यूरोप में सोलहवीं सदी
तक संस्कृत साहित्य के प्रति कोई रुचि न थी। सत्रहवीं सदी के मध्य में
हेनरिथ रॉथ(१६२०-१६६८) नामक जर्मन जैसुआइट पादरी आगरा आया और मिशनरी कार्य
के लिए सबसे पहले उसे संस्कृत सीखी एवं १६६२ में संस्कृत व्याकरण पर पुस्तक
लिखी। यहाँ संस्कृत साहित्य के प्रति तीव्र जिज्ञासा और वैचारिक उत्कंठा
अठाहरवीं सदी के अंत और उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में भारत में धार्मिक और
राजनैतिक कारणों से उत्पन्न हुई। १७५७ में पलासी के युद्ध के बाद भारत में
अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो गया। तब गवर्नर वारेन हेस्टिंग्ज ने
प्रशासनिक और कानूनी दृष्टि से भारतीयों के रीति रिवाज और धार्मिक आस्था
जानने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों को संस्कृत सीखने की प्रेरणा दी।
परिणामस्वरूप यहाँ कॉलेज खोले गए और १७८४ में कलकत्ते में 'एशियाटिक
सोसायटी ऑफ बंगाल' की स्थापना की गई। चार्ल्स बिल्किन्स पहला अंग्रेज
अधिकारी था जिसने बनारस में संस्कृत भाषा सीखी और १७८५ में श्री
मद्भागवद् गीता, १७८७ में हितोपदेश और १७९५ में महाभारत के
शाकुन्तलोपखयान का अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित किया। जब १७६३ में विलियम
जोन्स को ब्रिटिश सेटिलमेंट का मुखय न्यायाधीश नियुक्त किया गया तो उसने
संस्कृत सीखी और १७८९ में महाकवि कालीदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम् और १७९४
में मनुस्मृति का अंग्रेजी में अनुवाद किया। इसी समय (१८०२) दाराशिकोह के
फारसी में, उपनिषदों का फ्रेंच लेखक एन्क्वेरिल डू पेरोन (१७२१-१८०५)
द्वारा किया गया लेटिन अनुवाद प्रकाशित हुआ। इन साहित्यिक और दार्शनिक
ग्रंथों ने यूरोप, और विशेषकर जर्मनी में, संस्कृत भाषा और साहित्य के
प्रति अभूतपूर्व जागृति एवं जिज्ञासा पैदा कर दी।
आगस्त
विलहेम श्लेगल, (बोन यूनीवर्सिटी) जर्मनी, में पहला संस्कृत प्रोफेसर
नियुक्त हुआ और उसका छोटा भाई फ्रेडरिक श्लेगल दोनों ही भारतीय दर्शन व
साहित्य के अनन्य प्रशंसक थे। एक दूसरे जर्मन संस्कृत विद्वान विल्हेम
हम्बोल्ड और ऑगस्ट श्लेगल ने मिलकर भगवद् गीता का जर्मन में भाष्य
प्रकाशित किया। तीसरे प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक अर्थर शोपेन७हावर ने
उपनिषदों को ''मानव बुद्धिमत्ता की सर्वोत्तम कृति एवं 'अतिमानवीय चिन्तन'
कहा। उसने आगे लिखा'' "It
is the most satisfying and elevating reading of Upanishads which is possible in
the world: it has been the solace of my life and will be the solace of my
death." अर्थात् जीवन में इनका (उपनिषदों का) पढ़ना अत्यंत संतोषजनक और प्रेरणादायक है।ये मेरे जीवन में सान्तवनादायी हैं और मृत्यु में भी सान्त्वनाकारी रहेंगे।
संस्कृत अध्ययन के विभिन्न उद्देश्य
इतने
प्रेरणादायक उद्गारों को पढ़कर १९वीं सदी के जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन आदि
देशों के अनेक विद्वानों ने भारत के प्राचीन संस्कृत साहित्य के अध्ययन एवं
शोध् में अपना सारा जीवन लगा दिया। परंतु इन विद्वानों के अध्ययन और लेखन
के उद्देश्य विभिन्न थे। इन्हें मुखयतया तीन वर्गों में बांटा जा सकता हैः
१. भारतीय धर्मशास्त्र, दर्शन और साहित्य के निष्पक्ष जिज्ञासु , २. अधिकांशतः ईसाई मिशनरी वर्ग और ३. धर्म एवं राजनीति से प्रेरित ब्रिटिश वर्ग और भारत में उनके प्रशासक और मिशनरी वर्ग।
पहले
वर्ग के लोगों ने भारतीय साहित्य को भाषा विज्ञान द्वारा निष्पक्ष एवं
वैज्ञानिक दृष्टि से देखा और दार्शनिक विचारों को प्रेरणादायक माना इस वर्ग
में मुखयतया ऑगस्त श्लेगल (१७६७-१८४५), फ्रेडरिक श्ेलगल (१७७२-१८२९),
फ्रान्ज बाप (१७९१-१८६७), रूडोल्क रॉथ (१८२१-१८९५) हरमैन ब्रोरवोस
(१८०६-१९०७) थ्योडर बेनफे (१८०९-१८८१) आदि मुखय थे। दूसरे वर्ग के
विद्वानों ने मिशनरी भावना से प्रेरित होकर वैदिक देवतावाद का तुलनात्मक
गाथावाद, विकासवाद और मानवइतिहास की दृष्टि से पक्षपातपूर्ण अनुवाद कर
विशाल साहित्य लिखा। इनमें ओल्डन वर्ग (१८५४-१९२०), अलब्रेट वेबर
(१८२५-१९०१), फ्रेडरिक रोजन (१८०५-१८३७), अलफ्रेड लुडविग (१८३२-१९१२),
जार्ज बुहलर (१८३७-१८९८), ज्युलियस जौली (१८४९-१९३२), ओटोवॉन बोथलिंगम
(१८१५-१९०४), मौरिस विंटरनिट्स (१८६३-१९३७), अर्नेस्ट कुहन (१८४६-१९२०)
आदि थे। तीसरे वर्ग में ब्रिटेन में एच.एच. विल्सन (१७८६-१८६०), फ्रेडरिक
मैक्समूलर (१८२३-१९००), मौनियर विलियम्स, अर्थन ऐंथोनी मैक्डोनल
(१८५४-१९३०, ए.बी. कीथ (१८७९-१९४४) आदि थे। भारत में प्रशासन से जुड़े
विद्वानों में चार्ल्स विलसन, विलियम जोन्स (१७४६-१७९४), कॉलब्रुक
(१७६५-१८३६), स्टीवेंसन, ग्रिफिथ आदि मुखय थे।
(Agnes-
German Indologists. pp.1-151)
ब्रिटेन
के विद्वानों ने अपने राजनैतिक और मिशनरी हितों की दृष्टि से तुलनात्मक
भाषावाद, गाथावाद, मानव ऐतिहासिकता एवं अन्य अनेक नवीन वादों की कल्पनाऐं
कीं। १८४६ में, ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी में, मैक्समूलर के आने के बाद
ब्रिटेन का, हिन्दू धर्म शास्त्र संबंधी समस्त साहित्य, असंगत क्यों न हो।
मगर गैर-ब्रिटिश लेखकों ने या तो ईसाई मिशनरी भावना से या वेदादि केमौलिक
ज्ञान के अभाव से या संस्कृत को यूरोपीय भषाओं से सम्बन्धित करने के
दुराग्रह के कारण विभिन्न अर्थ किए। ये सभी ब्रिटेन की तरह पक्षपाती नहीं
थे। मगर तना अवश्य है कि सभी पाश्चात्य विद्वान भलीभांति जानते थे कि वेद,
भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृति के मूल आधार हैं और इनकी समुचित व्याखया
निरुक्त व पाणिनि व्याकरण के आधार पर ही हो सकती है। परन्तु किसी भी
पाश्चातय विद्वान ने भारतीय वेद भाष्य पद्धति को नहीं अपनाया जिसका कि इसी
समय में महर्षि दयानन्द सरस्वती (१८२५-१८८२) ने अपने वदे भाष्यों में
प्रयोग कर उदाहरण प्रस्तुत किया था। भारतीय प्राचीन परम्परा इसी शैली को
प्रामाणिक मानती है।
इंग्लैंड में संस्कृत शिक्षा के लिए बोडेन चेयर की स्थापना
१८१०
ए.डी. तक, इंग्लैंड में संस्कृत शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। सबसे
पहले इंग्लैंड में, १८११ में ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी में संस्कृत भाषा की
शिक्षा के लिए व्यवस्था की गई। इसके लिए एक कट्टर ईसाई सामने आया। वह था
कर्नल जोसेफ बोडन जो कि ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना में बम्बई में
लेफ्टिनेंट-कर्नल रहा था। इसने अवकाश ग्रहण करने के बाद, अपनी समस्त
सम्पत्ति, जो उस समय लगभग पच्चीसहजार पौंड थी, की वसीयत ऑक्सफोर्ड
विश्वविद्यालय में संस्कृत-प्रोफेसर के एक पद की स्थापना के किए कर दी; और
विश्वविद्यालय ने भी कृतज्ञता स्वरूप इसना नाम 'बोडेन चेयर ऑफ संस्कृत रख
दिया।
बोडेन चेयर का उद्देश्य
बोडेन
चेयर का उद्देश्य, भारत के गुरुकुलों की तरह, केवल साहित्यिक दृष्टि से
संस्कृत भाषा का पढ़ना-पढ़ाना नहीं था, बल्कि ब्रिटेन के राजैतिक और ईसाई
मिशनरियों के धार्मिक हितों की पूर्ति के लिए था। कर्नल बोडेन ने अपनी
वसीयत, जो कि १५ अगस्त १८११ को कैंटरबरी, यू.के. के न्यायालय में रजिस्टर्ड
की गई, उसके मुखय अंश और उद्देश्य इस प्रकार हैं:
"I do hereby give and bequeath all and
singular my said residuary estate and effects with the accumulations thereof if
any and the stocks nmds and securities whereon the same shall have been laid
out and invested tmto the University of Oxford to be by that Body appropnated
in and towards the erection and endowment of a Professorship in the Sanskrit
Language at or in any or either of the Colleges in the said University being of
opinion that a more general and critical knowledge of that language will be a
means of enabling my Countrymen to proceed in the conversion of Natives of
India to the Christian Religion by disseminating a knowlidge of the Sacred
Scriptures amongst them 1ill:.0re effectually than all other means
whatsoever."
(Bharti, pp. 249-50)
अर्थात्
''मैं अपनी समस्त ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय को दान देता हूँ। वे इसे
विश्वविद्यालय या किसी कॉलेज में, जहाँ वे उचित समझें प्रयोग करें ताकि
उसके देश(इंग्लैंड) वासियों को संस्कृत भाषा का समुचित ज्ञान हो सके, जो
भारत के मूल निवासियों के धर्मग्रंथों को समझने और उनके ईसाईयत में
धर्मान्तरण में सहायक हो सकें।''
(भारती पृ. २४९-२५०)
इस
प्रकार १८११ में, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत चेयर की स्थापना हो
तो गई थी लेकिन उस समय इसके लिए कोई मनचाहा व्यक्ति न मिल सका। बोडेन चेयर
पर प्रतिष्ठित होने वालो सबसे पहला व्यक्ति एच.एच. विलसन (१७८६-१८६०) था।
वह भारत में मेडीकल प्रोफेशन के एक सदस्य के रूप में, १८०८ में आया तथा
१८३२ तक यहाँ रहा। भारत निवास के इस काल में उसने संस्कृत भाषा सीखी, इस
आशा और उद्देश्य से कि शायदयह भाषा ज्ञान उसे हिन्दू धर्म शास्त्राों को
समझने और आवश्यकता होने पर विकृत आर्थ करने और भारतीयों को ईसाईयत में
धर्मान्तरित करने में सहायक हो सके। इस संस्कृत ाान के आधार पर ही विलसन
को, १८३२ में, ऑक्सफोर्ड विश्व विद्यालय में संस्कृत की बोडेन चेयर का
प्रथम अधिष्ठाता बनाया गया। यहाँ उसने सबसे पहले मिशनरियों के लिए ''दी
रिलीजन एण्ड फिलोसोफिकल सिस्टम ऑफ दी हिन्दूज'' नामक पुस्तक लिखी। इस
पुस्तके के लिखने के उद्देश्य के विषय में उसने कहाः
"These
lectures were written to help candidates for a prize of £ 200/= given by John Muir, a well known
Haileybury (where candidates were prepared for Indian Civil Services) man and
great Sanskrit scholar, for the best refutation of the Hindu Religious
Systems." (Bharti, p.9)
अर्थात्
''यह लेखमाला उन व्यक्तियों की सहायता के लिए लिखी गई हैं जो कि म्यू
द्वारा स्थापित दो सौं पौंड के पुरस्कार के लिए प्रत्याशी हों और जो हिन्दू
धर्म ग्रन्थों का सर्वोत्तम प्रकार से खंडन कर सकें।''
(भारती, पृ. ९)
बोडेन चेयर का दूसरा अधिष्ठाता
१८६०
में, प्रो. विलसन के निधन के बाद,बोडेन चेयर का दूसरा अधिष्ठाता मौनियर
विलियम्स हुआ। १८१९ में बम्बई में जन्मा मौनियर एक कट्टर ईसाई था। यह
हिन्दू धर्म को नष्ट करने को और भी अधिक वचनबद्ध था जैसाकि उसने अपनी
पुस्तक 'ए संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी' की भूमिका में लिखाः
"In
explanation I must draw attention to the fact that I am only
the second occupant of the Boden Chair, and that its founder, Col. Boden,
stated most explicitly in his will (dated August 15, 1811) that the
special object of his munificent bequest was to promote the translation
of the Scripture in Sanskrit so as to enable his countrymen to procet'd
in the conversion of the natives of India to the Christian religion."
"It was on this account that, when my
distinguished predecessor and teacher, Professor H. H. Wilson, was a candidate
for the Chair in 1832, his lexicographical labours were put forward as his
principal claim to election."
"Surely it" need not be thought
surprising, if following in the footsteps of my venerated master, I have made
it the chief aim of my professional life to provide facilities for the
translation of the Sacred Scriptures in Sanskrit and for the promotion of a
better knowledge of the religions and customs of India, as the best key to a
knowledge of the religious needs of our great Eastern Dependency. My very first
public lecture delivered after my election in 1860 was on "The Study of
Sanskrit in Relation to Missionary Work in India" (published in
1861). (Pref. to the New Edition of Sanskrit English
Dictionary by M.M. Williams pp.IX-X)
अर्थात्
''मैं, इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा कि मैं तो केवल
बोडेन-चेयर का दूसरा अधिष्ठाता हूँ और उसके संस्थापक कर्नल बोडेन ने अपनी
वसीयत (१५ अगस्त १८११) में सबसे अधिक स्पष्टता के साथ लिखा है कि उसकी
वसीयत का विशेष उद्देश्य संस्कृत धर्मशास्त्रों का अनुवाद करना है ताकि
उसके देश (इंग्लैंड) वासी भारत के मूल निवासियों का ईसाईयत में धर्मान्तरित
करने के योग्य हो सकें।'' ''इस ही कारण जब मेरे शिक्षक और सुप्रसिद्ध
पूर्व अधिकारी प्रो.एच.एच. विलसन, जो कि १८३२ में इस चेयर के प्रत्याशी थे,
तो उनकेलेखन कार्य के कारण उनको उस पद के मुखय दावेदार के रूप में
प्रस्तुत किया गया था।'' ''निश्चय ही इसे आश्चर्यजनक न समझा जाए कि यदि
मेरे श्रद्धेय गुरूजी के चरण चिन्हों पर चलते हुए मैंने अपने व्यवसायिक
जीवन का मुखय उद्देश्य भारतीयों के धर्म ग्रंथों का अंग्रेजी में भाष्य
करने के लिए सुविधा प्रदान करना है तथा भारत के धर्मों और रीतिरिवाजों की
अच्छी जानकारी को बढ़ावा देना है।''
''१८६०
में, बोडेन चेयर के लिए चुने जाने के बाद अपनी पुस्तक ''दी स्टडी ऑफ
संस्कृत इन रिलेशन टू मिशनरी वर्क इन इंडिया'' (१८६१)'' इसमें उसने एक
मिशनरी की तरह स्पष्ट कहाः
"When the walls of
the mighty fortress of Hinduism are encircled, undermined and finally stormed
by the soldiers of the Cross, the victory to Christianity must be signal and
complete."
(p.262)
अर्थात्
''जब हिन्दू धर्म के मजबूत किलों की दीवारों को घेरा जाएगा, उन पर सुरंगे
बिछाई जाऐंगी और अंत में ईसामसीह के सैनिकों द्वारा उन पर धावा बोला जाएगा
तो ईसाईयत की विजय अन्तिम और पूरी तरह होगी''
(वही पृ. २६२)
इन
उपरोक्तियों से सुस्पष्ट है कि बोडेन चेयर के दोनोंअधिष्ठाताओं ने संस्कृत
शिक्षा के नाम पर ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के अपने अधिकारिक पद का ईसाईयत
के हितों के लिए पूरी तरह से दुरुपयोग किया। उन्होंने प्राच्यविद्याओं के
शोध की आड़ में अपने मिशनरी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लगातार प्रयास
किया।मैक्समूलर ने भी १८४७ से ही बोडेन चेयर के उद्देश्य की पूर्ति के लिए अथाह परिश्रम किया; ऋग्वेद का विकृत भाष्य और बोडेन चेयर पाने के लिए चुनाव भी लड़ा। मगर अंग्रेज मोनियर विलियम्स के पक्ष में ८८३ वोटों के विरुद्ध, ६१० वोट पाने के कारण वह हार गया (मिश्रा, पृ. १६) क्योंकि वह एक गैर-ब्रिटिश था। इस संदर्भ में ऐन्साईक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (रंव. XVII पृ. ९२७) बतलाता हैः
''मैक्समूलर
के जीवन की यह एक बहुत बड़ी निराशा थी जिसका उसके ऊपर बहुत समय तक प्रभाव
रहा।'' मगर फिर भी वह हिन्दू धर्म शास्त्रों के विकृतीकरण और भारतीय
धार्मिक नेताओं का ईसाईयत में धर्मान्तरण के लिए प्रयास करता रहा।
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