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Saturday, February 23, 2013

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ तब और अब: भाग-2

(हिंदुत्व की बदलती व्याख्याएँ)
हिन्दू महासभा एवं आर. एस. एस. के बीच कड़वाहट
जैसा विदित है कि वीर सावरकर पहले ही कलकत्ता अधिवेशन के लिये अध्यक्ष चुन लिये गये थे, परन्तु हिन्दू महासभा के अन्य पदों के लिये चुनाव अधिवेशन के मैदान में हुए। सचिव पद के लिये तीन प्रत्याशी थे (1) महाशय इन्द्रप्रकाश, (2) श्री गोलवलकर और (3) श्री ज्योति शंकर दीक्षित। चुनाव हुए और परिणाम स्वरुप महाशय इन्द्रप्रकाश को 80 वोट, श्री गोलवलकर को 40 और श्री ज्योति शंकर दीक्षित को मात्र 2 वोट प्राप्त हुए और इस प्रकार महाशय इन्द्रप्रकाश हिन्दू महासभा कार्यालय सचिव के पद पर चयनित घोषित हुए।
श्री गोलवलकर जी को इस हार से इतनी चिढ़ हो गयी कि वे अपने कुछ साथियों सहित हिन्दू महासभा से दूर होना शुरू हो गये| जून 1940 में डा. हेडगेवार कि अकस्मात मृत्यु हो गयी और उनके स्थान पर श्री गोलवलकर को आर.एस.एस. प्रमुख बना दिया गया। आर.एस.एस. प्रमुख का पद संभालने के थोड़े समय पश्चात ही उन्होंने श्री मारतंडे राव जोग को सर संघ सेनापति के पद से हटा दिया, जिन्हें डा. हेडगेवार ने आर. एस. एस. के उच्च श्रेणी के स्वयं सेवको को सैन्य प्रशिक्षण देने के लिये नियुक्त किया था। इस प्रकार गोलवलकर जी ने अपने ही हाथों आर.एस.एस. की पराक्रमी शक्ति के निर्माण को प्राय: समाप्त ही कर दिया। जिस जुझारू संगठन (मिलीशिया) की स्थापना करना आर.एस.एस. के संस्थापक का उद्देश्य था| वह जुझारूपन, गोलवलकर जी के इस कदम से समाप्त ही हो गया| इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि देश विभाजन, चीन व पकिस्तान के आक्रमण के समय जिस समर्पण व भागीदारी की आशा समाज इस राष्ट्रवादी संगठन आर.एस.एस. से करता था, उस दायित्व को आर.एस.एस. निभाने में असफल रहा|
देश विभाजन के समय हिंदू पिटता रहा,अपमानित होता रहा, पर संघ शाखाओं पर कब्बडी ही खेली जाती रही| हाँ हिन्दुओं के खंडित भारत में शरणार्थी के रूप में आने पर, उनके लिए लंगर जरूर लगाये गये| गुरूजी के नेतृत्व में संघ हिन्दुओं की रक्षा की बजाय सेवा कार्य को ही अपना मुख्य कार्य समझने लगा- यहीं इसकी स्थापना के उद्देश्य व ध्येय में अंतर दिखाई देने लगता है| वर्तमान में भी देश पर अंदर व बाहर से हो रहे आतंकी हमलों व सत्ताधीशों द्वारा हिंदू समाज कों जिस प्रकार अपमानित किया जा रहा है उसका मुकाबला करने में इस संगठन की कमजोरी स्पष्ट  रूप से  देखने को मिल रही है, जब हम और हमारे यह संगठन किसी आतंकी घटना-गुंडागर्दी या सरकार के हिंदू विरोधी कदम का प्रतिकार करने में सक्षम नहीं हो पाते |
यहाँ यह महत्वपूर्ण और उलेखनीय है कि वर्तमान सरसंघ प्रमुख मोहन भागवत जी ने भी आज देश में घटित हो रही आतंकी घटनाओं को देखते हुए हिंदू युवकों के सैन्य प्रशिक्षण की आवश्यकता की मांग की है| स्पष्ट होता है कि गोलवलकर जी वास्तव में किसी भी प्रकार दूरदर्शी नहीं थे| हिंदू समाज व इस राष्ट्र कि रक्षा हेतु जो आवश्यकता वीर सावरकर जी ने “हिन्दुओं के सैनिकीकरण के रूप में सन् १९३७ से १९४५ के बीच दर्शाई थी, गोलवलकर जी ने मारतंडे राव जोग को सरसंघ सेनापति के पद से हटा कर उससे पूर्णताः उलट कार्य किया| उसी सावरकर की सैनिकीकरण नीति की महत्ता गोलवलकर जी के उत्तराधिकारी मोहन भागवत जी को सावरकर के कथन के ७० वर्ष पश्चात समझ में आ पाई है| इसे क्या कहेंगे| इस बीच देश और समाज को हुई हानी का दायित्व कौन लेगा|
सन् १९३५ तक संघ का कार्य धीमी गति परन्तु दृढ विचारधारा से चलता रहा और महाराष्ट्र तक ही सीमित रहा| सन् १९३६ के बाद देश में हिंदू मुस्लिम तनाव पुरे उफान पर आया | मुस्लिम लीग ने पकिस्तान की मांग बड़े जोर शोर से उठानी शुरू कर दी थी| इस हेतु उनके द्वारा मुस्लिम नेशनल गार्ड की स्थापना भी की गई, अल्लामा-मशर्की ने बेल्चा पार्टी (मुसलमानों के एक अर्द्धसैनिक दल) की स्थापना की जिसके कार्यकर्त्ता/वोलंटियर/रजाकार- हिंदुओं के साथ छोटी-छोटी बातों को तूल देकर लड़ाई-झगड़े के लिए अमादा हो जाते थे| निजाम हैदराबाद व उसके रजाकारों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों से वहां की हिंदू जनता आर्तनाद कर रही थी| निजाम ने राज्य के हिंदुओं के सभी धार्मिक कार्यों व अधिकारों पर रोक लगा दी थी| हिंदू न तो यज्ञोपवीत पहन सकते थे, न हवन कर सकते थे| मंदिरों में घंटे-घड़ियाल बजाना अथवा कीर्तन आदि करने को भी निजाम ने गैर क़ानूनी घोषित कर दिया था| जिस कारण आर्यसमाज और हिंदू महासभा को भारी आन्दोलन/सत्याग्रह करना पड़ा| सिंध प्रान्त में मुस्लिम लीगी सरकार ने स्वामी दयानंद द्वारा रचित धार्मिक ग्रन्थ “सत्यार्थ प्रकाश” पर प्रतिबंध लगा दिया था|

सन् १९४५-४६ में मुस्लिम लीग ने अंग्रेज सरकार और कांग्रेसी नेताओं कों पाकिस्तान की मांग मानने के लिए विवश करने के उद्देश्य से “डायरेक्ट एक्शन” नाम से कार्यवाही शुरू की, जिसके परिणाम स्वरूप बिहार, कलकत्ता आदि शहरों में  हजारों हिंदुओं का नरसंहार हुआ | ऐसी स्थिति में हिंदू भयग्रस्त भी था और आक्रोशित भी, और वे चाहते थे कि हिंदुओं का भी एक युवा जुझारू संगठन हो जो उनकी सुरक्षा कर सके| इन्हीं कारणों से हिंदुओं का रुझान संघ की ओर बढ़ा और इसी समय संघ के स्वंयसेवकों और शाखाओं की संख्या बढ़ी  और  सन् १९४६ के पहुंचते- पहुंचते  युवा स्वंयसेवकों की संख्या लगभग ७ लाख हो गई|” संघ के स्वंयसेवकों की संख्या में यह विस्तार गोलवलकर जी के नेतृत्व से अधिक देश में उस समय उत्पन्न हो रही सामाजिक व राजनैतिक परस्थितियों के कारण ही मुख्य रूप से था, जिससे हिंदू समाज- उद्वेलित होकर संघ की ओर आशा लगाकर देखने लगा जो स्वाभाविक था|
श्री गोलवलकर एक रूढ़िवादी व्यक्ति थे जो पुरानी धार्मिक रीतियों पर अधिक विश्वास रखते थे, यहाँ तक कि उन्होंने अपने पूर्वजो के लिये ही नहीं अपितु अपने जीवन काल में ही अपना भी श्राद्ध कर्म संपन्न कर दिया था। वे गंडा-ताबीज के हार पहने रहते थे, जो सम्भवत: किसी संत ने उन्हें किसी बुरे प्रभाव से बचने के लिये दिए थे। गोलवलकर जी  का हिंदुत्व श्री वीर सावरकर और डॉ. हेडगेवार के हिंदुत्व से किंचित भिन्न था। गोलवलकर जी के मन में वीर सावरकर के लिये उतना आदर सत्कार का भाव नहीं था जितना की डा. हेडगेवार के मन में था। डा. हेडगेवार, वीर सावरकर को आदर्श पुरुष मानते थे| यथार्थ में श्री गोलवलकर इतने दृढ़ विचार के न हो कर एक अपरिपक्व व्यक्ति थे, जो आर.एस.एस. विशाल संस्था का उत्तरदायित्व ठीक से उठाने के योग्य नही थे। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने गोलवलकर जी के नेतृत्व में संघ कि शाखाओं और स्वयं सेवकों की संख्या तो बढाई परन्तु अपने मूल सिद्धांतों से दुरी बना लेने के कारण संगठन की ऊर्जा को प्रायः खो दिया| वही क्रमिक ह्रास, आज आर.एस.एस. जिस स्थिती में पहुँच गई है, में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है|
गोलवलकर जी के आर.एस.एस. प्रमुख बनने के बाद हिन्दू महासभा एवं आर.एस.एस के बीच सम्बन्ध तनावपूर्ण होते चले गये। यहाँ तक की श्री गोलवलकर ने वीर सावरकर एवं हिन्दू महासभा द्वारा चलाये जा रहे उस अभियान की आलोचना करनी शुरू कर दी जिसके अंतर्गत हिन्दू युवको को सेना में भर्ती होने के लिये प्रेरित किया जाता था। यह अभियान 1938 से सफलता पूर्वक चलाया जा रहा था और डॉ. हेडगेवार ने 1940 में अपनी मृत्यु तक इसका समर्थन किया था। सुभाष चंद्र बोस ने भी सिंगापुर से रेडियो पर अपने भाषण में इन युवको को सेना में भर्ती कराने के लिये श्री वीर सावरकर के प्रयत्नों की बहुत प्रशंसा की थी। हिन्दू महासभा के इस अभियान के कारण सेना में हिंदुओ की संख्या बढ़ने लगी, जिस पर मुस्लिम लीग ने बहुत बवाल मचाया और अंग्रेज सरकार से आग्रह किया कि सेना में हिंदुओ कि भर्ती बंद की जाये। क्योँकि उस समय द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था इस कारण सरकार को सेना में बढ़ोतरी करनी थी अतः मुस्लिम लीग के विरोध को नकार दिया गया। यह इसी अभियान का ही नतीजा था कि सेना में हिंदुओ की संख्या 36% से बढ़ कर 65% हो गयी, और इसी कारण विभाजन के तुरंत बाद पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर आक्रमण का भारतीय सेना मुंह तोड़ जवाब दे पायी। परन्तु गोलवलकर जी के उदासीन व्यवहार एवं नकारात्मक सोच के कारण दोनों संगठनो के सम्बन्ध बिगड़ते चले गये।
यह भी उलेखनीय है कि एक ओर काँग्रेस व गाँधीजी ने अंग्रेजो को सहमति दे दी थी कि उनके द्वारा भारत छोड़े जाने से पहले, भारत कि सत्ता मुस्लिम लीग को सौपने पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। दूसरी ओर वे लगातार यह प्रचार भी करते रहे कि वीर सावरकर और हिन्दू महासभा साम्प्रदायिक हैं। डा. हेडगेवार की मृत्यु के उपरान्त आर.एस.एस. ने भी श्री गोलवलकर के नेतृत्व में वीर सावरकर एवं हिन्दू महासभा के विरुद्ध एक द्वेषपूर्ण अभियान आरंभ कर दिया। श्री गंगाधर इंदुलकर (पूर्व आर.एस.एस. नेता) का कथन है कि श्री गोलवलकर यह सब वीर सावरकर की बढ़ती हुई लोकप्रियता (विशेषकर महाराष्ट्र के युवको में) के कारण कर रहे थे। उन्हें आशंका थी कि यदि सावरकर कि लोकप्रियता बढ़ती गयी तो युवक वर्ग उनकी ओर आकर्षित होगा और आर.एस.एस. से विमुख हो जायेगा।
इस टिप्पणी के बाद श्री इंदुलकर पूछते है कि “क्या ऐसा कर के आर.एस.एस. हिंदुओ को संगठित कर रही थी या कि विघटित कर रही थी|”
सन् १९३६-३७ में श्री माधव राव सदाशिव राव गोलवलकर संघ में आये| १९३८ में उन्होंने एक पुस्तक लिखी जिसका नाम “वी. आर. अवर नेशनहुड डिफाइंड”(हमारी राष्ट्रीयता)| इस पुस्तक में उन्होंने हिंदू, हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्र की वही व्याख्यायें स्वीकार की जो वीर सावरकर द्वारा लिखित पुस्तक “हिंदुत्व” में तथा वीर सावरकर जी के बड़े भाई श्री बाबा राव सावरकर द्वारा लिखित पुस्तक “राष्ट्र मिमांसा” में दर्शायी गई थी | १५ मई १९६३ के दिन बम्बई में सावरकर सप्ताह का आयोजन किया गया था, उसमें श्री गोलवलकर ने अपने भाषण में कहा कि उन्होंने सावरकर जी की महान रचना ‘हिंदुत्व’ में राष्ट्रवाद के सिद्धांत का विवेचन पाया है| उनके लिए यह एक पाठ्य पुस्तक व एक वैज्ञानिक पुस्तक है|(हिंदू अस्मिता दि. १-११-९३)
परन्तु कुछ समय पश्चात, श्री गोलवलकर ने स्वंय अपने द्वारा सन् १९३८ में लिखी गई पुस्तक ‘वी. आर. अवर नेशनहुड डिफाइंड’ पुस्तक को अस्वीकार करने की बात कही| उन्होंने यहाँ तक कहा कि भूल जाओ ‘ वी आर. अवर नेशनहुड डिफाइंड’ को| १९४९ में संघ पर लगे प्रतिबंध के दौरान, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने जो अपना संविधान बना कर सरकार को दिया उसमें हिंदू राष्ट्र शब्द का कहीं उल्लेख नहीं था परन्तु उसके बाद भी संघ की शाखाओं पर स्वंयसेवकों द्वारा “प्रभु शक्ति मम हिंदू राष्ट्रांग भूता” कि प्रार्थना अवश्य गाई जाती रही है| यह संविधान गोलवलकर जी द्वारा डॉ. हेडगेवार कि मृत्यु के बाद संघ पर प्रतिबन्ध लगने के पश्चात बनाया गया था|
दिनाँक ३०-१-१९४८ को गाँधी जी की हत्या हुई| जिस समय गाँधी जी की मृत्यु का समाचार गोलवलकर जी को मिला, वह उस समय दि. ३०-१-१९४८ को मद्रास (चैन्नई) में प्रवास पर थे| आल इंडिया रेडियो पर जब यह समाचार प्रसारित हुआ की गांधीजी की हत्या महाराष्ट्र के एक हिंदू-राष्ट्रवादी पंडित नाथूराम गोडसे ने की है| इसकी प्रतिक्रिया में गांधीवादियों द्वारा महाराष्ट्र में बहुत उत्पात मचाया गया है, साथ ही वीर सावरकर के छोटे भाई नारायण राव सावरकर जी को भी लाठियों से पीटा गया| गोडसे जी का परिवार भी घोर प्रताड़ना का शिकार हुआ| इसके अतिरिक्त वीर सावरकर जी के साथ-साथ हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के हजारों कार्यकर्ताओं को भी जेलों में ठूस दिया गया| उन लोगों को भी जिनका गाँधी वध से दूर दूर तक का कोई संबंध नहीं था|(संदर्भ- “गोडसे की आवाज सुनो” पृष्ठ सं.५१-५२)
इस कांड का सबसे दुखद पहलु यह रहा कि जिस पंडित नाथूराम गोडसे ने राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के कार्यकलापों में सदा बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया, जिसने महाराष्ट्र के सांगली जिले के बौद्धिक प्रमुख का महत्वपूर्ण दायित्व निभाया और दि. १५-११-१९४९ को- आर.एस.एस. की शाखा स्थल पर गाई जाने वाली प्रार्थना “नमस्ते सदा वत्सले मातृ भूमि” का स्वर गान करते हुए, भारत विभाजन के विरोध में, फांसी का फंदा चूमा और शाह्दत का जाम पिया| उसी संघ समर्पित गोडसे को, गाँधी वध के बाद आर.एस.एस. के तात्कालिक प्रमुख – सरसंघचालक श्री माधव राव सदाशिव राव गोलवलकर उपाख्य “गुरूजी” ने भयभीत होकर सिरे से नकार दिया, और तुरत-फुरत में दिनांक ३१-१-१९४८ को जवाहरलाल नेहरु तात्कालिक प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर गोडसे को “अविवेकी और दुराग्रही आत्मा के साथ देशद्रोही” तक लिख डाला| इसके विपरीत अखिल भारत हिंदू महासभा ने
उस विषम परस्थितियों में भी निर्भीकता के साथ छाती ठोककर हुतात्मा नाथूराम गोडसे को न सिर्फ अपना कार्यकर्त्ता बताना स्वीकार किया वरन हिंदू महासभा के तात्कालिक अध्यक्ष बैरिस्टर एल.वी.भोपटकर ने नाथूराम गोडसे के साथ अन्य अभियुक्तों का मुकदमा निशुल्क और पूर्ण निष्ठा और समर्पण के साथ अंत तक लड़ा|

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