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Saturday, March 30, 2013

भारत में इस्लामी जिहाद-इतिहास के पन्नों से (Part -7)

अहमद शाह अब्दाली (१७५७ और १७६१)
मथुरा और वृन्दावन में जिहाद (१७५७)
”किसान जाटों ने निश्चय कर लिया था कि विध्वंसक, ब्रज भूमि की पवित्र राजधानी में, उनकी लाशों पर होकर ही जा सकेंगे… मथुरा के आठ मील उत्तर में। २८ फरवरी १७५७ को जवाहर सिंह ने दस हजार से भी कम आदमियों के साथ आक्रमणकारियों का डटकर, जीवन मरण की बाजी लगाकर, प्रतिरोध किया। सूर्योदया के बाद युद्ध नौ घण्टे तक चला और उसके अन्त में दोनोंओर के दस बारह हजार पैदल योद्धा मर गये, घायलों की गिनती तो अगणनीय थी।”
”हिन्दू प्रतिरोधक अब आक्रमणकारियों के सामने अब बुरी तरह धराशायी हो गये। प्रथम मार्च के दिन निकलने के बहुत प्रारम्भिक काल में अफगान अश्वारोही फौज, बिना दीवाल या रोक वाले और बिना किसी प्रकार का संदेह करने वाले, मथुरा शहर में फट पड़ी। और न अपने स्वामियों के आदेशों से, और न पिछले दिन प्राप्त कठोरतम संघर्ष वा प्रतिरोध के कारण, अर्थात दोनों ही कारणों से, वे कोई किसी प्रकार की भी दया दिखाने की मनस्थिति में नहीं थे। पूरे चार घण्टे तक, हिन्दू जनसंखया का बिना किसी पक्षपात के, भरपूर मात्रा में, दिलखोलकर, नरसंहार व विध्वंस किया गया। सभी के सभी निहत्थे असुरक्षित व असैनिक ही थे। उनमें से कुछ पुजारी थे… ”मूर्तियाँ तोड़ दी गईं और इस्लामी वीरों द्वारा, पोलों की गेदों की भाँति, ठुकराई गईं”, (हुसैनशाही पृष्ठ ३९)”
”नरसंहार के पश्चात ज्योंही अहमद शाह की सेनायें मथुरा से आगे चलीं गई तो नजीब व उसकी सेना, वहाँ पीछे तीन दिन तक रही आई। असंखय धन लूटा और बहुत सी सुन्दर हिन्दू महिलाओं को बन्दी बनाकरले गया।” (नूर १५ b ) यमुना की नीली लहरों ने उन सभी अपनी पुत्रियों को शाश्वत शांति दी जितनी उसकी गोद में, उसी फैली बाहों को दौड़कर पकड़ सकीं। कुछ अन्यों ने, अपने सम्मान सुरक्षा और अपमान से बचाव के अवसर के रूप में, निकटस्थ, अपने घरों के कूओं में, कूदकर मृत्यु का आलिंगन कर लिया। किन्तु उनकी उन बहिनों के लिए, जो जीवित तो रही आईं, उनके सामने मृत्यु से भी कहीं अधिक बुरे भाग्य से, कहीं कैसी भी, सुरक्षा नहीं थी। घटना के पन्द्रह दिन बाद एक मुस्लिम प्रत्यक्षदर्शी ने विध्वंस हुए शहर के दृश्य का वर्णन किया है। ”गलियों और बाजारों में सर्वत्र वध किये हुए व्यक्तियों के श्रि रहित, धड़, बिखरे पड़े थे। सारे शहर में आग लगी हुई थी। बहुत से भवनों को तोड़ दिया गया था। जमुना में बहने वाला पानी, पीले जैसे रंग का था मानो कि रक्त से दूषित हो गया हो।”
”मथुरा के विनाश से मुक्ति पा, जहान खान आदेशों के अनुसार देश में लूटपाट करता हुआ घूमता फिरा। मथुरा से सात मील उत्तर में, वृन्दावन भी नहीं बच सका… पूर्णतः शांत स्वभाव वाले, आक्रामकताहीन, सन्त विष्णु भक्तों पर, वृन्दावन में सामान्यजनों के नरसंहार का अभ्यास किया गया (६ मार्च) उसी मुसलमान डाइरी लेखक ने वृन्दावन का भ्रमण कर लिखा था; ”जहाँ कहीं तुम देखोगे शवों के ढेर देखने को मिलेंगे। तुम अपना मार्ग बड़ी कठिनाई से ही निकाल सकते थे क्योंकि शवों की संखया के आधिक्य और बिखराव तथा रक्त के बहाव के कारण मार्ग पूरी तरह रुक गया था। एक स्थान पर जहाँ हम पहुँचे तो देखा कि…. दुर्गन्ध और सड़ान्ध हवा में इतनी अधिक थी कि मुँह खोलने और साँस लेना भी कष्ट कर था”
(फॉल ऑफ दी मुगल ऐम्पायर-सर जदुनाथ सरकार खण्ड प्ट नई दिल्ली १९९९ पृष्ठ ६९-७०)
अब्दाली का गोकुल पर आक्रमण
”अपन डेरे की एक टुकड़ी को गोकुल विजय के लिए भेजा गया। किन्तु यहाँ पर राजपूताना और उत्तर भारत के नागा सन्यासी सैनिक रूप के थे। राख लपेटे नग्न शरीर चार हजार सन्यासी सैनिक, बाहर खड़े थे और तब तक लड़ते रहे जब तक उनमें से आधे मर न गये, और उतने ही शत्रु पक्ष के सैनिकों की भी मृत्यु हुई। सारे वैरागी तो मर गये, किन्तु शहर के देवता गोकुल नाथ बचे रहे, जैसा कि एक मराठा समाचार पत्र ने लिखा।”
(राजवाड़े प ६३, उसी पुस्तक में, पृष्ठ ७०-७१)
पानीपत में जिहाद (१७६१)
”युद्ध के प्रमुख स्थल पर कत्ल हुए शवों के इकत्तीस, पृथक-पृथक, ढेर गिने गये थे। प्रत्येक ढेर में शवों की संखया, पाँच सौं से लेकर एक जाहर तक, और चार ढेरों में पन्द्रह सौं तक शव थे, कुल मिलाकर अट्‌ठाईस हजार शव थे।
इनके अतिरिक्त मराठा डेरे के चारों ओर की रवाई शवों से पूरी तरह भरी हुई थी। लम्बी घेराबन्दी के कारण, इनमें से कुछ रोगों, और आकल के शिकार थे, तो कुछ घायल आदमी थे, जो युद्ध स्थल से बचकर, रेंग रेंग कर, वहाँ मरने आ पहुँचे थे। भूख और थकान के कारण, मरने वालों और दुर्रानी की निरन्तर बिना रुके पीछा करने वाली सेना के सामने प्रतिरोध न करने वालों, के मर कर गिर जाने वाले शवों से, पानीपत के पश्चित और दक्षिण में, मराठों की पीछे लौटती हुई सेना की दिशा में, जंगल और सड़क भरे पड़े थे। उनकी संखया- तीन चौथाई असैनिक और एक चौथाई सैनिक- युद्ध में मरने वालों की संखया से बहुत कम थी। जो घायल पड़े थे शीत की विकरालता के कारण मर गये।”
”संघर्षमय महाविनाश के पश्चात पूर्ण निर्दयतापूर्वक, नर संहार प्रारम्भ हुआ। मूर्खता अथवा हताश वश कई लाखमराठे जो विरोधी वातावरण वाले शहर पानीपत में छिप गये थे, उन्हें अगले दिन खोज लिया गया, और तलवार से वध कर दिया गया। एक अति अविश्वसनीय विवरण के अनुसार अब्दुस समद खान के पुत्रों और मियाँ कुत्ब को अपने पिता की मृत्यु का बदला ले लेने के लिए पूरे एक दिन भर मराठों के लाइन लगाकर (बिना भेद के ) वध करेन की दुर्रानी की, शाही, अनुमति मिल गई थी”, और इसमें लगभग नौ हजार लोगों का वध किया गया था खभाऊ बखर १२३,; वे सभी प्रत्यक्षतः, असैनिक व निहत्थे ही थे। प्रत्यक्षदर्शी काशीराज पण्डित ने इस दृश्य का वर्णन इस प्रकार किया है- ”दुर्रानी के प्रत्येक सैनिक ने, अपने-अपने डेरों से, सौ या दो सौ, बन्दी बाहर निकाले, और यह चीखते हुए, चिल्लाते हुए कि, वह अपने देश से जब चला था तब उसकी माँ, बाप, बहिन और पत्नी ने उससे कहा था कि पवित्र धर्म युद्ध में विजय पा लेने के बाद वह उनके प्रत्येक के नाम से इतने काफिरों का वध करे कि उस काम के कारण’, अविश्वासियों के वध के कारण, उन्हें उचित पुरस्कार के लिए धार्मिक श्रेष्ठता की मान्यता मिल जाए’, और उन्हें डेरों के बाहरी क्षेत्रों में तलवारों से वध कर दिया। ( ‘ सुरा ८ आयत ५९-६०)”इस प्रकार हजारों सैनिक और अन्य नागरिक पूर्ण निर्ममता पूर्वक कत्ल कर दिये गये। शाह के डेरे में उसके सरदारों के आवासों को छोड़कर, प्रत्येक डेरे में उसके सामने कटे हुए शिरों के ढेर पड़े हुए थे।”
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ २१०-११)
टीपू सुल्तान (१७८६-१७९९)
तथाकथित अकबर महान के पश्चात हमारे मार्किसस्ट इतिहासज्ञों की दुष्टि में सैक्यूलरवाद, प्रजातंत्र, उपनिवेशवाद विरोधी व सहिष्णुता का निष्कर्ष निकालने के लिए टीपू सुल्तान एक जीता जागता, सशरीर सुविधाजनक उदाहरण या नमूना हैं किन्तु सामयिक प्रलेखों (सुरा ९ आयत ७३) से पूर्णतः स्पष्ट है कि धार्मिक आदेशों से प्रोत्साहित कुर्ग और मलाबार के हिन्दुओं पर टीपू के अत्याचार और यातानाएं उन क्षेत्रों के इतिहास में अनुपम एवम्‌ अद्वितीय ही थे। उपर्लिखित इतिहासज्ञों (मार्किसस्टों) की, नस्ल ने, टीपू को, उसके द्वारा किये गये बर्बर अतयाचारों को पूर्णतः दबा, छिपा कर, आतताई को सैक्यूलरवादी, राष्ट्रवादी, देवतातुल्य, प्रमाणित व प्रस्तुत करने में कोई भी, कैसी भी, कमी नहीं रखी है, ताकि हम, मूर्ति पूजकों की पृथक-पृथक मूर्ख जाति, जो छद्‌म देवताओं की भी पूजा कर लेते हैं,उसे वैसा ही मान लें। और सत्य तो यह है कि बहुतांश में ये इतिहासकार अपने इस कुटिल उद्‌देश्य में, भले को पूरी तरह नहीं, सफल भी हो गये हैं, किन्तु महा महिम टीपू सुल्तान बड़े, कृपालु और उदार थे कि उन्होंने अपने द्वारा हिन्दुओं पर किय गये अत्याचारों का वर्णन, और अन्य सामयिक प्रलेखों में दक्षिण भारत के इस मुजाहिद का वास्तविक स्वरूप, पूर्णतः प्रकाशित हो जाता है।
टीपू के पत्र
टीपू द्वारा लिखित कुछ पत्रों, संदेशों, और सूचनाओं, के कुछ अंश निम्नांकित हैं। विखयात इतिहासज्ञ, सरदार पाणिक्कर, ने लन्दन के इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी से इन सन्देशों, सूचनाओं व पत्रों के मूलों को खोजा था।
(i) अब्दुल खादर को लिखित पत्र २२ मार्च १७८८
“बारह हजार से अधिक, हिन्दुओं को इ्रस्लाम से सम्मानित किया गया (धर्मान्तरित किया गया)। इनमें अनेकों नम्बूदिरी थे। इस उपलब्धि का हिन्दुओं के मध्य व्यापक प्रचार किया जाए। स्थानीय हिन्दुओं को आपके पास लाया जाए, और उन्हें इस्लाम में धर्मान्तरित किया जाए। किसी भी नम्बूदिरी को छोड़ा न जाए।”
(भाषा पोशनी-मलयालम जर्नल, अगस्त १९२३)
(ii) कालीकट के अपने सेना नायकको लिखित पत्र दिनांक १४ दिसम्बर १७८८
”मैं तुम्हारे पास मीर हुसैन अली के साथ अपने दो अनुयायी भेज रहा हूँ। उनके साथ तुम सभी हिन्दुओं को बन्दी बना लेना और वध कर देना…”। मेरे आदेश हैं कि बीस वर्ष से कम उम्र वालों को काराग्रह में रख लेना और शेष में से पाँच हजार का पेड़ पर लटकाकार वध कर देना।”
(उसी पुस्तक में)
(iii) बदरुज़ समाँ खान को लिखित पत्र (दिनांक १९ जनवरी १७९०)
”क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है निकट समय में मैंने मलाबार में एक बड़ी विजय प्राप्त की है चार लाख से अधिक हिन्दुओं को मूसलमान बना लिया गया था। मेरा अब अति शीघ्र ही उस पानी रमन नायर की ओर अग्रसर होने का निश्चय हैं यह विचार कर कि कालान्तर में वह और उसकी प्रजा इस्लाम में धर्मान्तरित कर लिए जाएँगे, मैंने श्री रंगापटनम वापस जाने का विचार त्याग दिया है।”
(उसी पुस्तक में)
टीपू ने हिन्दुओं के प्रति यातनाआं के लिए मलाबार के विभिन्न क्षेत्रों के अपने सेना नायकों को अनेकों पत्र लिखे थे।
”जिले के प्रत्येक हिन्दू का इस्लाम में आदर (धर्मान्तरण) किया जाना चाहिए; उन्हें उनके छिपने के स्थान में खोजा जाना चाहिए; उनके इस्लाममें सर्वव्यापी धर्मान्तरण के लिए सभी मार्ग व युक्तियाँ- सत्य और असत्य, कपट और बल-सभी का प्रयोग किया जाना चाहिए।”
(हिस्टौरीकल स्कैचैज ऑफ दी साउथ ऑफ इण्डिया इन एन अटेम्पट टूट्रेस दी हिस्ट्री ऑफ मैसूर- मार्क विल्क्स, खण्ड २ पृष्ठ १२०)
मैसूर के तृतीय युद्ध (१७९२) के पूर्व से लेकर निरन्तर १७९८ तक अफगानिस्तान के शासक, अहमदशाह अब्दाली के प्रपौत्र, जमनशाह, के साथ टीपू ने पत्र व्यवहार स्थापित कर लिया था। कबीर कौसर द्वारा लिखित, ‘हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान’ (पृ’ १४१-१४७) में इस पत्र व्यवहार का अनुवाद हुआ है। उस पत्र व्यवहार के कुछ अंग्रेजश नीचे दिये गये हैं।
टीपू के ज़मन शाह के लिए पत्र
(i) ”महामहिल आपको सूचित किया गया होगा कि, मेरी महान अभिलाषा का उद्देश्य जिहाद (धर्म युद्ध) है। इस युक्ति का इस भूमि पर परिणाम यह है कि अल्लाह, इस भूमि के मध्य, मुहम्मदीय उपनिवेश के चिह्न की रक्षा करता रहता है, ‘नोआ के आर्क’ की भाँति रक्षा करता है और त्यागे हुए अविश्वासियों की बढ़ी हुई भुजाओं को काटता रहता है।”
(ii) ”टीपू से जमनशाह को, पत्र दिनांक शहबान का सातवाँ १२११ हिजरी (तदनुसार ५ फरवरी १७९७): ”….इन परिस्थितियों में जो, पूर्व से लेकर पश्चित तक, सूर्य के स्वर्ग के केन्द्र में होने के कारण, सभी को ज्ञात हैं। मैं विचार करता हूँ कि अल्लाह और उसके पैगम्बर के आदेशों से एक मत हो हमें अपने धर्म के शत्रुओं के विरुद्ध धर्म युद्ध क्रियान्वित करने के लिए, संगठित हो जाना चाहिए। इस क्षेत्र के पन्थ के अनुयाई, शुक्रवार के दिन एक निश्चित किये हुए स्थान पर सदैव एकत्र होकर इन शब्दों में प्रार्थना करते हैं। ”हे अल्लाह! उन लोगों को, जिन्होंने पन्थ का मार्ग रोक रखा है, कत्ल कर दो। उनके पापों को लिए, उनके निश्चित दण्ड द्वारा, उनके शिरों को दण्ड दो।”
मेरा पूरा विश्वास है कि सर्वशक्तिमान अल्लाह अपने प्रियजनों के हित के लिए उनकी प्रार्थनाएं स्वीकार कर लेगा और पवित्र उद्‌देश्य की गुणवत्ता के कारण हमारे सामूहिक प्रयासों को उस उद्‌देश्य के लिए फलीभूत कर देगा। और इन शब्दों के, ”तेरी (अल्लाह की) सेनायें ही विजयी होगी”, तेरे प्रभाव से हम विजयी और सफल होंगे।
लेख
टीपू की बहुचर्चित तलवार’ पर फारसी भाषा में निम्नांकित शब्द लिखे थे- ”मेरी चमकती तलवार अविश्वासियों के विनाश के लिए आकाश की कड़कड़ाती बिजली है। तू हमारा मालिक है, हमारीमदद कर उन लोगों के विरुद्ध जो अविश्वासी हैं। हे मालिक ! जो मुहम्मद के मत को विकसित करता है उसे विजयी बना। जो मुहम्मद के मत को नहीं मानता उसकी बुद्धि को भृष्ट कर; और जो ऐसी मनोवृत्ति रखते हैं, हमें उनसे दूर रख। अल्लाह मालिक बड़ी विजय में तेरी मदद करे, हे मुहम्मद!”
(हिस्ट्री ऑफ मैसूर सी.एच. राउ खण्ड ३, पृष्ठ १०७३)
*ब्रिटिश म्यूजियम लण्डल का जर्नल
हमारे सैक्यूलरिस्ट इतिहासज्ञों की रुचि, प्रसन्नता व ज्ञान के लिए श्री रंग पटनम दुर्ग में प्राप्त टीपू का एक शिला लेख पर्याप्त महत्वपूर्ण है। शिलालेख के शब्द इस प्रकार हैं- ”हे सर्वशक्तिमान अल्लाह! गैर-मुसलमानों के समस्त समुदाय को समाप्त कर दे। उनकी सारी जाति को बिखरा दो, उनके पैरों को लड़खड़ा दो अस्थिर कर दो! और उनकी बुद्धियों को फेर दो! मृत्यु को उनके निकट ला दो (उन्हें शीघ्र ही मार दो), उनके पोषण के साधनों को समाप्त कर दो। उनकी जिन्दगी के दिनों को कम कर दो। उनके शरीर सदैव उनकी चिंता के विषय बने रहें, उनके नेत्रों की दृष्टि छी लो, उनके मुँह (चेहरे) काले कर दो, उनकी वाणी को (जीभ को), बोलने के अंग को, नष्ट कर दो! उन्हें शिदौद की भाँति कत्ल करदो जैसे फ़रोहा को डुबोया था, उन्हें भी डुबो दो, और भयंकरतम क्रोध के साथ उनसे मिलो यानी कि उन पर अपार क्रोध करो। हे बदला लेने वाले! हे संसार के मालिक पिता! मैं उदास हूँ! हारा हुआ हूँ,! मुझे अपनी मदद दो।”
(उसी पुस्तक में पृष्ठ १०७४)
टीपू का जीवन चरित्र
टीपू की फारसी में लिखी, ‘सुल्तान-उत-तवारीख’ और ‘तारीख-ई-खुदादादी’ नाम वाली दो जीवनयिाँ हैं। बाद वाली पहली जीवनी का लगभग यथावत (हू बू हू) प्रतिरूप नकल है। ये दोनों ही जीवनियाँ लन्दन की इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी में एम.एस. एस. क्र. ५२१ और २९९ क्रमानुसार रखी हुई हैं। इन दोनों जीवनयिों में हिन्दुओं पर उसके द्वारा ढाये अत्याचारों, और दी गई यातनाओं, का विस्तृत वर्णन टीपू ने किया है। यहाँ तक कि मोहिब्बुल हसन, जिसने अपनी पुस्तक, हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान, टीपू को एक समझदार, उदार, और सैक्यूलर शासक चित्रित व प्रस्तुत करने में कोई कैसी भी कमी नहीं रखी थी, को भी स्वीकार करना पड़ा था कि ”तारीख यानी कि टीपू की जीवनियों के पढ़ने के बाद टीपू का जो चित्र उभरता है वह एक ऐसे धर्मान्ध, पन्थ के लिए मतवाले, या पागल, का है जो मुस्लिमेतर लोगों के वध और उनके इस्लाम में बलात परिवर्तन करान में ही सदैव लिप्त रहा आया।”
(हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान, मोहिब्बुल हसन, पृष्ठ ३५७)
प्रत्यक्ष दर्शियों के वर्णन
इस्लाम के प्रोत्साहन के लिए टीपू द्वारा व्यवहार में लाये अत्याचारों और यातनाओं के प्रत्यक्ष दर्शियों में से एक पुर्तगाली यात्री और इतिहासकार, फ्रा बारटोलोमाको है। उसने जो कुछ मलाबार में, १७९० में, देखा उसे अपनी पुस्तक, ‘वौयेज टू ईस्ट इण्डीज’ में लिख दिया था- ”कालीकट में अधिकांश आदमियों और औरतों को फाँसी पर लटका दिया जाता था। पहले माताओं को उनके बच्चों को उनकी गर्दनों से बाँधकर लटकाकर फाँसी दी जाती थी। उस बर्बर टीपू द्वारा नंगे (वस्त्रहीन) हिन्दुओं और ईसाई लोगों को हाथियों की टांगों से बँधवा दिया जाता था और हाथियों को तब तक घुमाया जाता था दौड़ाया जाता था जब तक कि उन सर्वथा असहाय निरीह विपत्तिग्रस्त प्राणियों के शरीरों के चिथड़े-चिथड़े नहीं हो जाते थे। मन्दिरों और गिरिजों में आग लगाने, खण्डित करने, और ध्वंस करने के आदेश दिये जाते थे। यातनाओं का उपर्लिखित रूपान्तर टीपू की सेना से बच भागने वालेऔर वाराप्पुझा पहुँच पाने वाले अभागे विपत्तिग्रस्त व्यक्तियों से सुन वृत्तों के आधार पर था… मैंने स्वंय अनेकों ऐसे विपत्ति ग्रस्त व्यक्तियों को वाराप्पुझा नहीं को नाव द्वारा पार कर जोने के लिए सहयोग किया था।”
(वौयेज टू ईस्ट इण्डीजः फ्रा बारटोलोमाको पृष्ठ १४१-१४२)
टीपू द्वारा मन्दिरों का विध्वंस
दी मैसूर गज़टियर बताता है कि ”टीपू ने दक्षिण भारत में आठ सौं से अधिक मन्दिर नष्ट किये थे।”
के.पी. पद्‌मानाभ मैनन द्वारा लिखित, ‘हिस्ट्री ऑफ कोचीन और श्रीधरन मैनन द्वारा लिखित, हिस्ट्री ऑफ केरल’ उन भग्न, नष्ट किये गये, मन्दिरों में से कुछ का वर्णन करते हैं- ”चिन्गम महीना ९५२ मलयालम ऐरा तदुनसार अगस्त १७८६ में टीपू की फौज ने प्रसिद्ध पेरुमनम मन्दिर की मूर्तियों का ध्वंस किया और त्रिचूर ओर करवन्नूर नदी के मध्य के सभी मन्दिरों का ध्वंस कर दिया। इरिनेजालाकुडा और थिरुवांचीकुलम मन्दिरों को भी टीपू की सेना द्वारा खण्डित किया गया और नष्ट किया गया।” ”अन्य प्रसिद्ध मन्दिरों में से कुछ, जिन्हें लूटा गया, और नष्ट किया गया, था, वे थे- त्रिप्रंगोट, थ्रिचैम्बरम्‌, थिरुमवाया, थिरवन्नूर, कालीकट थाली, हेमम्बिका मन्दिरपालघाट का जैन मन्दिर, माम्मियूर, परम्बाताली, पेम्मायान्दु, थिरवनजीकुलम, त्रिचूर का बडक्खुमन्नाथन मन्दिर, बैलूर शिवा मन्दिर आदि।”
”टीपू की व्यक्तिगत डायरी के अनुसार चिराकुल राजा ने टीपू सेना द्वारा स्थानीय मन्दिरों को विनाश से बचाने के लिए, टीपू सुल्तान को चार लाख रुपये का सोना चाँदी देने का प्रस्ताव रखा था। किन्तु टीपू ने उत्तर दिया था, ”यदि सारी दुनिया भी मुझे दे दी जाए तो भी मैं हिन्दू मन्दिरों को ध्वंस करने से नहीं रुकूँगा”
(फ्रीडम स्ट्रगिल इन केरल : सरदार के.एम. पाणिक्कर)
टीपू द्वारा केरल की विजय के प्रलयंकारी भयावह परिणामों का सविस्तार सजीव वर्णन, ‘गजैटियर ऑफ केरल के सम्पादक और विखयात इतिहासकार ए. श्रीधर मैनन द्वारा किया गया है। उसके अनुसार, ”हिन्दू लोग, विशेष कर नायर लोग और सरदार लोग जिन्होंने इस्लामी आक्रमणकारियों का प्रतिरोध किया था, टीपू के क्रोध के प्रमुखा भाजन बन गये थे। सैकड़ों नायर महिलाओं और बच्चों को भगा लिया गया और श्री रंग पटनम ले जाया गया या डचों के हाथ दास के रूप में बेच दिया गया था। हजारों ब्राह्मणों, क्षत्रियों और हिन्दुओं के अन्य सम्माननीय वर्गों के लोगों कोबलात इस्लाम में धर्मान्तरित कर दिया गया था या उनके पैतृक घरों से भगा दिया गया था।”
सुल्तान और भारतीय राष्ट्रवाद
हमारे मार्क्सिस्ट इतिहासकारों द्वारा टीपू सुल्तान जैसे हृदय हीन, अत्याचारी, को वीर पुरुष के रूप में स्वागत किया गया है। किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न है कि टीपू का किस राष्ट्रीयता से सम्बन्ध था और उसके जीवन की प्रेरणा स्रोत-कौन-सी राष्ट्रीयता थी? एक राष्ट्र का जन्म सभ्यता से होता है। राष्ट्रीयता किसी सभ्यता विशेश की मानवीय महत्वाकांक्षा होती है जिसका उदय एक विचार प्रवाह से होता है, जो ऐसी उदीय मानता की प्रतिरुप सांस्कृतिक लक्षण से दिशा पाती है। टीपू का सम्बन्ध उस राष्ट्र से कभी भी नहीं रहा जिसके गृह स्थान का, उसके पन्थ के सह मतावलम्बियों ने, एक हजार वर्ष तक विध्वंस किया, और लूटा, वह हिन्दू भूमि का एक मुस्लिम शासक था। जैसा उसने स्वंय कहा, उसके जीवन का उद्‌देश्य अपने राज्य को दारुल इस्लाम (इस्लामी देश) बनाना था। केवल ब्रिटिशों के विरुद्ध युद्ध करने और उनके द्वारा मारे जाने मात्र से कोई राष्ट्रवादी नहीं बन जाता। टीपू ब्रिटिशों से अपने ताज की सुरक्षा के लिए लड़ा था न कि देश को विदेशी गुलामी से मुक्त कराने केलिए। उसने तो स्वंय ने, भारत पर आक्रमण करने, और राज्य करने के लिए अफगानिस्तान के जहनशाह को आमंत्रित किया था।
(जहनशाह को लिखे पत्रों को पढ़िये)
सैक्यूलरिस्ट जैसा कहना पसन्द करते हैं, इण्डियन नेशनलिज्म अपने प्रादुर्भाव के समय से ही हिन्दू राष्ट्रीयता के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं रही है। हमारे देशवासियों के हृदयों में, अलैक्जैण्डर से लेकर हूण, और बिन कासिम से लेकर ब्रिटिश सभी आक्रमणकारियों के विरुद्ध, अपने न रुकने वाले संघर्ष वा प्रतिरोध के लिए, अभीष्ट प्रेरणा इसी राष्ट्रीयता की भावना से प्राप्त होती रही है। टीपू जैसा एक मुजाहिद, हमारे राष्ट्रीय गर्व और मान्यताओं के लिए, केवल अनपयुक्त एवम्‌ बेमेल ही नही है, घातक भी है। भारत के सैक्यूलरिस्टों की समझ में आ जाना चाहिए कि इन मुस्लिम अत्याचारियों और आतताइयों के, हिन्दुओं पर किये गये अत्याचारों, को दबा छिपाकर, तथा उन्हें सैक्यूलरिज्म का लबादा पहनाने से, कोई कैसा भी लाभ नहीं हो सकेगा। इससे और अधिक मात्रा में गजनबी, गौरी, मुगल, बाबर और टीपू पैदा होंगे जो सैक्यूलरिज्म के जनाजे, कफन, को देश में ढोते रहेंगे।
सामान्य हिन्दुओं को भी समझ लेनाचाहिए कि, अपने देश के इतिहास का पूर्ण ज्ञान, और अपने पूर्वजों के भाग्य, दुर्भाग्य, से पाठ सीख लेना अनिवार्य है; क्योंकि इतिहास की पुनरावृत्ति होती है, उन मूर्खों के लिए, जो अपने इतिहास से अभीष्ट पाठ नहीं लेते, और चेतावनियों को नहीं समझ पाते, या समझना नहीं चाहते।

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