शेर शाह सूरी (१५४०-१५४५)
शेरशहह सूरी एक अफगान था जिसने देहली में एक छोटी अवधि, पाँच वर्ष राज्य किया। हमारे सैक्यूलरिस्ट इतिहासज्ञ उसकी अपार प्रशंसा करते हैं मात्र इसलिए ही नहीं कि उसने छतीस सौं मील लम्बी ग्राण्ड ट्रंक रोड बनाई वरन् इसलिए भी कि वह उनके मतानुसार सैक्यूलर, परोपकारी, दयालु और कोमल हृदय का शासक था। यहाँ हम यह विवेचना नहीं कर रहे कि पाँच साल के इतने अल्पकाल में, विशेषकर जब वह अनेकों युद्धों में भी लिप्त रहा आया था, इतनी लम्बी छत्तीस सौ मील लम्बी सड़क वह भी पूर्वी बंगाल से लेकर पेशावर तक, के लम्बे क्षेत्र में सड़क निर्माण कार्य कैसे सम्भव हो सकता था, विशेषकर जब, उसके आधे क्षेत्र में भी उसका शासन नहीं था, वह कैसे बनवा सकता था। और कथित सड़क के निर्माण का किसी भी सामयिक ऐतिहासिक अभिलेख में कोई कैसा भी वर्णनउपलब्ध नहीं है। यहाँ विवेचन का हमारा सम्बन्ध, इन सैक्यूलरिस्ट इतिहासज्ञों द्वारा प्रतिपादित तथ्य, शेरशाह के सैक्यूलर होने के विषय में है।
अब्बास खान रिजिवी ने अपने इतिहास अभिलेख तारीख-ई-शेरशाही में बड़ी यथार्थता और विस्तार से शेरशाह के संक्षिप्तकालीन शासन का विवरण लिखा था। इस इतिहास अभिलेख का एच. एम. ऐलियट और डाउसन ने अंग्रेजी में अनुवाद किया था जो आज के तालिबानों के पिता के द्वारा व्यवहार में लाई गई, तथाकथित सैक्यूलरिज्म, का एक अति विलक्षण वर्णन प्रस्तुत करता है।
१५४३ में शेरहशाह ने रायसीन के हिन्दू दुर्ग पर आक्रमण किया। छः महीने के घोर संघर्ष के उपरान्त रायसनी का राजा पूरन मल हार गया। शेर शाह द्वारा दिये गये सुरक्षा और सम्मान के वचन एवम् आश्वासन का, हिन्दुओं ने विश्वास कर लिया, और समर्पण कर दिया। किन्तु अगले दिन प्रातः काल हिन्दू, जैसे ही किले से बाहर आये, शेरशाह की सेना ने उन पर आकस्मिक आक्रमण कर दिया। अब्बार खान शेरवानी ने लिखा था-
”अफगानों ने चारों ओर से आक्रमण कर दिया, और हिन्दुओं का वध प्रारम्भ कर दिया। पूरन मल और उसके साथी, घबराई हुई भेड़ों व सूअरों कीभाँति, वीरता और युद्ध कौशल दिखाने में सर्वथा असफल रहें, और एक आँख के इशारे मात्र समय में ही, सबके सब वध हो गये। उनकी पत्नियाँ और परिवार बन्दी बना लिये गये। पूरन मल की एक पुत्री और उसके बड़े भाई के तीन पुत्रों को जीवित ले जाया गया और शेष को मार दिया गया। शेरशाह ने पूरन मल की पुत्री को किसी घुम्मकड़ बाजीगर को दे दिया जो उसे बाजार में नचा सके, और लड़कों को बधिया, सस्सी, करवा दिया ताकि हिन्दुओं का वंश न बढ़े।”
(तारीख-ई-शेरशाही : अब्बास खान शेरवानी, एलिएट और डाउसन, खण्ड IV, पृष्ठ ४०३)
अब्बास खान ने शेर शाह की सैक्यूलरिज्म के अनेकों और उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। उनमें से एक इस प्रकार है- ”उसने अपने अश्वधावकों को आदेश दिया कि हिन्दू गाँवों की जाँच पड़ताल करें, उन्हें मार्ग में जो पुरुष मिलें, उन्हें वध कर दें, औरतों और बच्चों को बन्दी बना लें, पशुओं को भगा दें, किसी को भी खेती ने करने दें, पहले से बोई फसलों को नष्ट कर दें, और किसी को भी पड़ौस के भागों से कुछ भी न लाने दें।”
(उसी पुस्तक में पृष्ठ ३१६)
अकबर ‘महान’ (१५५६-१६०५)
जवाहर लाल नेहरु द्वारा लिखित, बहुत प्रशंसित, ऐतिहासिक मिथ्या कथा, ”डिस्कवरी ऑफ इण्डिया” में जिसे अकबर ‘महान’ कहकर स्वागत व प्रशांसित किया गया, एक धुरीय, व्यक्तित्व है, जो मार्क्सिटस्ट ब्राण्ड के सैक्यूलरिस्टों के लिए, आनन्द व उल्लास का स्रोत हैं इन मैकौलेवादी व मार्क्सिस्टों की जाति के, इतिहासकारों, द्वारा इस (अकबर) को एक सर्वाधिक परोपकारी उदार, दयालु, सैक्यूलर और ज जाने किन-किन गुणों से सम्पन्न शहंशाह के रूप में चित्रित किया गया है। अतः इस लेख के द्वारा, अकबर के स्वंय के, व उसके प्रधानमंत्री द्वारा लिखित, विवरणों के ही आधार पर लोगों के समक्ष विशेषकर सैक्यूलरवादी इतिहासज्ञों के समक्ष प्रगट, एवम् प्रमाणित, करने का प्रयास किया जा रहाा है, कि अकबर वास्तव में कितना महान था।
अकबर एक ग़ाजी हो गया
एक निहत्थे, असुरक्षित और बुरी तह घायल, हिन्दू, हैमू या राजा हेमचन्द्र का शिरोच्छेदन या वध कर अकबर, किशोरावस्था में ही, गाजी हो गया था।
अकबर के सम साममियक इतिहास अभिलेख लेखक अहमद यादगार ने, लिखा था- ”बैरम खाँ ने हिमूँ के हाथ पैर बाँध दिये और उसे, नव जवान, भाग्यवान शहजादे के पास ले गया और बोला, चूंकि यह हमारी प्रथम सफलता है,अतः आप श्रीमान, अपने ही पवित्र कर कमलों से तलवार द्वारा इस अविश्वासी का कत्ल कर दें, और उसी के अनुसार शहजादे ने, उस पर आक्रमण किया और उसका सिर उसके अपवित्र शरीर, धड़ से अलग कर दिया।” (नवम्बर, ५ AD १५५६)
(तारीख-ई-अफगान, अहमद यादगार, एलियट और डाउसन, खण्ड VI, पृष्ठ ६५-६६)
”बादशाह ने तलवार से हिमू पर आक्रमण किया और उसने गाजी की उपाधि प्राप्त कर ली।”
(तारीख-ई-अकबर, पृष्ठ ७४ अनु. तानसेन अहमद)
अबुल फजल ने लिखा था- ”अकबर को बताया गया कि हिमू का पिता और पत्नी और उसकी सम्पत्ति व धन अलवर में हैं, अतः बादशाह ने नासिर-उल-मलिक को चुने हुए योद्धाओं के साथ आक्रमण के लिए भेज दिया। हिमू के पिता को जीवित ले आया गया और नासिर-उल-मलिक के सामने प्रस्तुत किया गया जिसने उसे (हिमू के पिता को) इस्लाम में धर्मान्तरित करने का प्रयास किया, किन्तु वृद्ध पुरुष ने उत्तर दिया, ”मैंने अस्सी वर्ष तक ईश्वर की पूजा अपने मतानुसार की है; मै। अपने मत को कैसे त्याग सकता हूँ? क्या मैं तुम्हारे मत को बिना समझे हुए, भय के कारण, स्वीकार कर लूँ, मौलाना परी मोहम्मद ने उसके उत्तर को अनसुना कर दिया, किन्तु उसका उत्तर, अपनी तलवार की जीभ या तलवार के आघात से दिया।”
(अकबर नामा, अबुल फजल : एलियट और डाउसन, खण्ड टप्, पृष्ठ २१)
चित्तौड़ में जिहाद
अकबर की चित्तौड़ विजय के विषय में अबुल फजल ने लिखा था, ”अकबर के आदेशानुसार प्रथम आठ हजार राजपूत यौद्धाओं को हथियार विहीन कर दिया गया, और बाद में उनका वध कर दिया गया। उनके साथ-साथ अन्य चालीस हजार कृषकों का भी वध कर दिया गया।”
(अकबरनामा, अबुल फजल, अनु. एच. बैबरिज)
‘युद्ध बन्दियों के साथ इस्लामी व्यवहार का ढंग इसी पुस्तक में सूरा ८ आयत ६७ कुरान में देखें।
फ़तहनामा-ई-चित्तौड़ (मार्च १५६८)
चित्तौड़ की विजयोपरान्त प्रसारित फतह नामा को सम्मिलित कर अकबर ने विभिन्न अवसरों पर फतहनामें प्रसारित किये थे। यह ऐतिहासिक पत्र अकबर ने जिहाद की पूर्णतम भावना के वशीभूत हो, लिखा था और इस प्रकार हिन्दुओं के प्रति उसकी गहन, आन्तरिक घृणा, सम्पूर्ण रूप में इस पत्र द्वारा प्रकाशित हो गई थी।
फतह नामा का मूल पाठ इस प्रकार था, ”अल्लाह की खयाति बढ़े जिसने वचन को पूरा किया, अकेले ही संयुक्त शक्ति को हरा दिया और जिसके पश्चात कहीं भी कुछ भी नहीं है….. सर्वशक्तिमान, जिसने कर्तव्य परायण मुजाहिदों को बदमाश अविश्वासियों को अपनी बिजली की तरह चमकीली कड़कड़ाती तलवारों द्वारा वघ कर देने की आज्ञादी थी, उसने (अल्लाहने) बताया था, उनसे युद्ध करो! अल्लाह उन्हें तुम्हारे हाथों के द्वारा दण्ड देगा और वह उन्हें नीचे गिरा देगा। वध कर धराशायी कर देगा। और तुम्हें उनके ऊपर विजय दिला देगा (कुरान सूरा ९ आयत १४) ”हमने अपना बहुमूल्य समय अपनी शक्ति से, सर्वोत्तम ढंग से जिहाद, (घिज़ा) युद्ध में ही लगा दिया है और अमर अल्लाह के सहयोग से, जो हमारे सदैव बढ़ते जाने वाले साम्राज्य का सहायक है, अविश्वासियों के अधीन बस्तियों निवासियों, दुर्गों, शहरों को विजय कर अपने अधीन करने में लिप्त हैं, कृपालु अल्लाह उन्हें त्याग दे और तलवार के प्रयोग द्वारा इस्लाम के स्तर को सर्वत्र बढ़ाते हुए, और बहुत्ववाद के अन्धकार और हिंसक पापों को समाप्त करते हुए, उन सभी का विनाश कर दे। हमने पूजा स्थलों को उन स्थानों में मूर्तियों को और भारत के अन्य भागों को विध्वंस कर दिया है। अल्लाह की खयाति बढ़े जिसने, हमें इस उद्देश्य के लिए, मार्ग दिखाया और यदि अल्लाह ने मार्ग न दिखाया होता तो हमें इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मार्ग ही न मिला होता….।.”
(फतहनामा-ई-चित्तौड़ : अकबर ॥नई दिल्ली, १९७२ इतिहास कांग्रेस की कार्य विधि॥ अनु. टिप्पणी : इश्तिआक अहमद जिज्ली पृष्ठ ३५०-६१)
अकबर का शादी के निमित्त जिहाद
अपने हरम को सम्पन्न व समृद्ध करने के लिए अकबर ने अनेकों हिन्दू राजकुमारियों के साथ बलात शादियाँ की; और बज्रमूर्ख, कुटिल एवम् धूर्त सैक्यूलरिस्टों ने इसे, अकबर की हिन्दुओं के प्रति स्नेह, आत्मीयता और सहिष्णुता के रूप में चित्रित किया हैं किन्तु इस प्रकार के प्रदर्शन सदैव एक मार्गीय ही थे। अकबर ने कभी भी, किसी भी मुगल महिला को, किसी भी हिन्दू को शादी में नहीं दिया।
”रणथम्भौर की सन्धि के अन्तर्गत शाही हरम में दुल्हिन-भेजने की, राजपूतों के स्तर को गिराने वाली, रीति से बूंदी के सरदार को मुक्ति दे दी गई थी।”
उपरोक्त सन्धि से स्पष्ट हो जाता है कि अकबर ने, युद्ध में हारे हुए हिन्दू सरदारों को अपने परिवार की सर्वाधिक सुन्दर महिला को मांगने व प्राप्त कर लेने की एक परिपाटी बना रखी थीं और बूंदी ही इस क्रूर परिपाटी का एक मात्र, सौभाग्यशाली, अपवाद था।
”अकबर ने अपनी काम वासना की शांति के लिए गौंडवाना की विधवा रानी दुर्गावती पर आक्रमण कर दिया किन्तु एक अति वीरतापूर्ण संघर्ष के उपरान्त यह देख कर कि हार निश्चित है, रानी ने आत्म हत्या कर ली। किन्तु उसकी बहिन को बन्दी बना लिया गया। और उसे अकबर के हरम में भेज दिया गया।” (
आर. सी. मजूमदार, दी मुगल ऐम्पायर, खण्ड VII, पृष्ठ बी. वी. बी.)
हल्दी घाटी के गाज़ी
राणाप्रताप के विरुद्ध अकबर के अभियानों के लिए सबसे बड़ा, सबसे अधिक, सशक्त प्रेरक तत्व था इस्लामी जिहाद की भावना, जिसकी व्याखया व स्पष्टीकरण कुरान की अनेकों आयतों ओर अन्य इस्लामी धर्म ग्रंथों में किया गया है। ”उनसे युद्ध करो, जो अल्लाह और कयामत के दिन (अन्तिम दिन) में विश्वास नहीं रखते, जो कुछ अल्लाह और उसके पैगम्बर ने निषेध कर रखा है उसका निषेध नहीं करते; जो उस पन्थ पर नहीं चलते हैं यानी कि उस पन्थ को स्वीकार नहीं करते हैं जो सच का पन्थ है, और जो उन लोगों को है जिन्हें किताब (कुरान) दी गई है; (और तब तक युद्ध करो) जब तक वे उपहार न दे दें और दीन हीन न बना दिये जाएँ, पूर्णतः झुका न दिये जाएँ।”
(कुरान सूरा ९ आयत २५)
अतः तर्कपूर्वक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राजपूत सरदारों और भील आदिवासियों द्वारा संगठित रूप में हल्दी घाटी में मुगलों के विरुद्ध लड़ा गया युद्ध मात्र एक शक्ति संघर्ष नहीं था। इस्लामी आतंकवाद व आतताईपन के विरुद्ध हिन्दू प्रतिरोध ही था।
अकबर के एक दरबारी इमाम अब्दुल कादिर बदाउनी ने अपने इतिहास अभिलेख, ‘मुन्तखाव-उत-तवारीख’ में लिखा था कि १५७६ में जब शाही फौंजे राणाप्रताप के विरुद्ध युद्ध के लिए अग्रसर हो रहीं थीं तो उसने (बदाउनीने) ”युद्ध अभियान में सम्मिलित होकर हिन्दू रक्त से अपनी इस्लामी दाड़ी को भिगों लेने के विद्गिाष्ट अधिकार के प्रयोग के लिए इस अवसर पर उपस्थित रहे आने में अपनी असमर्थता के लिए आदेश प्रापत करने के लिए शाहन्शाह से भेंट की अनुमति के लिए प्रार्थना की।” अपने व्यक्तित्व के प्रत इतने सम्मन और निष्ठा, और जिहाद सम्बन्धी इस्लामी भावना के प्रति निष्ठा से अकबर इतना प्रसन्न हुआ कि अपनी प्रसन्नता के प्रतीक स्वरूप् मुठ्ठी भर सोने की मुहरें उसने बदाउनी को दे डालीं।
(मुन्तखाब-उत-तवारीख : अब्दुल कादिर बदाउनी, खण्ड II, पृष्ठ ३८३, वी. स्मिथ, अकबर दी ग्रेट मुगल, पृष्ठ १०८)
काफिर होना, मृत्यु का कारण
हल्दी घाटी के युद्ध में एक मनोरंजक घटना हुई। वह विशेषकर अपने सैक्यूलरिस्ट बन्धुओं के निमित्त ही यहाँ उद्धत है।
बदाउनी ने लिखा था- ”हल्दी घाटी में जब युद्ध चल रहा था और अकबर से संलग्न राजपूत, और राणा प्रताप के निमित्त राजपूत परस्पर युद्ध रत थे और उनमें कौन किस ओर है, भेद कर पाना असम्भव हो रहा था, तब अकबर की ओर से युद्ध कर रहे बदाउनी ने, अपने सेना नायकसे पूछा कि वह किस पर गोली चलाये ताकि शत्रु को ही आघात हो, और वह ही मरे। कमाण्डर आसफ खाँ ने उत्तर दिया था कि यह बहुत अधिक महत्व की बात नहीं कि गोली किस को लगती है क्योंकि सभी (दोनों ओर से) युद्ध करने वाले काफ़िर हैं, गोली जिसे भी लगेगी काफिर ही मरेगा, जिससे लाभ इसलाम को ही होगा।”
(मुन्तखान-उत-तवारीख : अब्दुल कादिर बदाउनी, खण्ड II, अकबर दी ग्रेट मुगल : वी. स्मिथ पुनः मुद्रित १९६२; हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ दी इण्डियन पीपुल, दी मुगल ऐम्पायर : सं. आर. सी. मजूमदार, खण्ड VII, पृष्ठ १३२ तृतीय संस्करण, बी. वी. बी.)
इसी सन्दर्भ में एक और ऐसी ही समान स्वभाव् की घटना वर्णन योग्य है। प्रथम विश्व व्यापी महायुद्ध में जब ब्रिटिश भारत की सेनायें क्रीमियाँ में नियुक्त थीं तब ब्रिटिश भारत की सेना के मुस्लिम सैनिकों के पीछे स्थित थे, हिन्दू सैनिकों पर पीदे से गोलियाँ चला दीं, फलस्वरूप बहुत से हिन्दू सैनिक मारे गये। मुस्लिम सैनिकों की शिकायत थी कि जर्मनी के पक्षधर, और जो क्रीमियाँ पर अधिकार किये हुए थे, उन तुर्कों के विरुद्ध वे युद्ध नहीं करना चाहते थे। इस घटना के बाद ब्रिटिशों ने ब्रिटिश भारत की सेना के हिन्दू और मुस्लमान सैनिकों को युद्ध स्थल पर कभी भी एक ही पक्ष में, एक साथ, नियुक्त नहीं किया। इस घटना का वर्णन उस ब्रिटिश अफसर ने स्वयं ही लिखा था जो इस अति अद्युत, और विशिष्ट, तथा इस्लामी, घटना का स्वंय प्रत्यक्ष दर्शी था।
(दी इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी, लण्डन, एम. एस. एस. २३९७)
किन्तु हिन्दुओं ने अपने इतिहास से कुछ भी नहीं सीखा है, अतः ऐसी घटना की पुनरावृत्ति अत्याज्य है। घटना तुलनात्मक रूप में निकट भूत की ही है जिसमें साम्य वादियों की बहुत अधिक कटु भागीदारी है। एक भली भांति सिद्धान्त विशारद साम्यवादी, विखयात नेता, स्वर्गीय प्रो. कल्यान दत्त (सी. पी. आई) ने अपनी जीवनी ”आमार कम्युनिष्ट जीवन” में लिखा था। मुस्लमानों ने अपनी पाकिस्तान की मांग को सम्पन्न कराने के लिए १६ अगस्ट १९४६ को ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही’ प्रारम्भ कर दी। इसे बाद में ”कलकत्ता का महान नरसंहार, महान कत्लेआम, कहा गया।” (दी ग्रेट कैलकट्टा किलिंगस)। ‘जिहाद’ जिसे प्रत्यक्ष कार्यवाही (डायरेक्ट एक्शन) नाम दिया गया, खिदर पुर डौकयार्ड के मुस्लिम मजदूरों ने हिन्दू मजदूरों पर आक्रमण कर दिया। आश्चर्यचकित हिन्दुओं ने वामपंथी टे्रड यूनियन्स की सदस्यता के, जिनकेहिन्दू मुसलमान दोनों ही मजदूर थे कार्ड दिखाकर प्राणरक्षा की भीख मांगी, और कहा कि ”अरे कौमरैडो (साथियों) तुम हमारा वध क्यों कर रहे हो? हम सभी एक यूनियन में हैं। ”किन्तु चूँकि इन मुजाहिदों को इस्लाम का राज्य (दारूल इस्लाम) मजदूरों के राज्य से कहीं अधिक प्रिय है, ”सभी हिन्दुओं का वध कर दिया गया।”
(कल्यान दत्त, ‘आमार कम्यूनिष्ट जीवन’ (बंगाली) पर्ल पब्लिशर्स, पृष्ठ १० प्रथम आवृत्ति कलकत्ता १९९९)
इस विशेष घटना के यहाँ वर्णन करने का मेरा उद्देश्य और आशा है, कि वामपंथी सेना, ”जो व्यावहारिक ज्ञान की अपेक्षा सिद्धान्त बनाने में अधिक सिद्ध हस्त हैं, ”उनके मस्तिष्कों में वास्तविकता, सच्चाई और सामान्य ज्ञान का कुछ उदय हो जाए।
अकबर हिन्दुओं का वधिक
जहाँगीर ने, अपनी जीवनी, ”तारीख-ई-सलीमशाही” में लिखा था कि ”अकबर और जहाँगीर के आधिपत्य में पाँच से छः लाख की
संखया में हिन्दुओं का वध हुआ था।”
(तारीख-ई-सलीम शाही, अनु. प्राइस, पृष्ठ २२५-२६)
गणना करने की चिंता किये बिना, मानवों के वध एवम् रक्तपात सम्बन्धी अकबर की मानसिक अभिलाषा के उदय का कारण, इस्लाम के जिहाद सम्बन्धीसिद्धांत, व्यवहार और भावना में थीं, जिनका पोषण इस्लामी धर्म ग्रन्थ और प्रशासकीय विधि विज्ञान के नियमों द्वारा होता है।
शेरशहह सूरी एक अफगान था जिसने देहली में एक छोटी अवधि, पाँच वर्ष राज्य किया। हमारे सैक्यूलरिस्ट इतिहासज्ञ उसकी अपार प्रशंसा करते हैं मात्र इसलिए ही नहीं कि उसने छतीस सौं मील लम्बी ग्राण्ड ट्रंक रोड बनाई वरन् इसलिए भी कि वह उनके मतानुसार सैक्यूलर, परोपकारी, दयालु और कोमल हृदय का शासक था। यहाँ हम यह विवेचना नहीं कर रहे कि पाँच साल के इतने अल्पकाल में, विशेषकर जब वह अनेकों युद्धों में भी लिप्त रहा आया था, इतनी लम्बी छत्तीस सौ मील लम्बी सड़क वह भी पूर्वी बंगाल से लेकर पेशावर तक, के लम्बे क्षेत्र में सड़क निर्माण कार्य कैसे सम्भव हो सकता था, विशेषकर जब, उसके आधे क्षेत्र में भी उसका शासन नहीं था, वह कैसे बनवा सकता था। और कथित सड़क के निर्माण का किसी भी सामयिक ऐतिहासिक अभिलेख में कोई कैसा भी वर्णनउपलब्ध नहीं है। यहाँ विवेचन का हमारा सम्बन्ध, इन सैक्यूलरिस्ट इतिहासज्ञों द्वारा प्रतिपादित तथ्य, शेरशाह के सैक्यूलर होने के विषय में है।
अब्बास खान रिजिवी ने अपने इतिहास अभिलेख तारीख-ई-शेरशाही में बड़ी यथार्थता और विस्तार से शेरशाह के संक्षिप्तकालीन शासन का विवरण लिखा था। इस इतिहास अभिलेख का एच. एम. ऐलियट और डाउसन ने अंग्रेजी में अनुवाद किया था जो आज के तालिबानों के पिता के द्वारा व्यवहार में लाई गई, तथाकथित सैक्यूलरिज्म, का एक अति विलक्षण वर्णन प्रस्तुत करता है।
१५४३ में शेरहशाह ने रायसीन के हिन्दू दुर्ग पर आक्रमण किया। छः महीने के घोर संघर्ष के उपरान्त रायसनी का राजा पूरन मल हार गया। शेर शाह द्वारा दिये गये सुरक्षा और सम्मान के वचन एवम् आश्वासन का, हिन्दुओं ने विश्वास कर लिया, और समर्पण कर दिया। किन्तु अगले दिन प्रातः काल हिन्दू, जैसे ही किले से बाहर आये, शेरशाह की सेना ने उन पर आकस्मिक आक्रमण कर दिया। अब्बार खान शेरवानी ने लिखा था-
”अफगानों ने चारों ओर से आक्रमण कर दिया, और हिन्दुओं का वध प्रारम्भ कर दिया। पूरन मल और उसके साथी, घबराई हुई भेड़ों व सूअरों कीभाँति, वीरता और युद्ध कौशल दिखाने में सर्वथा असफल रहें, और एक आँख के इशारे मात्र समय में ही, सबके सब वध हो गये। उनकी पत्नियाँ और परिवार बन्दी बना लिये गये। पूरन मल की एक पुत्री और उसके बड़े भाई के तीन पुत्रों को जीवित ले जाया गया और शेष को मार दिया गया। शेरशाह ने पूरन मल की पुत्री को किसी घुम्मकड़ बाजीगर को दे दिया जो उसे बाजार में नचा सके, और लड़कों को बधिया, सस्सी, करवा दिया ताकि हिन्दुओं का वंश न बढ़े।”
(तारीख-ई-शेरशाही : अब्बास खान शेरवानी, एलिएट और डाउसन, खण्ड IV, पृष्ठ ४०३)
अब्बास खान ने शेर शाह की सैक्यूलरिज्म के अनेकों और उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। उनमें से एक इस प्रकार है- ”उसने अपने अश्वधावकों को आदेश दिया कि हिन्दू गाँवों की जाँच पड़ताल करें, उन्हें मार्ग में जो पुरुष मिलें, उन्हें वध कर दें, औरतों और बच्चों को बन्दी बना लें, पशुओं को भगा दें, किसी को भी खेती ने करने दें, पहले से बोई फसलों को नष्ट कर दें, और किसी को भी पड़ौस के भागों से कुछ भी न लाने दें।”
(उसी पुस्तक में पृष्ठ ३१६)
अकबर ‘महान’ (१५५६-१६०५)
जवाहर लाल नेहरु द्वारा लिखित, बहुत प्रशंसित, ऐतिहासिक मिथ्या कथा, ”डिस्कवरी ऑफ इण्डिया” में जिसे अकबर ‘महान’ कहकर स्वागत व प्रशांसित किया गया, एक धुरीय, व्यक्तित्व है, जो मार्क्सिटस्ट ब्राण्ड के सैक्यूलरिस्टों के लिए, आनन्द व उल्लास का स्रोत हैं इन मैकौलेवादी व मार्क्सिस्टों की जाति के, इतिहासकारों, द्वारा इस (अकबर) को एक सर्वाधिक परोपकारी उदार, दयालु, सैक्यूलर और ज जाने किन-किन गुणों से सम्पन्न शहंशाह के रूप में चित्रित किया गया है। अतः इस लेख के द्वारा, अकबर के स्वंय के, व उसके प्रधानमंत्री द्वारा लिखित, विवरणों के ही आधार पर लोगों के समक्ष विशेषकर सैक्यूलरवादी इतिहासज्ञों के समक्ष प्रगट, एवम् प्रमाणित, करने का प्रयास किया जा रहाा है, कि अकबर वास्तव में कितना महान था।
अकबर एक ग़ाजी हो गया
एक निहत्थे, असुरक्षित और बुरी तह घायल, हिन्दू, हैमू या राजा हेमचन्द्र का शिरोच्छेदन या वध कर अकबर, किशोरावस्था में ही, गाजी हो गया था।
अकबर के सम साममियक इतिहास अभिलेख लेखक अहमद यादगार ने, लिखा था- ”बैरम खाँ ने हिमूँ के हाथ पैर बाँध दिये और उसे, नव जवान, भाग्यवान शहजादे के पास ले गया और बोला, चूंकि यह हमारी प्रथम सफलता है,अतः आप श्रीमान, अपने ही पवित्र कर कमलों से तलवार द्वारा इस अविश्वासी का कत्ल कर दें, और उसी के अनुसार शहजादे ने, उस पर आक्रमण किया और उसका सिर उसके अपवित्र शरीर, धड़ से अलग कर दिया।” (नवम्बर, ५ AD १५५६)
(तारीख-ई-अफगान, अहमद यादगार, एलियट और डाउसन, खण्ड VI, पृष्ठ ६५-६६)
”बादशाह ने तलवार से हिमू पर आक्रमण किया और उसने गाजी की उपाधि प्राप्त कर ली।”
(तारीख-ई-अकबर, पृष्ठ ७४ अनु. तानसेन अहमद)
अबुल फजल ने लिखा था- ”अकबर को बताया गया कि हिमू का पिता और पत्नी और उसकी सम्पत्ति व धन अलवर में हैं, अतः बादशाह ने नासिर-उल-मलिक को चुने हुए योद्धाओं के साथ आक्रमण के लिए भेज दिया। हिमू के पिता को जीवित ले आया गया और नासिर-उल-मलिक के सामने प्रस्तुत किया गया जिसने उसे (हिमू के पिता को) इस्लाम में धर्मान्तरित करने का प्रयास किया, किन्तु वृद्ध पुरुष ने उत्तर दिया, ”मैंने अस्सी वर्ष तक ईश्वर की पूजा अपने मतानुसार की है; मै। अपने मत को कैसे त्याग सकता हूँ? क्या मैं तुम्हारे मत को बिना समझे हुए, भय के कारण, स्वीकार कर लूँ, मौलाना परी मोहम्मद ने उसके उत्तर को अनसुना कर दिया, किन्तु उसका उत्तर, अपनी तलवार की जीभ या तलवार के आघात से दिया।”
(अकबर नामा, अबुल फजल : एलियट और डाउसन, खण्ड टप्, पृष्ठ २१)
चित्तौड़ में जिहाद
अकबर की चित्तौड़ विजय के विषय में अबुल फजल ने लिखा था, ”अकबर के आदेशानुसार प्रथम आठ हजार राजपूत यौद्धाओं को हथियार विहीन कर दिया गया, और बाद में उनका वध कर दिया गया। उनके साथ-साथ अन्य चालीस हजार कृषकों का भी वध कर दिया गया।”
(अकबरनामा, अबुल फजल, अनु. एच. बैबरिज)
‘युद्ध बन्दियों के साथ इस्लामी व्यवहार का ढंग इसी पुस्तक में सूरा ८ आयत ६७ कुरान में देखें।
फ़तहनामा-ई-चित्तौड़ (मार्च १५६८)
चित्तौड़ की विजयोपरान्त प्रसारित फतह नामा को सम्मिलित कर अकबर ने विभिन्न अवसरों पर फतहनामें प्रसारित किये थे। यह ऐतिहासिक पत्र अकबर ने जिहाद की पूर्णतम भावना के वशीभूत हो, लिखा था और इस प्रकार हिन्दुओं के प्रति उसकी गहन, आन्तरिक घृणा, सम्पूर्ण रूप में इस पत्र द्वारा प्रकाशित हो गई थी।
फतह नामा का मूल पाठ इस प्रकार था, ”अल्लाह की खयाति बढ़े जिसने वचन को पूरा किया, अकेले ही संयुक्त शक्ति को हरा दिया और जिसके पश्चात कहीं भी कुछ भी नहीं है….. सर्वशक्तिमान, जिसने कर्तव्य परायण मुजाहिदों को बदमाश अविश्वासियों को अपनी बिजली की तरह चमकीली कड़कड़ाती तलवारों द्वारा वघ कर देने की आज्ञादी थी, उसने (अल्लाहने) बताया था, उनसे युद्ध करो! अल्लाह उन्हें तुम्हारे हाथों के द्वारा दण्ड देगा और वह उन्हें नीचे गिरा देगा। वध कर धराशायी कर देगा। और तुम्हें उनके ऊपर विजय दिला देगा (कुरान सूरा ९ आयत १४) ”हमने अपना बहुमूल्य समय अपनी शक्ति से, सर्वोत्तम ढंग से जिहाद, (घिज़ा) युद्ध में ही लगा दिया है और अमर अल्लाह के सहयोग से, जो हमारे सदैव बढ़ते जाने वाले साम्राज्य का सहायक है, अविश्वासियों के अधीन बस्तियों निवासियों, दुर्गों, शहरों को विजय कर अपने अधीन करने में लिप्त हैं, कृपालु अल्लाह उन्हें त्याग दे और तलवार के प्रयोग द्वारा इस्लाम के स्तर को सर्वत्र बढ़ाते हुए, और बहुत्ववाद के अन्धकार और हिंसक पापों को समाप्त करते हुए, उन सभी का विनाश कर दे। हमने पूजा स्थलों को उन स्थानों में मूर्तियों को और भारत के अन्य भागों को विध्वंस कर दिया है। अल्लाह की खयाति बढ़े जिसने, हमें इस उद्देश्य के लिए, मार्ग दिखाया और यदि अल्लाह ने मार्ग न दिखाया होता तो हमें इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मार्ग ही न मिला होता….।.”
(फतहनामा-ई-चित्तौड़ : अकबर ॥नई दिल्ली, १९७२ इतिहास कांग्रेस की कार्य विधि॥ अनु. टिप्पणी : इश्तिआक अहमद जिज्ली पृष्ठ ३५०-६१)
अकबर का शादी के निमित्त जिहाद
अपने हरम को सम्पन्न व समृद्ध करने के लिए अकबर ने अनेकों हिन्दू राजकुमारियों के साथ बलात शादियाँ की; और बज्रमूर्ख, कुटिल एवम् धूर्त सैक्यूलरिस्टों ने इसे, अकबर की हिन्दुओं के प्रति स्नेह, आत्मीयता और सहिष्णुता के रूप में चित्रित किया हैं किन्तु इस प्रकार के प्रदर्शन सदैव एक मार्गीय ही थे। अकबर ने कभी भी, किसी भी मुगल महिला को, किसी भी हिन्दू को शादी में नहीं दिया।
”रणथम्भौर की सन्धि के अन्तर्गत शाही हरम में दुल्हिन-भेजने की, राजपूतों के स्तर को गिराने वाली, रीति से बूंदी के सरदार को मुक्ति दे दी गई थी।”
उपरोक्त सन्धि से स्पष्ट हो जाता है कि अकबर ने, युद्ध में हारे हुए हिन्दू सरदारों को अपने परिवार की सर्वाधिक सुन्दर महिला को मांगने व प्राप्त कर लेने की एक परिपाटी बना रखी थीं और बूंदी ही इस क्रूर परिपाटी का एक मात्र, सौभाग्यशाली, अपवाद था।
”अकबर ने अपनी काम वासना की शांति के लिए गौंडवाना की विधवा रानी दुर्गावती पर आक्रमण कर दिया किन्तु एक अति वीरतापूर्ण संघर्ष के उपरान्त यह देख कर कि हार निश्चित है, रानी ने आत्म हत्या कर ली। किन्तु उसकी बहिन को बन्दी बना लिया गया। और उसे अकबर के हरम में भेज दिया गया।” (
आर. सी. मजूमदार, दी मुगल ऐम्पायर, खण्ड VII, पृष्ठ बी. वी. बी.)
हल्दी घाटी के गाज़ी
राणाप्रताप के विरुद्ध अकबर के अभियानों के लिए सबसे बड़ा, सबसे अधिक, सशक्त प्रेरक तत्व था इस्लामी जिहाद की भावना, जिसकी व्याखया व स्पष्टीकरण कुरान की अनेकों आयतों ओर अन्य इस्लामी धर्म ग्रंथों में किया गया है। ”उनसे युद्ध करो, जो अल्लाह और कयामत के दिन (अन्तिम दिन) में विश्वास नहीं रखते, जो कुछ अल्लाह और उसके पैगम्बर ने निषेध कर रखा है उसका निषेध नहीं करते; जो उस पन्थ पर नहीं चलते हैं यानी कि उस पन्थ को स्वीकार नहीं करते हैं जो सच का पन्थ है, और जो उन लोगों को है जिन्हें किताब (कुरान) दी गई है; (और तब तक युद्ध करो) जब तक वे उपहार न दे दें और दीन हीन न बना दिये जाएँ, पूर्णतः झुका न दिये जाएँ।”
(कुरान सूरा ९ आयत २५)
अतः तर्कपूर्वक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राजपूत सरदारों और भील आदिवासियों द्वारा संगठित रूप में हल्दी घाटी में मुगलों के विरुद्ध लड़ा गया युद्ध मात्र एक शक्ति संघर्ष नहीं था। इस्लामी आतंकवाद व आतताईपन के विरुद्ध हिन्दू प्रतिरोध ही था।
अकबर के एक दरबारी इमाम अब्दुल कादिर बदाउनी ने अपने इतिहास अभिलेख, ‘मुन्तखाव-उत-तवारीख’ में लिखा था कि १५७६ में जब शाही फौंजे राणाप्रताप के विरुद्ध युद्ध के लिए अग्रसर हो रहीं थीं तो उसने (बदाउनीने) ”युद्ध अभियान में सम्मिलित होकर हिन्दू रक्त से अपनी इस्लामी दाड़ी को भिगों लेने के विद्गिाष्ट अधिकार के प्रयोग के लिए इस अवसर पर उपस्थित रहे आने में अपनी असमर्थता के लिए आदेश प्रापत करने के लिए शाहन्शाह से भेंट की अनुमति के लिए प्रार्थना की।” अपने व्यक्तित्व के प्रत इतने सम्मन और निष्ठा, और जिहाद सम्बन्धी इस्लामी भावना के प्रति निष्ठा से अकबर इतना प्रसन्न हुआ कि अपनी प्रसन्नता के प्रतीक स्वरूप् मुठ्ठी भर सोने की मुहरें उसने बदाउनी को दे डालीं।
(मुन्तखाब-उत-तवारीख : अब्दुल कादिर बदाउनी, खण्ड II, पृष्ठ ३८३, वी. स्मिथ, अकबर दी ग्रेट मुगल, पृष्ठ १०८)
काफिर होना, मृत्यु का कारण
हल्दी घाटी के युद्ध में एक मनोरंजक घटना हुई। वह विशेषकर अपने सैक्यूलरिस्ट बन्धुओं के निमित्त ही यहाँ उद्धत है।
बदाउनी ने लिखा था- ”हल्दी घाटी में जब युद्ध चल रहा था और अकबर से संलग्न राजपूत, और राणा प्रताप के निमित्त राजपूत परस्पर युद्ध रत थे और उनमें कौन किस ओर है, भेद कर पाना असम्भव हो रहा था, तब अकबर की ओर से युद्ध कर रहे बदाउनी ने, अपने सेना नायकसे पूछा कि वह किस पर गोली चलाये ताकि शत्रु को ही आघात हो, और वह ही मरे। कमाण्डर आसफ खाँ ने उत्तर दिया था कि यह बहुत अधिक महत्व की बात नहीं कि गोली किस को लगती है क्योंकि सभी (दोनों ओर से) युद्ध करने वाले काफ़िर हैं, गोली जिसे भी लगेगी काफिर ही मरेगा, जिससे लाभ इसलाम को ही होगा।”
(मुन्तखान-उत-तवारीख : अब्दुल कादिर बदाउनी, खण्ड II, अकबर दी ग्रेट मुगल : वी. स्मिथ पुनः मुद्रित १९६२; हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ दी इण्डियन पीपुल, दी मुगल ऐम्पायर : सं. आर. सी. मजूमदार, खण्ड VII, पृष्ठ १३२ तृतीय संस्करण, बी. वी. बी.)
इसी सन्दर्भ में एक और ऐसी ही समान स्वभाव् की घटना वर्णन योग्य है। प्रथम विश्व व्यापी महायुद्ध में जब ब्रिटिश भारत की सेनायें क्रीमियाँ में नियुक्त थीं तब ब्रिटिश भारत की सेना के मुस्लिम सैनिकों के पीछे स्थित थे, हिन्दू सैनिकों पर पीदे से गोलियाँ चला दीं, फलस्वरूप बहुत से हिन्दू सैनिक मारे गये। मुस्लिम सैनिकों की शिकायत थी कि जर्मनी के पक्षधर, और जो क्रीमियाँ पर अधिकार किये हुए थे, उन तुर्कों के विरुद्ध वे युद्ध नहीं करना चाहते थे। इस घटना के बाद ब्रिटिशों ने ब्रिटिश भारत की सेना के हिन्दू और मुस्लमान सैनिकों को युद्ध स्थल पर कभी भी एक ही पक्ष में, एक साथ, नियुक्त नहीं किया। इस घटना का वर्णन उस ब्रिटिश अफसर ने स्वयं ही लिखा था जो इस अति अद्युत, और विशिष्ट, तथा इस्लामी, घटना का स्वंय प्रत्यक्ष दर्शी था।
(दी इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी, लण्डन, एम. एस. एस. २३९७)
किन्तु हिन्दुओं ने अपने इतिहास से कुछ भी नहीं सीखा है, अतः ऐसी घटना की पुनरावृत्ति अत्याज्य है। घटना तुलनात्मक रूप में निकट भूत की ही है जिसमें साम्य वादियों की बहुत अधिक कटु भागीदारी है। एक भली भांति सिद्धान्त विशारद साम्यवादी, विखयात नेता, स्वर्गीय प्रो. कल्यान दत्त (सी. पी. आई) ने अपनी जीवनी ”आमार कम्युनिष्ट जीवन” में लिखा था। मुस्लमानों ने अपनी पाकिस्तान की मांग को सम्पन्न कराने के लिए १६ अगस्ट १९४६ को ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही’ प्रारम्भ कर दी। इसे बाद में ”कलकत्ता का महान नरसंहार, महान कत्लेआम, कहा गया।” (दी ग्रेट कैलकट्टा किलिंगस)। ‘जिहाद’ जिसे प्रत्यक्ष कार्यवाही (डायरेक्ट एक्शन) नाम दिया गया, खिदर पुर डौकयार्ड के मुस्लिम मजदूरों ने हिन्दू मजदूरों पर आक्रमण कर दिया। आश्चर्यचकित हिन्दुओं ने वामपंथी टे्रड यूनियन्स की सदस्यता के, जिनकेहिन्दू मुसलमान दोनों ही मजदूर थे कार्ड दिखाकर प्राणरक्षा की भीख मांगी, और कहा कि ”अरे कौमरैडो (साथियों) तुम हमारा वध क्यों कर रहे हो? हम सभी एक यूनियन में हैं। ”किन्तु चूँकि इन मुजाहिदों को इस्लाम का राज्य (दारूल इस्लाम) मजदूरों के राज्य से कहीं अधिक प्रिय है, ”सभी हिन्दुओं का वध कर दिया गया।”
(कल्यान दत्त, ‘आमार कम्यूनिष्ट जीवन’ (बंगाली) पर्ल पब्लिशर्स, पृष्ठ १० प्रथम आवृत्ति कलकत्ता १९९९)
इस विशेष घटना के यहाँ वर्णन करने का मेरा उद्देश्य और आशा है, कि वामपंथी सेना, ”जो व्यावहारिक ज्ञान की अपेक्षा सिद्धान्त बनाने में अधिक सिद्ध हस्त हैं, ”उनके मस्तिष्कों में वास्तविकता, सच्चाई और सामान्य ज्ञान का कुछ उदय हो जाए।
अकबर हिन्दुओं का वधिक
जहाँगीर ने, अपनी जीवनी, ”तारीख-ई-सलीमशाही” में लिखा था कि ”अकबर और जहाँगीर के आधिपत्य में पाँच से छः लाख की
संखया में हिन्दुओं का वध हुआ था।”
(तारीख-ई-सलीम शाही, अनु. प्राइस, पृष्ठ २२५-२६)
गणना करने की चिंता किये बिना, मानवों के वध एवम् रक्तपात सम्बन्धी अकबर की मानसिक अभिलाषा के उदय का कारण, इस्लाम के जिहाद सम्बन्धीसिद्धांत, व्यवहार और भावना में थीं, जिनका पोषण इस्लामी धर्म ग्रन्थ और प्रशासकीय विधि विज्ञान के नियमों द्वारा होता है।
No comments:
Post a Comment