, प्राकृत में "देवानम्पिय") की उपाधि से बुलाते हैं।


( अशोक के शिलालेख पूरे भारतीय उपमहाद्वीप और अफ़्ग़ानिस्तान में मिलें हैं )





( ब्रिटिश संग्राहलय में छठे शिलालेख का एक हिस्सा )



बौद्ध मत को अपनाने का वर्णन

सम्राट बताते हैं कि कलिंग को २६४ ईसापूर्व में पराजित करने के बाद उन्होंने पछतावे में बौद्ध धर्म अपनाया:
देवों के प्रिय सम्राट प्रियदर्शी ने अपने राज्याभिषेक के आठ वर्ष बाद कलिंगों को पराजित किया। डेढ़ लाख लोगों को निर्वासित (बेघर) किया, एक लाख मारे गए और अन्य कारणों से और बहुत से मारे गए। कलिंगों को अधीन करके देवों-के-प्रिय को धर्म की ओर खिचाव हुआ, धर्म और धर्म-शिक्षा से प्रेम हुआ। अब देवों-के-प्रिय को कलिंगों को परास्त करने का गहरा पछतावा है। (शिलालेख संख्या १३)
बौद्ध बनाने के बाद अशोक ने भारत-भर में बौद्ध धार्मिक स्थलों पर यात्रा करी और उन स्थानों पर अक्सर शिलालेख वाले स्तम्भ लगवाए:
अपने राज्याभिषेक के बीस वर्ष बाद, देवों के प्रिय सम्राट प्रियदर्शी इस स्थान पर आए और पूजा की क्योंकि यहाँ शाक्यमुनि बुद्ध पैदा हुए थे। उन्होने एक पत्थर की मूर्ति और एक स्तम्भ स्थापित करवाया और, क्योंकि यह भगवन का जन्मस्थान है, लुम्बिनी के गाँव को लगान से छूट दी गई और फ़सल का केवल आठवाँ हिस्सा देना पड़ा। (छोटा स्तम्भ, शिलालेख संख्या १) 

( कांधार में मिला यूनानी और अरामाई का द्विभाषीय शिलालेख )

 





( सारनाथ के स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि में शिलालेख )


विदेश में धर्मप्रचार का वर्णन

बौद्ध धर्म फैलाने के लिए अशोक ने भारत के सभी लोगों में और यूनानी राजाओं को भूमध्य सागर तक दूत भेजे। उनके स्तंभों पर उनके यूनान से उत्तर अफ़्रीका तक के बहुत से समकालीन यूनानी शासकों के सही नाम लिखें हैं, जिस से ज्ञात होता है कि वे भारत से हज़ारों मील दूर की राजनैतिक परिस्थितियों पर नज़र रखे हुए थे:
अब धार्मिक जीत को ही देवों-के-प्रिय सब से उत्तम जीत मानते हैं। और यही यहाँ सीमाओं पर जीती गई है, छह सौ योजन दूर भी, जहाँ यूनानी नरेश अम्तियोको (अन्तियोकस) का राज है, और उस से आगे जहाँ चार तुरामाये (टॉलमी), अम्तिकिनी (अन्तिगोनस), माका (मागस) और अलिकसुदारो (ऐलॅक्सैन्डर) नामक राजा शासन करते हैं, और उसी तरह दक्षिण में चोल, पांड्य और ताम्रपर्णी (श्रीलंका) तक। (शिलालेख संख्या १३)
हर योजन लगभग सात मील होता है, इसलिए ६०० योजन का अर्थ लगभग ४,००० मील है, जो भारत के केंद्र से लगभग यूनान के केंद्र की दूरी है। जिन शासकों का यहाँ वर्णन हैं, वह इस प्रकार हैं:
  • अम्तियोको सीरिया के अन्तियोकस द्वितीय थेओस (Antiochus II Theos, Αντίοχος Β' Θεός, शासनकाल: २६१-२४६ ईसापूर्व)
  • तुरामाये मिस्र के टॉलमी द्वितीय फ़िलादॅल्फ़ोस (Ptolemy II Philadelphos, Πτολεμαῖος Φιλάδελφος, शासनकाल: २८५-२४७ ईसापूर्व)
  • अम्तिकिनी मासेदोन (यूनान) के अन्तिगोनस द्वितीय गोनातस (Antigonus II Gonatas, Αντίγονος B΄ Γονατᾶς, शासनकाल: २७८-२३९ ईसापूर्व)
  • माका सएरीन (लीबिया) के मागस (Magas of Cyrene, शासनकाल: २७६-२५० ईसापूर्व)
  • अलिकसुदारो इपायरस (यूनान और अल्बानिया के बीच का एक क्षेत्र) के ऐलॅक्सैन्डर द्वितीय (Alexander II of Epirus, शासनकाल: २७२-२५८ ईसापूर्व)
यूनानी स्रोतों से साफ़ ज्ञात नहीं होता की यह दूत इन राजाओं से वास्तव में मिले भी की नहीं और यूनानी क्षेत्र में इनका क्या प्रभाव हुआ। फिर भी, कुछ विद्वानों ने यूनानी क्षेत्रों में बौद्ध समुदाय की मौजूदगी (विशेषकर आधुनिक मिस्र में स्थित अल-इस्कंदरिया में) को अशोक के धर्म-दूतों की कुछ मात्रा में सफलता का संकेत माना है। सिकंदरिया के क्लॅमॅन्त (Clement of Alexandria, अनुमानित १५० ई॰ - २१५ ई॰) ने अपनी लेखनी में इनका ज़िक्र किया।[2] अल-इस्कंदरिया में टॉलमी काल की बौद्ध समाधियों पर धर्मचक्र-धारी शिलाएँ मिली हैं।



स्वदेश में धर्मप्रचार का वर्णन

अपनी शिलालेखों में सम्राट ने कई समुदायों का ज़िक्र भी किया जो उनके राज्य की सीमाओं के अन्दर रहते थे:
यहाँ सम्राट के राज्य में यूनानी, कम्बोज, नाभक, नाभ्पंकित, भोज, पितिनिक, आंध्र और पुलिंद, सभी लोग देवों-के-प्रिय के धर्मनिर्देश का पालन कर रहे हैं। (शिलालेख संख्या १३)

यूनानी समुदाय

बहुत से यूनानी मूल के और यूनानी संस्कृति से प्रभावित लोग मौर्य राज्य के उत्तरपश्चिमी इलाक़े में बसे हुए थे, जिसमें आधुनिक पाकिस्तान का ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा प्रांत और दक्षिणी अफ़्ग़ानिस्तान आते हैं। इनकी कुछ रीति-रिवाजों पर भी शिलालेख में टिप्पणी मिलती है:
कोई देश ऐसा नहीं है, यूनानी को छोड़कर, जिनमें ब्राह्मण और श्रमण (बौद्ध भिक्षु) दोनों ही न मिलते हों, न ही ऐसा कोई देश है जहाँ लोग एक या दूसरे धर्म के अनुयायी न हों। (शिलालेख संख्या १३)
अशोक के दो आदेश अफ़्ग़ानिस्तान में मिले हैं, जिनमें यूनानी भाषा में लिखा हुआ है और जिनमें से एक यूनानी और अरामाई में द्विभाषीय है। कंदहार में मिला यह द्विभाषीय शिलालेख "धर्म" शब्द का अनुवाद यूनानी के "युसेबेइया" (εὐσέβεια, Eusebeia) शब्द में करता है, जिसका अर्थ "निष्ठा" भी निकलता है:
दस साल का राज पूर्ण होने पर, सम्राट पियोदासॅस (Πιοδάσσης, Piodasses, प्रियदर्शी का यूनानी रूपांतरण) ने पुरुषों को युसेबेइया (εὐσέβεια, धर्म/निष्ठा) का ज्ञान दिया, और इस क्षण से पुरुषों को अधिक धार्मिक बनाया, और पूरे संसार में समृद्धि है। सम्राट जीवित प्राणियों को मारने से स्वयं को रोकता है, और अन्य पुरुष को सम्राट के शिकारी और मछुआरे हैं वह भी शिकार नहीं करते। अगर कुछ पुरुष असंयम हैं तो वह यथाशक्ति अपने असंयम को रोकते हैं, और अपने माता-पिता और बड़ों की प्रति आज्ञाकारी हैं, जो भविष्य में भी होगा और जो भूतकाल से विपरीत है, और जैसा हर समय करने से वे बेहतर और अधिक सुखी जीवन जियेंगे।

अन्य समुदाय

  • कम्बोज या कम्बोह एक मध्य एशिया से आया समुदाय था जो पहले तो दक्षिणी अफ़्ग़ानिस्तान और फिर सिंध, पंजाब और गुजरात के क्षेत्रों में आ बसे। आधुनिक युग में इस समुदाय के लोग पंजाबियों में मिला करते हैं, और इस्लाम, हिन्दू धर्म और सिख धर्म के अनुयायियों में बंटे हुए हैं।
  • नाभक, नाभ्पंकित, भोज, पितिनिक, आंध्र और पुलिंद अशोक के राज्य में बसी हुई अन्य जातियाँ थीं। 

प्रमुख अभिलेखों का परिचय

अशोक के शिलालेख १४ विभिन्‍न लेखों का समूह हैं जो आठ भिन्‍न-भिन्‍न स्थानों से प्राप्त किए गये हैं। मगध साम्राज्य के प्रतापी मौर्यवंशी शासक अशोक ने अपनी लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा को प्रजा में प्रसारित करने के लिए 14 स्थलों पर शिलालेख, लघु शिलालेख एवं अन्य अभिलेख उत्कीर्ण करवाया था।

धौली

उड़ीसा के पुरी जिला में स्थित इस बृहद शिलालेख में अशोक ने पशु वध और समारोहों पर होने वाले अनावश्यक खर्च की निंदा की है.

शाहबाज गढ़ी

पेशावर (पाकिस्तान)में स्थित इस दूसरे शिलालेख में प्राणिमात्र (पशुओं सहित) के लिए चिकित्सालय खोलने का उल्लेख है. पेयजल और वृक्षारोपन को विशेष प्राथमिकता दी गयी है।

मान सेहरा

हजारा जिले में स्थित इस तीसरे शिलालेख में धन को सोच समझकर खर्च करने की नसीहत है. साथ ही बडों के संग आदरपूर्वक, नम्रतापूर्ण व्यवहार करने का सन्देश है।

कालपी

यह वर्तमान उत्तरांचल (देहरादून) में है ।

जौगढ़

यह उड़ीसा के जौगढ़ में स्थित है ।

सोपरा

यह महराष्ट्र के थाणे जिले में है ।

एरागुडि

आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में स्थित सातवें शिलालेख में अशोक ने निर्देश दिया है की सभी सम्प्रदायों के लोग सभी स्थानों पर रह सकते हैं. इसमें सह-अस्तित्व की मीठी सुगंध मिलती है।

गिरनार

यह काठियाबाड़ में जूनागढ़ के पास है।

अशोक के अभिलेखों के चित्र
































इन्हें भी देखें

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