इस प्रश्न का उत्तर ढूँढने से पहले, यह जान लेना उपयोगी होगा कि यह
मैक्समूलर कौन था? जर्मन फ्रेडरिक मैक्समूलर का जन्म ६ दिसम्बर १८२३ को
डेसो नगर में हुआ।उसके पिता विलहेल्म म्यूलर (१७९४-१८२७) एक
पुस्तकालयाध्यक्ष थे। उसने १८४१ में निकालाई स्कूल लिपिजिग से, हाईस्कूल और
अठारह महीनों से भी कम समय में सितम्बर १८४३ को 'भाषा विज्ञान' में
लिपिजिग विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की (चौधरी, पृ. ३३)।
उसे अध्यापक हरमैन ब्रोरवोस (१८०६-१८७७) ने उसे और अधिक संस्कृत पढ़ने की
प्रेरणा दी। परंतु उसके वैदिक या लौकिक संस्कृत के उच्च ज्ञान प्राप्त करने
के कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं।
अप्रैल १८४४ में, वह फ्रान्ज़ बाप
से तुलनात्मक व्याकरण एवं भाषाविज्ञान और फ्रेड्रिक श्लेगल से दर्शन
शास्त्र पढ़ने के लिए बर्लिन विश्वविद्यालय गया तथा १० मार्च १८४५ को पेरिस
में प्रोफेसर यूगोन बर्नोफ (चौधरी, पृ. ४५) के पास ऋग्वेद पढ़ने गया। यहाँ
उसने बर्नोफ के सायण भाष्य आधारित वेद पर व्याखयान सुने। उसे यहाँ फ्रेन्च
भाषा न आने के कारण कठिनाई रही तथा जीविका के लिए प्राच्यविदों के लिए
संस्कृत के प्राचीन ग्रन्थों का, मिलान करता था (चौधरी, पृ. ४७)। इधर इसी
समय इंग्लैंड में प्रो. एच.एच. विल्सन को एक युवा संस्कृत विद्वान की
आवश्यकता थी, और बर्नोफ ने इसके लिए मैक्समूलर का नाम सुझाया। बेरोन जे.
बान बुनसन, जोलंदन में पू्रशियन मिनिस्टर तथा प्रभावशाली व्यक्ति था, ने
मैक्समूलर को पिता समान संरक्षण दिया। उसने 'क्रिश्चियनिटी एण्ड मैनकाइंड'
पुस्तक भी लिखी थी। उसके सहयोग से मूलन जून १८४५ को लंदन पहुँच गया तथा
जीवन भर विभिन्न पदों पर ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी से जुड़ा रहा, जहाँ उसने
विशाल साहित्य लिखा |
(तालिका १)
तालिका-१. मैक्समूलर द्वारा रचित साहित्य
वर्ष
|
पुस्तक का नाम
|
१८४४ | हितोपदेश (जर्मन भाषा में अनुवाद) |
१८४७ | मेघदूत (कविता में जर्मन भाषा में अनुवाद) |
१८४७ |
बंगाली का भारत की जनजातीय भाषाओं से सम्बन्ध
|
१८४९-७३ | ऋग्वेद एण्ड सायणाज़ कमेंट्री |
१८५३ | ऐसेज ऑन टुरानियन लेंग्वेज़िज़ |
१८५३ | ऐसेज़ ऑन इन्डियन लौजिक |
१८५४ |
प्रपोजल फॉर ऐ यूनीफार्म मिशनरी एल्फाबेट
|
१८५४ | लेंग्वेज् ऑफ दी सीट ऑफ पॉवर |
१८५६ | ऐसेज ऑन कम्पेरेटिव माईथोलोजी |
१८५७ | ड्यश्चेलीबे (१४ वाँ संस्करण, १९०१, जरमन में) |
१८५७ | बुद्धिस्ट पिलग्रिम्स |
१८५९ | जर्मन क्लासिक्स |
१८५९ | दी हिस्ट्री ऑफ ऐंशिएन्ट संस्कृत लिटरेचर |
१८६१ | लेक्चरर्स ऑन दी साइंस ऑफ लैंग्वेज, खंड (१४ वाँ संस्करण, १८८६) |
१८६२ | ऐंशिएन्ट हिन्दू ऐस्ट्रोनौमी |
१८६४ | लेक्चर्स ऑन दी साइंसऑफ लैंग्वेज, खंड-२ |
१८६६ | हितोपदेश टैसट्स-नोट्स |
१८६६ | संस्कृत ग्रामर |
१८६७-७५ | चिप्स फ्रॉम ए जर्मन वर्कशॉप, (४ खंड) |
१८६८ | स्टे्रटिफिकेशन ऑफ लैंग्वेज |
१८६९ | ऋग्वेद ट्रान्सलेखन (खंड १) |
१८६९ | श्रग्वेद प्रातिशाक्य |
१८७० | धम्मपद अनुवाद |
१८७१ | लैटर्स ऑन वार |
१८७३ | ऋग्वेद इन संहिता एण्ड पद टैक्स्टस |
१८७३ | डारविन्स फिलॉसफी ऑफ लैंग्वेज़ |
१८७३ | इन्ट्रोडक्शन टू सांइस ऑफ रिजीजन |
१८७५ | जे.बी. वासडोव (जर्मन में) |
१८७५ | शिलर्स ब्रीफवेचलन (जर्मन में) |
१८७६ | ऑन स्पैलिंग |
१९७६ में यूनीवर्सिटी से अवकाश प्राप्ति के बाद | |
१८७८ | हिबर्ट लेक्चर्स |
१८७९ | उपनिषद्स ट्रान्सलेशन |
१८८१ | सेलेक्टिड ऐसैज़ |
१८८१ | कान्ट्स क्रिटिक, ट्रान्सलेशन |
१८८२ | इन्डिया, व्हाट केन इट टीच अस! (सात लेक्चर्स) |
१८८४ | बायोग्राफिकल ऐसेज़ |
१८८७ | साइंस ऑफ थॉट |
१८८७ | ला कारिटा ऑफ ऐंड़िया डेल सारटो |
१८८८ | बायोग्राफीज ऑफ वर्ड्स |
१८८८ | साइंस ऑफ थॉट, (तीन लेक्चर्स) |
१८८८-९२ | ग्रिफोर्ड लेक्चर्स (तीन) |
१८८९ | साइंस ऑफ लैंग्वेज (तीन लेक्चर्स) |
१८९०-९२ | ऋग्वेद (न्यू एडीशन) |
१८९३ | आपस्तम्ब सूत्र (अनुवाद) |
१८९४ | चिप्स फ्रॉम ए जरमन वर्कशॉप (४ खंड रिवाइज्ड) |
१८९७ | साइंस ऑफ माइथोलौजी (२ खंड) |
१८९८ | औल्ड लैंगसिने (खंड १, जर्मन में) |
१८९८ | रामकृष्ण |
१८९९ | औल्ड लैंग सिने (खंड-२, जर्मन में) |
१८९९ | सिक्स सिस्टम्स ऑफ इंडियन फिलॉसफी |
१८९९ | डास फरडेवुली (जर्मन में) |
१९०० | ट्रान्सवाल वार |
१९०१ |
ऑटोबायोग्राफी एण्ड लास्ट ऐसेज़
(२ खंड- मरणोपरान्त प्रकाशित)
|
अब प्रश्न उठता है कि ब्रिटिश सरकार को वेद भाष्य, वह भी मैक्समूलर द्वारा ही कराने की आवश्यकता क्यों हुई?
वे
कौन सी परिस्थियाँ और विवशताऐं थीं जिनके कारण ब्रिटिश शासकों और ईस्ट
इंडिया कम्पन को १८४७ में ऋग्वेद के अंग्रेजी में भाष्य कराने की आवश्यकता
हुई?
1. वे कौन सी
परिस्थितियाँ और विवशताएँ थी जिनके कारण ब्रिटिश शासकों और ईस्ट इंडिया कम्पनी को
१८४७ में ऋग्वेद के अंग्रेजी में भाष्य कराने की आवपश्यकता हुई ?
2. क्या उस समय ऋग्वेद के, सायण के अलावा, अन्य विद्वानों के भाष्य नहीं थे?
3.
मैक्समूलर जैसे संस्कृत और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में अल्पज्ञ को,
ऋग्वेद जैसे रहस्यमय और जटिल ग्रंथ का अनुवाद करने को क्यों चुना गया? जबकि
ऑक्सफोर्ड एवं जर्मनी में अनेक अधिक विद्वान उपलब्ध थे।
4.
ब्रिटिश सरकार ने मैक्समूलर और उसके भाष्य का इतना व्यापक प्रचार क्यों
किया? उसे हिन्दुओं और हिन्दू धर्म शास्त्रों का परम हितैषी और वेदां का
महान विद्वान कहकर इतना मान-सम्मान और खयाति क्यों दी?
इन प्रश्नों का उत्तर निम्नलिखित तथ्यों एवं परिस्थितियोंके आधार पर ढूँढा जा सकता हैः
(1)
ऋग्वेद एक विशाल गं्रथ है। इसमें दस मंडल, १०२८ सूत्र, १०५८० मंत्र और
प्राचीन वैदिक संस्कृत के लगभग १५३८२६ शब्द हैं। इसके अंग्रेजी में अनुवाद,
सम्पादन और प्रकाशन करने के लिए एक सक्रिय विद्वान को कम से कम ८-१० वर्ष
तक लगेंगे। अतः उन्हें एक ऐसा व्यक्ति चाहिए था जो इस कार्य के लिए इतना
समय लगा सके, भले ही वह किसी वरिष्ठ व्यक्ति की अपेक्षा कम योग्यता वाला
हो।
(2) वह व्यक्ति गैर-ब्रिटिश हो क्योंकि उस समय भारत में ब्रिटिशों के विरूद्ध भारी आक्रोश, असंतोष और विरोध था।
(3)
वह व्यक्ति ब्रिटिश, ईसाई मिशनों, मिशनरियों, कूटनीतिज्ञों और ऑक्सफोर्ड
यूनिवर्सिटी की नीतियों और योजनाओं के अनुसार ऋग्वेद का अंग्रेजी में भाष्य
करने को तैयार हो।
अब मैक्समूलर की योग्यताओं को ऊपर लिखीं शर्तों और परिस्थितियों की दृष्टि से देखिएः
(१)
निश्चय ही प्रो. विल्सन मैक्समूलर की अपेक्षा कहीं अधिक योग्य था। लेकिन
सर्व प्रथम तो वह काफी अधिक आयु (६० वर्ष) का था; दूसरे वह एक अंग्रेज था,
और उस कौम का था, जो पहले ही भारत को गुलाम बना चुकी थी और अब उसके
लोगों-हिन्दुओं को ईसाई बनाना चाहता थाऔर तीसरे वह पहले से ही
संस्कृत-प्रोफेसर की बोडन येचर पर आसीन था। इसलिए किसी ने भी इस संभावना को
नहीं माना कि इस पद पर रहते हुए प्रोफेसर विलसन वेदभाष्य के लिए पर्याप्त
समय निकाल सकेंगे। एक दूसरे अंग्रेज संस्कृत विद्वान जोन म्यूर था जो पहले
से ही ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में था। उसके पास इस कार्य के लिए समय
नहीं था।
इनके अलावा गैर-ब्रिटिश में से पैरिकस
में यूगौन बर्नोफ पहले से ही प्रोफेसर था और इस काय्र के लिए काफी बड़ी उम्र
का भी था। जर्मनी में उस समय फ्रांज बॉप (१७९१-१८६७) पहले से ही 'औरियंटल
और जर्मन फिलोसफी' को प्रोफेसर था एवं ५६ वर्ष का था। इसी प्रकार मैक्समूलर
आ संस्कृत शिक्षक फ्रेडरिक अर्नोल्ड ब्रोरवौस (१८०६-१८७७) लिपिजिग
विश्वविद्यालय में संस्कृत का प्रोफेसर था तथा ओटो बोथलिंग (१८१५-१९०४)
सेन्टपीटर्सबर्ग में प्रोफेसर था। इन विद्वानों के अलावा रुडोल्फ वॉन रॉथ
(१८२१-१८८१) और थ्योडोर गोल्डस्टकर (१८२१-१८७२) मैक्समूलर के समकालीन थे
फलस्वरूप इनमें से कोई भी कंपनी द्वारा नहीं चुना गया।
इन
सब कारणों के फलस्वरूप प्रतिस्पर्धा के मैदान में केवल मैक्समूलर ही रह
गया। अन्त में ईस्ट इंडिया कम्पनी केडाइरेक्टरों ने अपने उद्देश्य की
पूर्ति के लिए मैक्समूलर को चुना। इन कारणों के अलावा, मैक्समूलर को एक मन
पसंद नौकरी की अत्यंत
आवश्यकता थी। साथ ही मैक्समूलर भी एक
कट्टर ईसाई था जो कि क्राइस्ट के लिए, अपनी अन्तरात्मा के विरूद्ध मन मसोस
कर भी, किसी हद तक जाने को तैयार हो सकता था।
कम्पनी द्वारा चयन पर असीम प्रसन्नता
ईस्ट
इंडिया कम्पनी ने, १५ अप्रैल १८४७ को, अपनी नीतियों और योजनाओं के अनुसार
मैक्समूलर द्वारा ऋग्वेद का अंग्रेजी में भाष्य कराने का निर्णय लिया। इस
निर्णय के दूसरे ही दिन मैक्समूलर ने अपनी माँ को एक पत्र लिखा जिससे उसकी
प्रसन्नता और उत्तेजना प्रगट होती हैः
"April
15, 1847-5, Newman's
Row, Lincoln Inn, Fields-At last the long conflict is decided, and I have
carried off, so to speak, the prize ! I can yet hardly believe that I
have at last got what I have struggled for so long, entire independence, and I
am filled with the thought of how much more I have gained than I deserved I am
to hand over to the Company, ready for the press, fifty sheets each year-the
same I had promised to Samter in Germany; for this I have asked £ 200 a year, £ 4 a sheet. They have been considering the matter since December,
and it was. only yesterday that it was officially settled. I have to read the
corrections, and shall have plenty of time left to devote to my studies As the
work will be above 400 sheets, I have a certain position for the next
eight years and the work is really so light I could take another post with it.
This, in fact, has been already offered to me, i.e. a place as librarian at the
British Museum with £150 a year. But on Bunsen's
advice I have refused this and now what do you say, dearest mother? Is it not
more than I could have ever expected ? But only think, I had not a penny left, and that in
spite of even) effort to make a little money. I should have had to return to Germany
had not Bunsen stood by me and helped by word and deed."
(LLMM, Vol. 1, pp. 60-61)
अर्थात्
''१५ अप्रैल १८४७, न्यूमैनस रौ, लिंकन इन, फील्डस; आखिर में उस लम्बे
संघर्ष पर फैसला हो गया और मैंने बाजी मार दी यानी मुझे पुरस्कार मिल
गया।मुझे अब भी यकीन नहीं होता ेि अंत में मुझे वह सब मिल गया जिसके कलिए
मैंने लंबे समय से संघर्ष किया, संपूर्ण आजादी और मेरा मन इस विचार से भर
गया है कि मुझे उससे कितना ज्यादा मिला है, जितने के लिए मैं योग्य
हूँ........ मुझे कम्पनी को प्रेस के लिए तैयार पचास शीटें प्रति वर्ष देनी
होंगी.......... इसके लिए मैंने दो सौ पौंड प्रतिवर्ष मांगे थे यानी चार
पौंड प्रति शीट। वे इस विषय पर दिसम्बर (१८४६) से विचार कर हे थे और केवल
कल ही मुझे आधिकारिक रूप से पता चला है कि मामला (मेरे पक्ष में) तय हो गया
है। मुझे गलतियों को पढ़कर सुधारना है। अतः मेरे पास अपने अध्ययन के लिए
पर्याप्त समय बचेगा........ क्योंकि सारा काम ४०० शीटों से अधिक का होगा।
अतः मुझे अगले आठ वर्षों तक के लिए निश्चित काम मिल गया है और वास्तव में
कार्य इतना हल्का है कि इसके साथ में एक और पद संभाल सकता हूँ और ब्रिटिश
म्यूजियम में लायब्रेरियन का पद एक सौ पचास पौंड प्रति वर्ष का मुझे मिल भी
गया है। लेकिन बुनसन के परामर्श पर मैंने वह काम अस्वीकार कर दिया
है......... मेरी सबसे प्यारी माँ, अब तुम इस पर क्या कहती हो?
.........लेकिन जरा सोचोमेरे पास एक पैनी भी नहीं बची थी, वह भी जरा-सा भी
धन कमाने के हर संभव प्रयास करने पर भी। यदि बुनसन मेरे साथ वचन और कर्म
से खड़ा न होता और सहायता न करता तो मुझे विवश होकर जर्मनी लौटना पड़ता।
(जी.प. खंड १, पृ. ६०-६१)।
उपरोक्त
पत्र से सुस्पष्ट है कि मैक्समूलर स्वंय मानता है कि (१) उसे अपनी योग्यता
और आशा से कहीं अधिक मिला है; (२) ऋग्वेद का भाष्य एक हल्का-फुल्का काम
है। क्योंकि शायद उसने विचारा हो कि उसके भाष्य को जाँचने और मूल्यांकन
करने वाला कोई अन्य नहीं है, इसलिए उसका लिखा सब कुछ स्वीकार्य होगा। लेकिन
स्टुअर्ट पिगौट के अनुसार
"The Rigveda is a curious document…… The language is elaborated and self
consciously literary, and the composition, based on syllabic verseform is
often
extremely complicated-it is a laborious and complicated anthology."
(Prehistoric
India, pp. 256-68)
अर्थात्
''ऋग्वेद एक रहस्यमय ग्रंथ है........ इसकी भाषा परिष्कृत, विवेकपूर्ण एवं
साहित्यिक है और उसकी रचना छन्दमयी होने के कारण अक्सर अत्यन्त जटिल है''
(प्रीहिस्टोरिक इंडिया, पृ. २५६-६८)
केवल
पिगौट ही नहीं बल्किप्राचीन काल से अब तक सभी प्राच्य विद् इस बात पर
सहमत हैं कि ऋग्वेद की संविरचना अत्यंत पेचीदा है और इसके शुद्ध अनुवाद के
लिए वैदिक व्याकरण और प्राचीन भारतीय परम्पराओं के ज्ञान सहित वैदिक
संस्कृत भाषा के गहन अध्ययन की आवश्यकता है जबकि विद्वत्ता मैक्समूलर के
पास कभी भी नहीं थी। लेकिन मैक्समूलर जैसे ढोंगी व धोखेबाज अनुवादक और
छद्मवेशी लेखक के लिए यह काम निश्चय ही हल्का-फुल्का हो सकता है।
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