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Saturday, March 30, 2013

भारत में इस्लामी जिहाद-इतिहास के पन्नों से (Part – 4)

बाबर (१५१९-१५३०)
भारत में इस्लामी आक्रमणकर्ताओं के मुगल साम्राज्य के संस्थापक, बाबर, ने ‘मुजाहिद’ की पदवी उस समय प्राप्त की जब उसने उत्तरपश्चिम सीमा प्रान्त के, एक छोटे से राज्य, बिजनौर, में अपनी भारतविजय के प्रारम्भिक काल १५१९ में आक्रमण किया। उसने अपनी जीवनी, बाबरनामा, में इस घटना का बड़े आनन्द व हर्षोल्लास, के साथ वर्णन किया था।
हिन्दू शवों के सिरों से मुस्लिम आक्रान्ता बाबर द्वारा बनवाई गई मीनारें
‘चूंकि बिजौरीवासी इस्लाम के शत्रु व विद्रोही थे, और चूंकि उनके मध्य विधर्मी और विरोधी रीति रिवाज व परम्परायें प्रचलित थीं, उनका सामान्य, यानी कि सर्व समावेशी, नर संहार किया गया। उनकी पत्नियों और बच्चों को बन्दी बना लिया गया। एक अनुमान के अनुसार तीन हजार व्यक्ति मौत के घाट उतारे गये, नर्क पहुँचाये गये। दुर्ग को विजयकर, हमने उसमें प्रवेश किया और उसका निरीक्षण किया। दीवालों के सहारे, घरों में, गलियों में, गलियारों में, अनगित संखया में हिन्दू मृतक पड़े हुए थे। आने वाले व जाने वाली सभी को शवों के ऊपर से ही जाना पड़ा था…मुहर्रम के नौवें दिन मैंने आदेश दिया कि मैदान में हिन्दू मृतक शिरो की एक मीनार बनाई जाए।’
(बाबरनाम अनु. ए. एस. बैवरिज, नई दिल्ली पुनः छापी १९७९, पृष्ठ ३७०-७१)
हिन्दू व्यक्तियों के शिरों से शिकार खेलने की अपने पूर्वज तिमूर की अभिरुचि में बाबर भागीदार था। दोनों ही गाज़ियों को, कटे हुए हिन्दू शिरों की मीनारें खड़ी करने की एक असाधारण लगन थी।
बाबर गाज़ी हो गया
जवाहर लाल नेहरू से लेकर जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय एवम्‌ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के सैक्यूलरवादियों तक सभी ने बाबर को एक दक्ष, चतुर, भावुक कवि चित्रित किया है। हमें लगा कि बाबर के काव्य का एक नमूना प्रस्तुत कर देना उपयोगी और आनन्द कर होगा। निम्नलिखित, उद्धत, काव्य से पूर्णतः स्पष्ट है, उसका अर्थ करना निरर्थक है, क्योंकि उसका पाठ स्वयं ही सर्वाधिक अर्थपूर्ण व स्पष्ट है। यथा-
‘इस्लाम के निमित्त मैं जंगलों में भटका।
मूर्ति पूजकों व हिन्दुओं के विरुद्ध प्रस्तुत हुआ।
शहीद की मृत्यु स्वयं पाने का निश्चय किया,
अल्लाह का धन्यवाद कि मैं गाजी हो गया।’
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ-५७४-७५)
बाबरी मस्जिद
१५२८-२९ में, बाबर के आदेशानुसार, मुगल सैन्य संचालक, मीर बकी ने, भगवान राम की जन्मभूमि की स्मृति में बने, अयोध्या मन्दिर, का विध्वंस कर दिया और उसके स्थान पर एक मस्जिद बनवा दी।’
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ ६५६, और मुस्लिम स्टेट इन इण्डिया, के. एस. लाल)
बाबरी मस्जिद पर एक शिला लेख : ‘शहंशाह बाबर के आदेशानुसार, उदार हदय मीरबकी ने फरिश्तों के उतरने का यह स्थान बनवाया।’
गुरु नानक देव द्वारा बाबर की निन्दा
भारत के महानतम सन्तों में से एक महान सन्त गुरु नानक देव बाबर के समकालीन ऋषि थे। हिन्दुओं की अवर्णनीय यातनाओं का ध्यान कर वे (गुरु नानक देव) इतने द्रवित हुए कि उन्होंने संसार के उत्पत्ति कर्ता, परमपिता परमेश्वर से, हिन्दुओं की घोर पीड़ा से द्रवित हो, प्रश्न किया कि हे प्रभो! आप ऐसे नर संहार, ऐसी यातनाओं और ऐसी पीड़ाओं को किस प्रकार सहन कर पाते हैं। उन्होंने कहा- ‘ईश्वर ने अपने पंखों के नीचे खुरासन लगा रखा है यानी कि समधिस्थ हो गये हैं और भारत को बाबर के अत्याचारों के लिए खुला छोड़ दिया है।’
‘हे जीवन दाता! आप अपने ऊपर कोई कैसा भी दोष नहीं लपेटते अर्थात्‌ सदैव ही निर्लिप्त रहे आते हो। क्या यह मृत्यु ही थी जो मुगल के रूप् में हमसे युद्ध करने आई? जब इतना भीषण नर संहार हो रहा था, इतनी भीषण कराहें निकल रही थीं, क्या तुम्हें पीड़ा नहीं हुई?
(गुरु नानक, पृष्ठ १२५, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार)
कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया नामक ग्रन्थ में आचार्य जदुनाथ सरकार ने लिखा था- ‘अपने समकालीन मुसलमानों की, गुरुनानक ने भर्त्सना की थी और उन्हें नीच, पतित व पथ भृष्ट कहा था।’
(खण्ड ४, अध्याय VIII, पृष्ठ २४४)
विजयानगरम्‌ का विनाश (१५६५)
इस्लामी आतंकवाद व गुण्डगर्दी के इतिहास में दक्षिण भारत में विजया नगरम्‌ राजधानी का विध्वंस सम्भवतः सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थानों के विध्वंसों में से एक है। काम्पिल के राजा के पुत्रों, हरिहर और बुक्का, ने इस राजधानी विजया नगरम्‌ को स्थापित किया था जिसे मुहम्मद बिन तुगलक ने धर्मान्तरित कर इस्लामी बना दिया था। बाद में स्वामी विद्यारण्य के प्रोत्साहन व मार्ग दर्शन में उन्होंने तुगलक राज्य को, उलट दिया, दरबार वालों को भगा दिया, समाप्त कर दिया और हिन्दू धर्म में पुनः धर्मान्तरित कर दिया और दक्षिण में मुस्लिम शक्ति व साम्राज्य के विस्तार को रोकने के लिए, विजया नगर राज्य की स्थापना की। यह राजधानी अपने समय की विश्व भर में सर्वाधिक सम्पन्न राजधानियों में से एक थी-जो स्वयं में सौन्दर्यकला का एक आश्चर्य ही है। इस हिन्दू राज्य में धन, सम्पदा, संस्कृति असाधारण रूप से प्रजातांत्रिक और उदार मानव समाज, का प्रभु का आशीर्वाद था। यह हिन्दू समाज, यूनाइटेड नेशन्स द्वारा विश्व व्यापी मानवाधिकारों की घोषणा केचार सौ वर्ष पहले से ही मानव मूल्यों व मानवाधिकारों को स्वीकार करता था, आदर करता था, और पोषण करता था। सम सामयिक भारत में भ्रमणार्थ आये यात्री, दुआर्ते बारबोसा के शब्दों में,
”विजया नगर के राजाओं ने आज्ञा दे रखी थी कि कोई भी व्यक्ति, कभी भी, कहीं भी आये या जाये; और बिना किसी कैसी भी रुकावट, असुविधा, व यातना के, स्वेच्छानुसार अपने मतानुसार अपना जीवन यापन करे। उसे यह पूछने या बताने की आवश्यकता नहीं थी कि वह ईसाई, यूहूदी, मूर वा विधर्मी है। वह जो भी है सुख से स्वेच्छानुसार रहे। सर्वत्र सभी द्वारा समता, न्याय और आत्मीयता ही देखने को थी।”
(दुआर्ते बारबोसा की पुस्तक, खण्ड १, पृष्ठ २०२)
उदाहरणार्थ, ”(१४१९-१४४९) में देव राय ने आदेश निकाला कि मुसलमानों को सेवाओं में रखा जाए, उन्हें सम्पत्तियाँ आवण्टित कीं, और विजया नगर में एक मस्जिद बनावाईं। राम राजा के शासनकाल में जब एक बार मुसलमानों ने तुर्क वाड़ा क्षेत्र की एक मस्जिद में एक गाय का वध किया और राजा के भाई तिरुमल के ही नेतृत्व में, उत्तेजित अफसर और सरदारों ने, राजा से प्रतिवदेन कर राजा से शिकायत की, तो भी राजा अपनेविचारों व निश्चय से डिगे नहीं, और प्रतिवेदन कर्ताओं के सामने झुके नहीं, और उत्तर दिया कि वह किसी की धार्मि मान्यताओं में हस्तक्षेप नहीं करेगा, और घोषित किया कि वह अपने सैनिकों के शरीरों का स्वामी है, उनकी आत्माओं का स्वामी नहीं।”
(रौयल एशियाटिक सोसायटी के बम्बई शाखा का जर्नल, खण्ड XXII, पृष्ठ २८)
अविश्वासियों के धोखा देने के लिए इस्लाम की अनुमति
एक से अधिक युद्धों में भी उसे हराकर राम राजा ने विजयनगर के निकट के मुस्लिम शासक, सुल्तान अली आदिल शाह के साथ शांति स्थापित कर ली। किन्तु सुल्तान ने मूर्ति पूजकों अविश्वासियों (गैर-मुसलमानों) के साथ धोखाधड़ी कर देने सम्बन्धी कुरानी (३ः११८) आज्ञा का पालन करते हुए दक्षिण भारत की मुस्लिम रियासतों का एक संघ बनाकर, इस वस्तुतः पन्थ निरपेक्ष राज्य के विरुद्ध जिहाद कर दिया। किन्तु कहानी का अन्त यहाँ ही नहीं हो जाता है। तेईस जनवरी पन्द्रह सौं पैंसठ को ताली कोट के यृद्ध के अन्तिम दिन विजय नगर की सेना ने उपयुक्त अवसर पर त्वरित गति से आक्रमण कर दिया। परिणामस्वरूप मुसलमानों की संघीय सेना के बायें और दायें भाग की सेनाएं बुरी तरह अस्त व्यस्त हो गईं औरसेनानायक समर्पण करने को, और वापिस जाने को, प्रस्तुत हो गये। तभी हुसेन ने स्थिति बचा ली। तब युद्ध पुनः प्रारम्भ हो गया और दोनों ही पक्षों की भीषण क्षति हुई। युद्ध अधिक देर नहीं चला, कयोंकि राम राम राजा के दो मुसलमान सेना नायकों द्वारा धोखा देकर पक्ष त्याग देने के कारण युद्ध के अन्त का भविष्य निश्चित हो गया। कैसर फ्रैडरिक, जिसने उस समय विजय नगर को देखा था, ने कहा था कि इन दोनों सेना नायकों के नेतृत्व में प्रत्येक के अधीन सत्तर से अस्सी हजार योद्धा थे, इनके पक्ष तयाग व धोखा धड़ी के कारण ही विजया नगर की हार हुई। राम राजा शत्रुओं के हाथ लग गया और हसन के आदेशानुसार उसका शिरच्छेदन कर दिया गया।”
(आर. सी. मजूमदार सं. हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ दी इण्डियन पीपुल, बी वी बी, खण्ड VII पृष्ठ ४२५)
नरसंहार, लूटपाठ, डकैती और विध्वंस
अब्बास खान शेरवानी ने अपने ऐतिहासिक अभिलेख तारीख-ई-फरिश्ता में लिखा- ”मुस्लिम मित्रों ने हिन्दुओं का पीछा किया और सुल्ता के साथ इतनी मात्रा में कत्ल किया कि रक्त बहने लगा और नदी का पानी रक्त रंजित हो गया। सर्व श्रेष्ठ अधिकारियों ने गणना की थी कि पीछा करने और वधकार्य में एक लाख से भी से अधिक अविश्वासी, हिन्दू व्यक्तियों का वध किया गया था। लूटपाट इतनी व्यापक और अधिक थी कि संघीय सेना का प्रत्येक असैनिक व्यक्ति सोने, जवाहरात, आयुध, घोड़े और दास सभी से बेहद धनी हो गया, उन्होंने लूटपाट की, प्रत्येक प्रमुख भवन को गिराकर भूमि सात कर दिया, और हर सम्भव प्रकार का अत्याचार किा।”
(तारीख-ई-फरिश्ता, अब्बास खान शेरवानी, एलियट और डाउसन, खण्ड IV, पृष्ठ ४०७-०९)
युद्ध की समाप्ति के उपरान्त मुसलमानों ने कुरान के वायदे के अनुसार जन्नत में स्थाई स्थान पाने और बहत्तर हूरें प्राप्त कर लेने के उद्‌देश्य से, निरपराध, हिन्दुओं का नरसंहार किया। कुरान की प्रतिज्ञा इस प्रकार है निश्चय ही पवित्र लोग सफल होंगे दूसरे शब्दों में जहाँ तक पवित्र लोगों का प्रश्न है, वे निश्चय ही सफल होंगे, वहाँ बाग होंगे और अंगूरों के बगीचे, और उऊचे उठे हुए उरोजों वाली हूरें साथी के रूप में९ एक सत्य रूप में भरा हुआ प्याला।”
(सूरा ७८ आयत ३१-३४)
दार-उल-हरब का विनाश
”तीसरे दिन, अन्त का प्रारम्भ हुआ। विजयी मुसलमानों ने पूर्ण निर्ममतापूर्वक हिन्दू लोगों को काटा, कत्ल किया, मन्दिरों और पूजा घरों को तोड़ डाला, और राजाओं के आवासों (राजमहलों) का इतनी असभ्यता, बर्बरता पूर्ण बदले की भावना प्रदर्शित करते हुए, विनाश किया कि जहाँ शाही भवन हुआ करते थे उन स्थानों की पहचान के लिए वहाँ अवशेषों के ढेर मात्र रह गये। उन्होंने प्रतिमाओं का ध्वंस कर दिया, और एक विशाल शिला से ही निर्मित, नरसिंह, के अंगों को भी तोड़ देने में सफल हो गये। ऐसा नहीं लगता था कि उनसे कुछ भी बच पया हो। नदी के निकट विट्‌ठल स्वामी मन्दिर के अंश रूप में बने, आकर्षक, महिमा पूर्ण ढंग से सजे भवनों को विनष्ट करने के लिए उन्होंने व्यापक व विशालकाय आग लगा दी, और उनके अनुपम रूप में सुन्दर पत्थर की भवन निर्माण कला का ध्वंस कर दिया। अग्नि और तलवारों, सब्बलों और कुल्हाड़ियों द्वारा एक दिन के बाद दूसरे दिन इसी प्रकार वे अपने अभीष्ट विनाश का काम करते रहे। विश्व के इतिहास में सम्भवत कभी भी ऐसे विनाश का काम नहीं किया गया है और विनाश कार्य इतनी आकस्मिकता के साथ वही भी इतने सुन्दर व ऐश्वर्यवान शहर पर; जो एक दिन धनी और सम्पन्न, जनसंखया से परिपूर्ण था, और जो एक दिन सम्पन्नता के शिखर पर था, और दूसरे ही दिन, अधिकार मेंले लिया गया, पूर्णतः असभ्यता पूर्ण नरसंहार के साथ नष्ट कर दिया गया, खण्डहरों में बदल दिया गया, और ऐसे असभ्य, बर्बर, आतंकपूर्ण व यातनापूर्ण वातावरण के मध्य कि उसका वर्णन भी न किया जा सके।”
(रौबर्ट स्वैल : ऐ फौरगौटिन ऐम्पायर, पृष्ठ १९९-२००, न्यू देहली, पुनः मुद्रित १९६६)

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