वेद भाष्य के आधार-
मैक्समूलर ने ऋग्वेद का सम्पादन और अंग्रेजी में भाष्य करने के लिए
सायणाचार्य के भाष्य को अपना आधार बनाया जबकि सायण से पहले भी अनेक
आचार्यों ने ऋग्वेद का संस्कृत में भाष्य किया था। भगवद्दत्त के अनुसार
ऋग्वेद के निम्नलिखित भाष्यकार प्रमुख थे (वेदों के भाष्यकार, पृ. २१-९३)।
सभी का रचनाकाल एडी में दिया गया है।
स्कन्द
स्वामी, नारायण, उद्गीथ, (लगभग ६३०;) हस्तमलक (७००), वेंकटमाधव (१०५०),
उव्वट (१०५०), भट्टभास्कर (११वीं सदी), लक्ष्मण (११वीं सदी), आनन्दतीर्थ
(११९८-१२७८), धनुश्क्यज्वा (१३वीं सदी), आत्मानन्दध (१२५०), भट्टगोविन्द
(१३१०), सायण(१३१५-१३८७), मुद्गल (१४१३-१४२२), रावण (१४५०), चतुर्वेद
स्वामी (१६वीं सदी) एवं स्वामी दयानन्द सरस्वती (१८२५-१८८२) जो कि मूलर के
समकालीन थे। उसी समय स्वामी दयानन्द का संस्कृत व हिन्दी में तथा बम्बई से
एक दूसरा वेदभाष्य अंग्रेजी में प्रकाशित हो रहा था।
स्वामी
दयानन्द ने यास्क और पाणिनी आधारित प्राचीन वेदभाष्य प्रणाली का
पुनरूद्धार किया जो कि आज भी सर्वोत्तम प्रणाली मानी जाती है। मगर
मैक्समूलर ने अपने पाठकों को स्वामी दयानन्द का वेद भाष्य न पढ़ने का
परामर्श दिया। मूलर शायद यह नहीं जानता था कि वेदों की उत्पत्ति, ज्ञान और
अर्थ के विषय में सिद्धान्तः सायण और दयानन्द दोनों एक मत हैं। स्वामी
दयानन्द और सायण के वेद भाष्य प्रणाली की तुलना करते हुए डॉ. विमला लिखती
हैं: ''दोनों भाष्यकारों (दयानन्द और सायण) के सिद्धान्तानुसारः
(१)
'वेद ईश्वरीय ज्ञान, स्वतः प्रमाण, नित्य और अपौरुषेय हैं (पृ. ६७); (२)
दोनों भाष्यकारों के अनुसार वेद के शब्द, अर्थ और ज्ञान ईश्वरीय हैं।
किन्तु वह ज्ञान अग्नि, वायु, आदित्य, और अंगिरा- इन चारों ऋषियों के
माध्यम से मनुष्यों तक पहुँचा है।' (पृ. ६६), (३)''दोनों ही आचार्य यास्क
की नैरूक्तिकशैली के अनुयायायी थे।'' (पृ. ९६)।
इतना
सब समान होते हुए भी सायण के भाष्य पर मध्यकालीन प्रचलित प्रथाओं का
प्रभाव दिखाई देता है। सायण के भाष्य की प्रमुख शैली आधियाज्ञिक, ऐतिहासिक
और पौराणिक है। वह वेदों में कर्म काण्ड को प्रधानता देते दिखाई देता है।
डॉ. विमला लिखती हैं, ''सायण अधिकांश मंत्रों के अर्थ याज्ञिक कर्मकाण्ड या
पौराणिक आखयायिकाओं और इतिहास के ढांचे में डालना चाहते हैं। इसी हेतु
दोनों भाष्यकारों के वेद सम्बन्धी सिद्धान्तों में बहुलांशतः समता होने पर
भी इनके अन्तिम रूप और निष्कर्ष में अन्तर है।''
(वही, पृ. 96)
इस
व्यावहारिक विभिन्नता का कारण यह प्रतीत होता है कि सायण विजयनगर राज्य का
प्रधानमंत्री भी था। अपनी राजकीय व्यस्तता के काराण उसने वेदभाष्य में
अन्य विद्वानों का सहयोग लिया हो जैसा कि पं. भगवद्दत्त ने संकेत दिया है
(वही, पृ. ७१) शायद इसीलिए सायण का भाष्य तत्कालीन पौराणिक पंडितों के
प्रभाव से अछूता नहीं रह सका है।
सायणाचार्य की भी उपेक्षा
मैक्समूलर
ने ऋग्वेद का अंग्रेजी भाष्य करते समय सायणाचार्य के उपरोक्त तीनों
सिद्धान्तों को नहीं अपनाया, बल्कि सायण की यज्ञीय, कर्मकाण्डीय शैली को
औरभी विरुपित करके वेद भाष्य किया। उसने अनेक शब्दों के अर्थ सायण से भी
भिन्न किए। अतः मैक्समूलर ने अपने वांछित उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक
मनघड़न्त अनौखी वेदभाष्य शैली विकसित की। उसने सायण की यज्ञीय शैली का लाभ
तो उठाया, परन्तु उसके मूल सिद्धान्तों की जानबूझकर उपेक्षा की और सायण से
भी भिन्न वैदिक शब्दों के मन माने अर्थ करके एक नई शैली को जन्म दिया
जिसमें ऐतिहासिक, विकासवाद, गाथावाद और तुलनात्मक भाषावाद का मिश्रण है।
उसने अपनी भी शैली को समान रूप से सारे ऋग्वेद में नहीं अपनाया था बल्कि
प्रत्येक मंत्र के लिए एक विशेष चयनात्मक शैली को अपनाया। इसीलिए उसके
भाष्य में एकरूपता नहीं है।
मैक्समूलर ने सायण
भाष्य को सम्भवतः इसलिए चुना प्रतीत होता है कि उसके कुछ मंत्रों के अर्थों
में कर्मकाण्डीय प्रणाली का प्रभाव है जिसे कि मैक्समूलर ने अपनी मिशनरी
गतिविविधयों के लिए उपयोगी पाया हो। लेकिन वास्तव में ऋग्वेद मुखयतया एक
आध्यात्मिकवादी गं्रथ है जिसकी कि उसने उपेक्षा की। सायण ने वेदों के अर्थ
आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक- तीन प्रकार से करने का विधान माना है और
आध्यात्मिक विधि को प्रधानता दी। परन्तुफिर भी उसका भाष्य चौदहवीं सदी की
सामाजिक प्रथाओं से अछूता न रह सका।
मैक्समूलर की वेद भाष्य शैली
हालांकि
मैक्समूलर ने सायण भाष्य शैली को आधार बनाया परन्तु उसकी आधिदैविक,
आधिभौतिक और आध्यात्मिक शैलियों में से किसी को न अपनाकर अपनी नई शैली
विकसित की। उस शैली का आधार क्या था? इस विषय में वह स्वंय अपने १८७८ के एक
हिबर्ट भाषण में बतलाता है कि उसने वैदिक शब्दों के अर्थ किस प्रकार किए
हैं। वह स्वयं स्वीकारता हैः
“All we can do is to
find, if possible the original focus of thought , and then follow the various
directions taken by the rays that proceeded from it. This is what I have endeavoured to do, and if
in doing so, I may seem to have put a new garment upon old, all I can do is
that. I see no other way, unless we all
agree to speak not only Sanskrit, but Vedic Sanskrit.”
(Lectures on the Origin
and Growth of Religion, pp. 245-246).
अर्थात्
''हम जो कुछ कर सकते हैं, वह यदि सम्भव हो सके तो वेद के मूल वैचारिक विषय
पर अपने को केन्द्रित करें और फिर उस प्रकाश किरण की विभिन्न दिशाओंपर
ध्यानदें जो उसने निकली हैं। यही कुछ करने का मैने प्रयास किया है और ऐसा
करते हुए यदि मैंने उस प्राचीन को नया वस्त्र पहना दिया हो या नई दिशा दे
दी हो तो मैं यही कर सकता हूँ। मैं और कोई रास्ता नहीं देखता, जब तक कि हम
इस बात से एक मत न हों कि हम केवल लौकिक संस्कृत नहीं बल्कि वैदिक संस्कृत
की बात कर रहे हैं''।
(लैक्चर्स ऑन दी ओरिजिन एण्ड ग्रोथ ऑफ रिलीजन, पृ. २४५-२४६)
अतः
मैक्समूलर ने सायण शैली को भी पूरी तरह से नहीं अपनाया बल्कि मंत्र के
किसी एक विशेष शब्द को अपनी इच्छा से चुनकर, उसके चारों तरफ लौकिक संस्कृत
के आधार पर, वेदार्थ का महल खड़ा कर दिया। उसने ऋषि के बताए मंत्र के देवता
यानी मूल विषय की उपेक्षा करके अपना चयनात्मक तरीका अपनाया। इसी लिए उसके
वेद भाष्य में अनेक विसंगतियां हैं। काश! उसने मंत्र के साथ दिए गए 'देवता'
यानी 'उसके मुखय विषय' को मंत्रार्थ का आधार बनाकर यास्क की नैरुक्तिीय
विधि से, जिसका महर्षि दयानन्द ने उद्धार किया, भाष्य किया होता तो उसके
वेदार्थ में विसंगतियां नहीं होतीं। मगर जो व्यक्ति वेद भाष्य करने के पहले
से ही पक्षपाती और वेद को जड़ से उखाड़ने के लिए संकल्पबद्ध हो तोउसके
वेदार्थ में वैदिक सत्य के दर्शन कैसे होंगे? ऐसे में तो वेदार्थ का
विकृतीकरण होना स्वाभाविक है। अतः मैक्समूलर ने जानबूझ कर मंत्रों का विकृत
अर्थ करके अपने पाठकों को वेद का भ्रामक सन्देश दिया।
सायण-मैक्समूलर शैली की आलोचना
वेदों
के प्रकाण्ड विद्वान महर्षि दयानन्द सरस्वती मैक्समूलर के समकालीन थे और
उसी समय भारत में उनका संस्कृत व हिन्दी में ऋग्वेद का भाष्य एक मासिक
पत्रिका में प्रकाशित हो रहा था। तब तक प्रो. विल्सन की देख-रेख में, जो उस
समय ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय का पुस्तकालयाध्यक्ष भी था, मैक्समूलर के दो
खण्ड ई.आई.सी. द्वारा प्रकाशित हो चुके थे। इन खंडों े वेद भाष्य को दखेकर
महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रंथ ऋग्वेदारिभाष्य भूमिका में (पृ. ८५-९१)
उदाहरण देकर सायण की यज्ञीय और मैक्समूलर के वेद भाष्य शैली की आलोचना की।
मैक्समूलर के संस्कृत ज्ञान एवं वेदभाष्य के विषय में स्वामी जी ने अपने
ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' (समु. ११, पृ. २६१-२६३) में लिखा है कि-
''मोक्षमूलर साहब के संस्कृत साहित्य और थोड़ी-सी वेद की व्याखया देखकर
मुझको विदित होता है कि मोक्षमूलर साहब ने इधर-उधर आर्यवर्तीय लोगों की हुई
टीकादेखकर कुछ-कुछ यथा-तथा लिखा है।'' जैसाकि ''युञ्जन्तिमै व्रन्घं
चरन्तं परितस्थुषः। रोचन्ते राचनादिवि'' (ऋ. १.६.१)। इस मंत्र में
(व्रन्घं) का अर्थ घोड़ा किया है। इससे तो जो सायणाचार्य ने 'सूर्य' अर्थ
किया है, सो अच्छा है। परन्तु इसका ठीक अर्थ 'परमात्मा' है- इतने से जान
लीजिए कि जर्मनी देश और मोक्षमूलर साहब में संस्कृत-विद्या का कितना
पांडित्य है।'' इस प्रकार स्वामी जी ने सायण और मैक्समूलर दोनों के वेद
भाष्यों की कटु आलोचना की है।
इसीलिए मैक्समूलर ने बैरामजी मालबारी को लिखे पत्र में दयानन्द के भाष्य को एक 'दुःखदायी आधार' कहाः
स्वामी
जी और मैक्समूलर का आपस में कभी मिलना नहीं हुआ क्योंकि न मैक्समूलर कीाी
भारत आए और न स्वामी जी कभी इंग्लैंड गए। इतना ही नहीं मैक्समूलर, स्वामी
जी के जीवन काल में उसकी आलोचना का उत्तर न दे सका। परन्तु स्वामी जी के
अचानक निधन के बाद अपनी प्रतिक्रिया में कहाः
“From what has come to
light after Dayanand Saraswati’s death,
I am afraid that he was not simple
minded and straightforward in his work as a reformer as I imagined.”
(Chips
from a German Workshop, Vol.11, p. 182).
अर्थात्
''दयानन्द सरस्वती के निधन के बाद जो कुछ प्रकाश में आया है, उससे प्रतीत
होता है कि वह अपने समाज सुधार के कार्य में सीधा-साधा और स्पष्ट वक्ता
नहीं था, जैसा कि मैं समझता था''
(चिप्स फ्राम ए जरमन वर्कशॅप, खंड २, पृ. १८२)
मैक्समूलर
का यह कहना कि दयानन्द स्पष्ट वक्ता नहीं था, सरासर असत्य है, क्योंकि
स्वामी जी जैसा स्पष्ट वक्ता तो विश्व इतिहास में नहीं मिलेगा। स्वामी जी
ने मैक्समूलर के वेदभाष्य तथा ईसाईत और बाइबिल की अपने ग्रंथ 'सत्यार्थ
प्रकाश' के ग्यारहवें और तेरहवें समुल्लास में सतर्क सुस्पष्ट आलोचना की
है। मैक्समूलर की तरह, क्वीन्स कालेज, बनारस के प्रिन्सीपल रुडॉल्फ हानेरी,
जिससे स्वामी जी की १८६७ में भेंट हुई, ने स्वामी जी के वेदभाष्य का
हिन्दुओं पर प्रभाव के विषय में लिखाः
“He (Dayanand) may
possibly convinced the Hindus that there modern Hinduism is altogether in
opposition to the Vedas….I if once they are become thoroughly convinced of this
redical error, they will not doubt abandon Hinduism at once…They cannot go back
to their Vedic state; that is dead and gone, and will never revive; something
more or less new must follow. We hope it
may be Christianity “(The Christian Intelligencer, Calcutta, March 1870, p.
79).
अर्थात्
''वह (दयानन्द) सम्भवतः भले ही हिन्दुओं को विश्वस्त कर दें कि उनका
वर्तमान हिन्दू धर्म वेदों से बिल्कुल भिन्न है....... यदि वे एक बार इस
भयंकर भूल से विश्वस्त हो भी जाते हैं, तो निश्चय ही वे एकदम हिन्दूधर्म को
त्याग देंगे........ वे फिर वैदिक व्यवस्था में वापिस नहीं जा सकते
क्योंकि वह धर्म तो मर एवं लुप्त हो चुका है और फिर कभी वापिस नहीं आएगाः
कुछ न कुछ नया अवश्य आना चाहिए। हमें आशा है कि वह ईसाईयत ही हो सकती है''
(दी क्रिश्चियन इन्टेलीजैंसर, कलकत्ता, मार्च, १८७०, पृ. ७९)। परन्तु भारत
के हिन्दुओं ने स्वामी जी के वैदिक धर्म को हृदय से स्वीकारा और वेदों के
कट्टर समर्थक और स्वाभिमानी हिन्दू हो गए, तथा ईसाई मत को नहीं अपनाया
जैसी कि रुडोल्फ को आशा थी।
सायण
की वेदभाष्य शैली का स्वामी दयानन्द ने ही नहीं, बल्कि अनेक भारतीय
विद्वानों ने भी कटु आलोचना की है जैसेः अविनाशचन्द्र बोस लिखते हैं ''सायण
जैसे भारतीय विद्वानों के बहुमूल्य भाष्यों में एक गम्भीर दोष है कि धर्म
के विषय में वे अपने काल के संदर्भ् में कहते हैं और इसीलिए वे बहुधा भ्रान्तिपूर्ण होते हैं।''
(दी काल ऑफ दी वेदाज, पृ. १३)
योगी
श्री अरबिन्द ने अपने ग्रंथ ''वेद रहस्य'' में लिखा हैः ''यूरोप के
सर्वप्रथम वैदिक विद्वानों ने सायण की व्याखयाओं में युक्तियुक्ता की विशेष
रूप से प्रशंसा की है तो भी, वेद वाह्य अर्थ के लिए भी यह सम्भव नहीं है
कि सायण की प्रणाली का या उसके परिणामों का बिना बड़े से बड़े संकोच के
अनुसरण किया जाये।'' .......सायण प्रणाली की केन्द्रीय त्रुटि यह है कि वह
सदा कर्मकाण्ड विधि में ही ग्रसत रहता है और निरन्तर वेद के आशय को
बलपूर्वक कमकाण्ड के संकुचित सांचे में ढालकर वैसा ही रूप देने का यत्न
करता है.... सायण सर्वत्र इसी विचार (कर्मकाण्ड) के प्रकाश में प्रयत्न
करता है। इसी सांचे के अन्दर वह वेद की भाषा को ठोंक-पीटकर ढालता है, इसके
विशिष्ट शब्दों के समुदाय को भोजन, पुरोहित, दक्षिणा देने वाला, धन-दौलत,
स्तुति, प्रार्थना, यज्ञ, बलिदान इन कर्मकाण्ड परक अर्थों का रूप देता
है।''
''सायण के भाष्य ने पुरानी मिथ्या धारणाओं पर प्रामाणिकता की मुहर लगा दी जो कई शताब्दियों तक तोड़ी नही जासकती।''
''परिणामतः
सायण भाष्य द्वारा ऋषियों का, उनके विचारों का, उनकी संस्कृति का, उनकी
अभीप्साओं का एक ऐसा प्रतिनिधित्व हुआ है जो उतना संकुचित और दारिद्रयोपहत
है कि यदि उसे स्वीकार कर लिया जाए तो वह वेद के सम्बन्ध में प्राचीन पूजा
भाव को, इसकी पवित्र प्रामाणिकता को, इसकी दिव्य खयाति को बिल्कुल अबुद्धि
गम्य कर देता है।''
(वेद रहस्य, पूर्वार्द्ध, पृ. ५५-५८)
इतना
ही नहीं, श्री अरबिन्द ने योरोपीय विद्वानों, जिसमें मैक्समूलर प्रमुख था,
के वेदभाष्य पर अपनी प्रतिक्रिया इस प्रकार व्यक्त कीः
''सायण
से अंगीकृत ऐतिहासिक तत्व को उसने (मैक्समूलर) तुरनत ग्रहण कर लिया और
मंत्रों में आए प्रसंगों के नए अर्थ और नयी व्याखाऐं करके उसे विस्तृत रूप
दे दिया। ये नए अर्थ और नयी व्याखयाऐं इस प्रबल अभिलाषा को लेकर विकसित की
गई थी कि वे मंत्र उन बर्बर जातियों के प्रारम्भिक इतिहास, रीति-रिवाजों और
संस्थाओं का पता देने वाले सिद्ध हो सकें।'' ....वेद के विषय में आधुनिक
(पाश्चात्य) सिद्धान्त इस विचार से प्रारम्भ होता है कि वेद एक ऐसे आदिम,
जंगली और अत्यधिक बर्बर समाज की स्त्रोत-संहिता थे, जिसकी सामाजिक रचना
असभ्य थी और अपने चारोंओर के जगत् के विषय में जिसका दृष्टिकोण बिल्कुल
बच्चों का सा था। इस विचार के लिए उत्तरदायी है सायण।''
(वेद रहस्य, पूर्वाद्ध, पृ. ६०)।
श्री
अरबिन्द ने न केवल सायण और मैक्समूलर की वेदभाष्य शैली की आलोचना की बल्कि
महर्षि दयानन्द की भाष्य शैली को अत्यन्त तर्कसंगत और वास्तविक माना। योगी
जी लिखते हैं:
“In the matter of Vedic
interpretation, I am convinced that whatever may be the final complete
interpretation, Dayanand will be honoured as the first discoverer of the right
clues. Amidst the chaos and obscurity of
old ignorance and age long misunderstanding, his was the eye of direct vision
that pierced to the truth and fastened on to that which was essential. He has found the keys of the doors that time
had closed and rent asunder the seals of the imprisioned fountains.”
(‘Dayanand
and Veda’, Vedic Magazine, Lahore, November. 1916).
यानी
''वैदिक व्याखया के विषय में मेरा यह विश्वास है कि वेदों की सम्पूर्ण
अन्तिम व्याखया कोई भी हो, ऋषि दयानन्द को यथार्थ निर्देशों के प्रथम
आविर्भावक के रूप में सदा सम्मानितकिया जाएगा। पुराने अज्ञान और बीते युग
की मिथ्याज्ञान की अव्यवस्था और अस्पष्टता के बीच में यह उसकी ऋषिदृष्टी ही
थी जिसने सच्चाई को ढूंढ निकाला और उसे वास्तविकता के साथ बाँध दिया। समय
ने जिन द्वारों को बन्द कर रखा था, उनकी चाबियों को उसी ने पा लिया और बन्द
पड़े हुए स्रोत की मुहरों को उसी ने तोड़कर परे फेंक दिया।''
(दयानन्द और वेद, वैदिक मैर्गजीन, नव. १९१६, लाहौर; वेदों का यथार्थ स्वरूप, पृ. ५८)।
उपरोक्त
उद्धरणों से सुस्पष्ट है कि मैक्समूलर ने वेद भाष्य तीन प्रकार से विकृत
किया- पहला उसने भारतीयों द्वारा अमान्य सायण शैल्ी को जानबूझकर अपनाया; और
उसे भी पूरी तरह नहीं अपनाया। दूसरे असने वैदिक संस्कृत भाषा के शब्दों को
लौकिक संस्कृत भाषा के आधार पर खींच तान कर अर्थ किए क्योंकि वह निरुक्त व
पाणिनीय व्याकरण नहीं जानता था; तीसरे उसक उद्देश्य ही वेदभाष्य को
विरूपित कर ब्रिटिश सरकार के राजनैतिक एवं धार्मिक (ईसाईयत) हितों की
पूर्ति के लिए हिन्दूधर्म को जड़ से उखाड़ फेकना था। तो फिर ऐसे पूर्वाग्रही
और पक्षपाती लेखक से कोई ऋग्वेद के सत्यार्थ की आशा कैसे कर सकता है?
इसीलिए मैक्समूलर ने स्वामीदयानन्द द्वारा उसकी आलोचना का उत्तर देने का भी
कभी साहस नहीं किया।
इसके
अतिरिक्त वेद भाष्य करते हुए, मैक्समूलर का उद्देश्य वेद के मौलिक सन्देश
को उजागर करना नहीं था बल्कि अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए
पूर्वाग्रहों से ग्रसत होकर वैदिक संस्कृति व धर्म के विषय में ऐतिहासिकता
एवं वैचारिक विकासवाद सिद्ध कर करना था। इस संदर्भ में मैक्समूलर का जीवनी
लेखक निराद चौधरी लिखता हैः
“The primary objective
of Muller’s Sanskrit studies was neither philology nor literature as such but
the evaluation of religious and philosophical thought…Mentioning the fact that
all later Sanskrit books on religion, law and philosophy refer back to one
early and unique authority called by the comprehensive name of the Veda”.
(ibid. p. 65)
अर्थात्
''मैक्समूलर के संस्कृत साहित्य के अध्ययन का उद्देश्य न भारतीयों के
भाषा विज्ञान को जानने का था, और न साहित्य समझने का बल्कि उसका उद्देश्य
भारतीयों के धार्मिक और दार्शनिक चिन्तन के विकासक्रम को सिद्ध करना था।
उसने सुस्पष्ट कहा कि वेद के बाद भारतीयों द्वारा लिखे गए धर्म, विधि एवं
दर्शन संबंधीसभी संस्कृत गं्रथ उसी प्राचीन और अद्वितीय प्रामाणिक ग्रंथ
जिसे कि एक व्यापक नाम वेद के द्वारा जाना जाता है, की ओर इंगित करते
हैं।''
(वही, पृ. 165)
उपरोक्त
उद्धरण से सुस्पष्ट है कि मैक्समूलर मानता था कि हिन्दुओं के सभी धार्मिक
ग्रंथ वेदों को प्राचीनतम और प्रामाणिक मानते हैं। यदि वेदों में किसी
प्रकार विकासवाद सिद्ध हो जाए तो वेदों की श्रेष्ठता स्वंय समाप्त हो
जाएगी। इसी उद्देश्य से उसने २९ जनवरी १८८२ की बैराम मालबारी को
निम्नलिखित पत्र लिखाः
“As I told
you on a former occasion, my thoughts while writing these lectures (the
Hibbert) were with the people of India. I wanted to tell those few at least whom I
might hope to reach in English what the true
historical value of their ancient
religion is, as looked upon, not from an exclusively European or Christian, but
from an historical point of view. I wished to warn against two dangers, that of
undervaluing or despising the ancient national religion, as is done so often by
your half – European youths and that of
overvaluing it, and interpreting it as it was never meant to be interpreted of
which you may see a painful instance in Dayanand Saraswati’s labours on the
Veda.
“Accept
the Veda as an ancient historical document, containing thoughts in accordance
with the character of an ancient and simple mined race of men, and you will be
able to admire it, and to retain some of it, particularly the teaching of the
Upanishads, even in these modern days, But disocover in it ‘ steam engines and
electricity, and European philosophy and morality, ‘ and you deprive it of its true character, you
destroy its real value, and you break the historical continuity that ought
to bind the present to the past. Accept
the past as a reality, study it and try to understand it, and you will then
have less difficulty in finding the right way toward the future”.
(LLMM, Vol. 2, pp. 115-116).
अर्थात्
''जैसा कि मैंने तुम्हें एक दूसरे अवसर पर बतलाया था कि हिबर्ट भाषणों को
लिखते समय मेरे विचारों का लक्ष्य भारत के लोगों के बारे में था। मै। उन
थोड़े से लोगों को बताना चाहता हूँ जिन तकमैं कम से कम अंग्रेजी भाषा के
माध्यम से उन तक पहुँचने की आद्गाा करता हूँ कि उनके प्राचीन धर्म का सच्च
ऐतिहासिक मूल्य क्या है जैसा कि देखा जाता है, न केवल यूरोपीय अथवा ईसाई
दृष्टि से, बल्कि एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखा जाता हैं मैं दो खतरों के
प्रति सावधान करना चाहता हूँ; पहला भारत के प्राचीन धर्म की उपेक्षा या
उसका अवमूल्यन करना, जैसा कि तुम्हारे र्आ यूरोपीय युवकों द्वारा किया जाता
है और दूसरा उस धर्म का अति मूल्यांकन करना या ऐसी व्याखया करना जो कि
पहले कभी नहीं की गई और इसका तुम एक दुःखदायी उदाहरण दयानन्द सरस्वती का
वेदों पर किए गए परिश्रम में देख सकते हो।''
''तु
वेद को एक प्राचीन ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में स्वीकारों, जिसमें कि एक
प्राचीन और सीधे-साधे चरित्र वाली जाति के लोगों के विचारों का वर्णन है,
जतब तुम इसकी प्रशंसा कर सकोंगे और इसमें से कुछ को स्वीकार करने येग्य हो
सकोगे विशेषकर आज के युग में भी उपनिषदों की शिक्षओं को लेकिन तुम इसमें
ढूंढो, भाप के इंजन और बिजली, यूरोपीय दर्शन और नैतिकता, और तुम इसके सच्चे
स्वरूप को, इससे अलग कर दो, तुम इसके वास्तविक मूल्यों को नष्टकर दो और
तुम इसकी ऐतिहासिक निरंतरता को नष्ट-भ्रष्ट कर दो जो कि वर्तमान को इसके
अतीत से जोड़ती चली आ रही है। अतीत को एक वास्तविकता के रूप स्वीकारो, उसका
अध्ययन करो और उसे समझने का प्रयत्न करो और फिर तब तुमको भविष्य के लिए
अपना अगला सही कदम उठाने में कम कठिनाई होगी।''
(जी.प. खंड, पृ. ११५-११६)
इसके
अतिरिक्त वेदभाष्य के विषय में उसने स्वीकार किया कि वेद-वैदिक संस्कृत
में हैं, न कि लौकिक संस्कृत में। इसीलिए इनका सत्य अर्थ करना कठिन हैं। इस
सत्य को उसने ऋग्वेद के छः खण्डों में भाष्य प्रकाशित करने के ४३ वर्ष बाद
यानी अपने जीवन के अनितम चरण में स्वीकारते हुए १८९० में प्रकाशित अपनी
पुस्तक, 'वैदिक हिम्स' की भूमिका में लिखाः
“No one who knows
anything of the Veda, would think of attempting, a translation of it at
present. A translation of the Rigveda is
a task for the next century. “
(Vedic
Hymes Vol. 1, Max Mullar and H. Oldenberg, 1890, Introduction, p. IX).
यानी
''जो कोई वेद के बारे में थोड़ा भी जानता हैा, वह वर्तमान में उसके भाष्य
करने के प्रयास की भी नहीं सोचेगा। ऋग्वेद के भाष्य का काम अगली सदीका
है।'' उसने यहाँ तक लिखाः
“If by translation we
mean a complete and satisfactory of final translation of the whole of the
Regveda, I shall be feel inclined to go even further then Prof. Von Roth. Not only shall we wait till the next century
for such a work, but I doubt whether we shall ever obtained it”.
(ibid. p. ix)
अर्थात्
''यदि भाष्य करने से हमारा तात्पर्य ऋग्वेद का सम्पूर्ण और सन्तोषजनक सही
अनुवाद करने से है तो मैं प्रोफेसर वान रॉथ से भी आगे जाना चाहूँगा। हमें न
केवल अगली शताब्दी तक प्रतीक्षा करनी होगी बल्कि मुझे सनहें है कि हम कभी
भी ऐसा कर पावेंगें''
(मैक्समूलर एवं औल्डिनबर्ग, वैदिक हिम्स, खंड एक, भूमिका। ग्, १८९०)
मैक्समूलर
ने उपरोक्त शब्द तब लिखे ज बवह १८७६ में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से
पदमुक्त हो चुका था। १८८२ में वेदों पर व्याखयान दे चुका था जो 'इंडिया
व्हाट केन इट टीच अस' पुसतक में छपे। इतने पर भी उसने अपने पिछले छः खंडों
के ऋग्वेद भाष्य में कोई सुधार लाने की इच्छा नहीं जताई और न यह कहा कि
मेरे ये वेद भाष्य अप्रामाणिक या असन्तोषजनक हैं। उने बहुरुपिएपन की एक पोल
और खोलदूँ कि उसने १८८७ में सेन्ट जोन्स कॉलेज में भाषण देते हुए कहा कि
''मेरा काम ईसाई मिशनरियों को धर्मान्तरण कार्य में मदद करना है''। अतः
मैक्समूलर अपने आन्तरिक हृदय से हिन्दुओं के धर्म शास्त्रों के प्रति
हिन्दुओं में हेय भावना जगाकर उनहें ईसाईयत में धर्मानतरित करने के
उद्देश्य से आजीवन प्रयास करता रहा। मगर उसी सभी मान्यताएँ अनुचित, यथार्थ
से परे अैर हठ धर्मिता से भरी होने के कारण अब निरस्त हो चुकी हैं। परन्तु
हिन्दू विरोधी मिशनरी और मार्क्सिस्ट मैक्समूलर की उन्हीं घिसी पिटी बातों
को मीडिया में उछालते रहते हैं।
मैक्समूलर
के ऋग्वेद एवं अन्य हिन्दू धर्म शास्त्रों के मूल सन्देश को चयनात्मक आधार
पर तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करने का उद्देश्य यही था कि भारतीयों को ईसाईयत
में धर्मान्तरित करके ब्रिटिश राज्य को सुदृढ़ बनाया जा सके। १८८७ में सैन्ट
जोंस कॉलेज में भाषण देते हुए उसने कहा, ''जब मैंने यूनीवर्सिटी प्रेस के
लिए इन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण पवित्र पुस्तकों के अनुवादों का काम प्रारम्भ
किया, तो अनेकों में से मेरा एक उद्देश्य मिशनरियों को सहायकता करना था।''
''हम उस मिशनरी के बारे में क्या सोचेगें जो हमेंधर्मान्तरित करने तो आया
है परन्तु उसने कभी हमारी बाइबिल नहीं पढ़ी...... लेकिन ऐसा कहा जाएगा, कि
तुम इस बात से इन्कार नहीं कर सकते हो कि हिन्दू बहुदेवतावादी हैं और वे
मूर्तियों की पूजा रकते हैं लेकिन हमें उनकी अपनी बाइबिल-वेद जो कि भारत की
किसी भी पुस्तक से पहले की हैं निःसन्देह हम वहाँ ऐसी दैवी शक्ति के अनेक
नाम पाते हैं, अनेक देवता, जैसा कि हम कहने के आदी हैं, लेकिन वहाँ ऐसे भी
उद्धरण हैं जिनमें कि ईश्वर का एकत्व सुस्पट है।''
(जी.प. खं. १, भूमिका पृ. ४५)
यहाँ
यह कहना उचित होगा कि हिन्दू धर्म सम्बन्धी जितना भी साहित्य तत्कालीन
(१८४९-१९४७) ब्रिटेन या भारत में रहने वाले अंग्रेजों एवं ऑक्सफोर्ड
विश्वविद्यालय में प्रशिक्षित अंग्रेज और भारतीय लेखकों ने लिखा है उस सब
पर मैक्समूलर के हिन्दू धर्म विरोध की छाया स्पष्ट दिखाई देती है। आश्चर्य
तो यह है कि ब्रिटेन का हिन्दू धर्म विरोध तो भारत में ब्रिटिश राज समाप्त
होने और अंगेजों के चले जाने के बाद भी समाप्त नहीं हुआ और आज भी चला आ रहा
है। अभी २००९ में प्रकाशित ऐन्साक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (ले० अर्थर
लेबेनिनन बाशम, जे.ए.बी. ब्यूटीनिन और बेंडी डोनीगर-स्टूडेन्टस होम एडीशन)
में लिखा है कि-
(i)
“Krishna was worshipped with his
adulterous consort Radha.”
(ii)
“Vishnu often acts deceitfully, selfishly or helplessely”.
(iii) About
Shiva Lingam “It says, “ yet another epiphany is that of the ligam, an upright
rounded post usually of stone, respresenting a phallus in which form he is
worshipped throughout India.”
(i)अर्थात् ''कृष्ण अपनी व्यभिचारिणी प्रेयसी राधा के साथ पूजा जाता था''
(ii) विष्णु अक्सर कपटता, स्वार्थपरता, या विवशता से व्यवहार करता है।''
(iii) ''सारे भारत में शिव-लिंग की पूजा होती है'' आदि।
यहाँ
ध्यान देने की बात यह है कि ऐन्साक्लोपीडिया के प्रबन्धकों को हिन्दू धर्म
के बारे में लिखवाने के लिए कोई निष्ठावान हिन्दू विद्वान नहीं मिला बल्कि
उन्होंने हिन्दू विरोधी ब्रिटिश लेखकों से जानबूझकर हिन्दू धर्म शास्त्रों
के बारे में लिखवाया ताकि भारत में चर्च का धर्मान्तरण का काम आसान हो
सके। अतः मैक्समूलर द्वारा स्थापित हिन्दू धर्म शास्त्रों के विकृतीकरण का
आन्दोलन ब्रिटेन में आज तक चला आ रहा है।
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